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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 123 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 123/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भृगु देवता - विश्वे देवाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सौमनस्य सूक्त
    1

    ए॒तं स॑धस्थाः॒ परि॑ वो ददामि॒ यं शे॑व॒धिमा॒वहा॑ज्जा॒तवे॑दाः। अ॑न्वाग॒न्ता यज॑मानः स्व॒स्ति तं स्म॑ जानीत पर॒मे व्योमन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तम् । स॒ध॒ऽस्था॒: । परि॑ । व॒: । द॒दा॒मि॒ । यम् । शे॒व॒ऽधिम् । आ॒ऽवहा॑त् । जा॒तऽवे॑दा: । अ॒नु॒ऽआ॒ग॒न्ता । यज॑मान: । स्व॒स्ति । तम् । स्म॒ । जा॒नी॒त॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् ॥१२३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतं सधस्थाः परि वो ददामि यं शेवधिमावहाज्जातवेदाः। अन्वागन्ता यजमानः स्वस्ति तं स्म जानीत परमे व्योमन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एतम् । सधऽस्था: । परि । व: । ददामि । यम् । शेवऽधिम् । आऽवहात् । जातऽवेदा: । अनुऽआगन्ता । यजमान: । स्वस्ति । तम् । स्म । जानीत । परमे । विऽओमन् ॥१२३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 123; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विद्वानों से सत्सङ्ग का उपदेश।

    पदार्थ

    (सधस्थाः) हे साथ-साथ बैठनेवाले सज्जनो ! (वः) तुम्हारे लिये (एतम्) इस (शेवधिम्) सुखनिधि परमेश्वर को (परिददामि) सब प्रकार से देता हूँ [उपदेश करता हूँ], (यम्) जिस [परमेश्वर] को (जातवेदाः) विज्ञान को प्राप्त वेदार्थ जाननेवाला पुरुष (आवहात्) अच्छे प्रकार प्राप्त होवे, और [जिसके द्वारा] (यजमानः) परमेश्वर का पूजनेवाला (स्वस्ति) कल्याण (अन्वागन्ता) लगातार पावेगा, (परमे) परम उत्तम (व्योमन्) आकाश में वर्तमान (तम्) उस परमेश्वर को तुम (स्म) अवश्य (जानीत) जानो ॥१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य विद्वानों से मिलकर सदाचारी होते हैं, वे ही सर्वव्यापी परमेश्वर से मिलते हैं। ॥१॥ मन्त्र १, २ कुछ भेद से यजुर्वेद में हैं−अ० १८।५९।६०, इनका अर्थ भगवान् दयानन्द सरस्वती के आधार पर यहाँ किया गया है ॥

    टिप्पणी

    १−(एतम्) सर्वव्यापकम् (सधस्थाः) सहस्थानाः (परि) सर्वतः (वः) युष्मभ्यम् (ददामि) (यम्) (शेवधिम्) शेवं सुखं धीयते यस्मिंस्तं निधिम्−निरु० २।४। सुखनिधिं परमात्मानम् (आवहात्) लेटि रूपम्। समन्तात् प्राप्नुयात् (जातवेदाः) जातप्रज्ञो वेदार्थवित् (अन्वागन्ता) गमेर्लुट्। निरन्तरमागमिष्यति। प्राप्स्यति (यजमानः) परमेश्वरपूजकः (स्वस्ति) कल्याणम् (तम्) परमात्मानम् (स्म) अवश्यम् (परमे) प्रकृष्टे (व्योमन्) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति अव रक्षणे−मनिन्। ज्वरत्वरस्रिव्यवि०। पा० ६।४।२०। इति ऊठि कृते गुणः। सुपां सुलुक्०। सप्तम्या लुक्। न ङिसम्बुद्ध्योः। पा० ८।२।८। नलोपाभावः। व्योमन्=व्यवने−निरु० ११।४०। व्योमनि। आकाशे ॥

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    विषय

    यज्ञरूप शेवधि

    पदार्थ

    १. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (सधस्था:) = यज्ञवेदि पर मिलकर बैठनेवाले यज्ञशील लोगो! (एतम्) = इस यज्ञ को (वः परिददामि) = तुम्हें देता हूँ। उस यज्ञ को तुम्हारे लिए देता हूँ (तम्) = जिस यज्ञरूप (शेवधिम्) = कोश को (जातवेदाः) = यह यज्ञाग्नि [जातं वेद:-धनं यस्मात्] (आवहात्) = तुम्हारे लिए प्राप्त कराता है। यज्ञ एक कोश है, क्योंकि इसी से पर्जन्यों की उत्पत्ति होकर विविध अन्नों का उत्पादन होगा। २. यह (यजमान:) = यज्ञशील पुरुष (स्वस्ति अनु आगन्ता) = क्रमश: अधिकाधिक कल्याण को प्राप्त होगा। हे यज्ञशील पुरुषो! तुम (तम्) = उस मुझे [परमात्मा को] (परमे व्योमन् जानीत स्म) = इस परम आकाश में सर्वत्र व्याप्त जानो।

     

    भावार्थ

    यज्ञ एक शेवधि-कोश है। यज्ञशील पुरुष उत्तरोत्तर कल्याण को प्राप्त होता है। यह प्रभु को जाननेवाला बनता है।

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    भाषार्थ

    (सधस्थाः) परमेश्वर के साथ स्थित, परमेश्वरस्थ हे महात्माओं ! (एतम्) इस (शैवधिम्) धन की निधि अर्थात् खजाने को,– (यम्) जिसे कि (जातवेदाः) जातवेद परमेश्वर ने (आवहात्१) मुझे प्राप्त कराया है, (वः) तुम्हारे लिये (परिददामि) पूर्णतया मैं प्रदान करता हूं। (अनु) तत्पश्चात् (यजमानः) दानयज्ञ का या ध्यानयज्ञ का करने वाला (स्वस्ति) कल्याण मार्ग की ओर (आगन्ता), आएगा (तम्) उसे (परमे व्योमन्) परमरक्षक परमेश्वर में स्थित हुआ (जानीत) तुम जानो।

    टिप्पणी

    [सधस्थाः = सह तिष्ठन्तीति, सह को सध आदेश (अष्टा० ६/३/९६)। शेवधिः = दाता, शेवधि को अध्यात्म मार्ग में बाधक अनुभव करता है। यथा "जानाम्यहं शेवधिरित्यनिज्यं न ह्यध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत् (कठोपनिषद् अध्याय १, बल्ली २ खण्ड १०)। जातवेदाः= "जातानि वेद, जाते जाते विद्यते इति वा, जातवित्तो वा जातधनः, जातविद्यो वा जातप्रज्ञः" (निरुक्त ७।५।१९)। व्योमन्= वि + अव् (ऊठ्) + मनिन्। आगन्ता= आङ् + गम् (लुट् लकार)।] [१. या जिसे कि परमेश्वर प्राप्त कराता है, लेट् लकार, आट् आगम।]

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    विषय

    मुक्ति की साधना

    भावार्थ

    ईश्वर उपदेश करता है कि हे (सधस्था) सदा साथ रहने वाले (वः) तुम लोगों को (एतम्) यह (शेवधिम्) ख़ज़ाना मैं (परि ददामि) सौंपता हूं (यम्) जिसे कि (जातवेदाः) वेदोत्पादक प्रभु (आवहात्) तुम तक पहुंचाया करता है। हे विद्वान् पुरुषो ! (यजमानः) यज्ञ करने वाला जो पुरुष (स्वस्ति) कुशल क्षेम सहित (अनु आगन्ता) इस ज्ञानमय खजाने का अनुसरण करता है (तम्) उसको (परमे व्योमन्) परम उत्कृष्ट, विशेष सुरक्षित, मुक्तिधाम में प्राप्त हुआ (जानीत) जानो।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘सधस्थ’ ‘ते’ (द्वि०) 'आवहान् शेवधिं’ (तृ०) ‘यज्ञपतिर्वो अत्र’ इति यजु०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। १-२ त्रिष्टुभौ, ३ द्विपदा साम्नी अनुष्टुप्, ४ एकावसाना द्विपदा प्राजापत्या भुरिगनुष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    HeavenlyJoy

    Meaning

    O friends and inmates of the hall of yajna, I give you this treasure trove of knowledge and divine joy which Jataveda, lord omniscient, has revealed and given us. The yajamana will surely come to all good and total well being. Know That which abides in the highest heavens and shines in the deepest core and highest vision of the soul.

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    Subject

    Visvedevah

    Translation

    You, who are present, to you I offer these entire riches, brought to us by Jataveda, one who knows all that is born. The sacrificer is sure to follow. May you receive him n heaven. (Also Yv XVIII.59)

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    Translation

    O Worldly companions! I a friend of yours offer you this treasure (locked in the Vedic verses) which the omniscient Divinity has given to the mankind. The performer of yajna will find pleasure and prosperity. O ye friends! Acknowledge and know him (God) who pervades the expanding space or who resides in highest bliss.

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    Translation

    Ye Comrades, I offer unto you this treasure, which God reveals for you again and again. Know the worshipper who will happily follow this treasure, as having certainly attained to final beatitude.

    Footnote

    I: A learned scholar of the Vedas. Treasure: Vedas, the store house of spiritual knowledge. He who follows the teachings of the Vedas attains to salvation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(एतम्) सर्वव्यापकम् (सधस्थाः) सहस्थानाः (परि) सर्वतः (वः) युष्मभ्यम् (ददामि) (यम्) (शेवधिम्) शेवं सुखं धीयते यस्मिंस्तं निधिम्−निरु० २।४। सुखनिधिं परमात्मानम् (आवहात्) लेटि रूपम्। समन्तात् प्राप्नुयात् (जातवेदाः) जातप्रज्ञो वेदार्थवित् (अन्वागन्ता) गमेर्लुट्। निरन्तरमागमिष्यति। प्राप्स्यति (यजमानः) परमेश्वरपूजकः (स्वस्ति) कल्याणम् (तम्) परमात्मानम् (स्म) अवश्यम् (परमे) प्रकृष्टे (व्योमन्) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति अव रक्षणे−मनिन्। ज्वरत्वरस्रिव्यवि०। पा० ६।४।२०। इति ऊठि कृते गुणः। सुपां सुलुक्०। सप्तम्या लुक्। न ङिसम्बुद्ध्योः। पा० ८।२।८। नलोपाभावः। व्योमन्=व्यवने−निरु० ११।४०। व्योमनि। आकाशे ॥

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