अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 126/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - दुन्दुभिः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दुन्दुभि सूक्त
1
उप॑ श्वासय पृथि॒वीमु॒त द्यां पु॑रु॒त्रा ते॑ वन्वतां॒ विष्ठि॑तं॒ जग॑त्। स दु॑न्दुभे स॒जूरिन्द्रे॑ण दे॒वैर्दू॒राद्दवी॑यो॒ अप॑ सेध॒ शत्रू॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । श्वा॒स॒य॒ । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । पु॒रु॒ऽत्रा । ते॒ । व॒न्व॒ता॒म् । विऽस्थि॑तम् । जग॑त् । स: । दु॒न्दु॒भे॒ । स॒ऽजू: । इन्द्रे॑ण । दे॒वै: । दू॒रात् । दवी॑य: । अप॑ । से॒ध॒ । शत्रू॑न् ॥१२६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उप श्वासय पृथिवीमुत द्यां पुरुत्रा ते वन्वतां विष्ठितं जगत्। स दुन्दुभे सजूरिन्द्रेण देवैर्दूराद्दवीयो अप सेध शत्रून् ॥
स्वर रहित पद पाठउप । श्वासय । पृथिवीम् । उत । द्याम् । पुरुऽत्रा । ते । वन्वताम् । विऽस्थितम् । जगत् । स: । दुन्दुभे । सऽजू: । इन्द्रेण । देवै: । दूरात् । दवीय: । अप । सेध । शत्रून् ॥१२६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और सेना के कर्तव्यों का उपदेश।
पदार्थ
[हे राजन्] (पृथिवीम्) भूमि वा अन्तरिक्ष को (उत) और (द्याम्) सूर्य वा बिजुली में (उप) उपयोग के साथ (श्वासय) जीवन डाल, (पुरुत्रा) अनेक पदार्थों में (ते) तेरे लिये (विष्ठितम्) व्याप्त (जगत्) जगत् की (वन्वताम्) वे [वीर लोग] याचना करें। (दुन्दुभे) हे दुन्दुभि [ढोल] के सदृश गर्जनेवाले वीर ! (सः) सो तू (इन्द्रेण) ऐश्वर्य व बिजुली के अस्त्र समूह से और (देवैः) विजयी वीरों से (सजूः) प्रीति करता हुआ (दूरात्) दूर से (दवीयः) अति दूर (शत्रून्) शत्रुओं को (अपसेध) हटा दे ॥१॥
भावार्थ
राजा वीरों द्वारा बिजुली आदि के अस्त्र-शस्त्रों से शत्रुओं को हटा कर चक्रवर्ती राज्य करके आकाश और भूमि पर शान्ति करे ॥१॥ मन्त्र १, ३ कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० ६।४७।२९, ३१, यजु० २९।५५।५७। इन मन्त्रों का अर्थ भगवान् दयानन्द सरस्वती के आधार पर किया गया है ॥
टिप्पणी
१−(उप) उपयोगेन (श्वासय) प्राणय। आश्रय (पृथिवीम्) भूमिमन्तरिक्षं वा (उत) अपि (द्याम्) सूर्यं विद्युतं वा (पुरुत्रा) बहुषु पदार्थेषु (ते) तुभ्यम् (वन्वताम्) वनु याचने। याचन्तां वीराः (विष्ठितम्) व्याप्तम् (जगत्) जगद्राज्यम् (सः) स त्वम् (दुन्दुभे) अ० ५।२०।१। दुन्दुभिरिव गर्जक (सजूः) अ० ६।३५।२। प्रीतिसहितः (इन्द्रेण) विद्युदस्त्रेण (देवैः) विजिगीषुभिर्वीरैः (दूरात्) (दवीयः) दूर−ईयसुन्। स्थूलदूरयुव० पा० ६।४।१५६। इति रलोपः पूर्वस्य च गुणः। अदूरतरम् (अपसेध) अपनय (शत्रून्) ॥
विषय
दुन्दुभिनाद से पृथिवी व धुलोक का उच्छ्वसित हो उठना
पदार्थ
१. देश के स्वातन्त्र्य के रक्षण के लिए युद्ध करना पड़े तो यह अथर्वा युद्ध से पराङ्मुख न होकर युद्धवाद्य को सम्बोधित करते हुए कहता है कि (दुन्दुभे) = हे रणभेरि! तू (पृथिवीम् उत् द्यम्) = पृथिवी व धुलोक को (उपश्वासय) = अपने घोष से आपूरित कर दे। यह (विष्ठितम्) = विविधरूप में अवस्थित (जगत्) = प्राणिसमूह (पुरुत्रा) = बहुत प्रदेशों में (ते) = तेरे जयघोष का (वन्वताम्) = संभजन करे। २. हे दुन्दुभे! (स:) = वह तू (इन्द्रेण) = शत्रु-विद्रावक सेनापति तथा (देवैः) = शत्रुविजिगीषावाले सैनिकों के (सजू:) = साथ (दुरात् दवीयः) = दूर से भी दूर (शत्रून् अपसेध) = शत्रुओं को भगा डाल [अपगमय]।
भावार्थ
युद्ध के समय भेरीनाद पृथिवी को गुजा दे। अपने-अपने स्थान में स्थित हुए सब इस जयघोष को चाहें। सेनापति व सैनिकों के साथ यह भेरीनाद शत्रुओं को दूर भगानेवाला हो।
भाषार्थ
(दुन्दुभे) हे सैन्य-ढोल ! तू (पृथिवीम् उत द्याम्) पृथिवी और द्योः को (उपश्वासय) गुञ्जा दे, (पुरुत्रा) बहुत प्रदेशों में (विष्ठितम्) विविध स्थानों में स्थित (जगत्) जङ्गम मनुष्य तथा अन्य प्राणी (ते) तेरे घोष की (वन्वताम्१) याचना करें, चाहें। (सः) वह तू (इन्द्रेण) सम्राट् के साथ तथा (देव:) विजिगीषु सैनिकों के (सजू:) साथ मिलकर (शत्रून्) शत्रुओं को (दूराद दवीयः) दूर से दूर (अपसेध) धकेल दे, भगा दे।
टिप्पणी
[अपसेध = षिधु गत्याम् (भ्वादिः)। सैनिकरथ और सैनिक दुन्दुभि सैनिक अङ्ग है (निरुक्त अ० ९ पा०२ खण्ड ११,१२)।] [१. वनु याचने (तनादिः)।]
विषय
युद्धोपकरण दुन्दुभि, राजा और परमात्मा।
भावार्थ
हे दुन्दुभे ! तू (पृथिवीम् उप श्वासय) पृथिवी को जीवन, प्राण धारण करा, (उत द्याम्) और द्युलोक को भी प्राण धारण करा। (पुरुत्रा) नाना, बहुत से रूपों में (विष्ठितं) विद्यमान (जगत्) संसार (ते) तेरा (वन्वताम्) आश्रय ले। तू (इन्द्रेण सजूः) इन्द्र, आत्माके साथ सप्रेम होकर और (देवैः) देव, विद्वान् पुरुषों के साथ (सजूः) सहमत होकर (दूराद् दवीयः) दूर से दूर भी विद्यमान् शत्रु को (अपसेध) परे कर। जिस प्रकार नक्कारा या दुन्दुभि उच्च घोष से सब को सुनाई देता और राजा और भटों सहित दुःसाध्य शत्रु को भी पराजित करता है इसी प्रकार दुन्दुभि रूप परमेश्वर जो अपने नाद से पृथिवी और आकाश को गुजा रहा है, हमारे आत्मा और विद्वानों पर अनुग्रह कर हमारे दूरस्थ, अज्ञात शत्रु काम-क्रोध आदि को भी परे करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वानस्पत्यो दुन्दुभिर्देवता। १, २ भुरिक् त्रिष्टुभौ, ३ पुरोबृहती विराड् गर्भा त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Clarion Call of the Brave
Meaning
Heroic leader, loud and bold, let the war drum of action, your clarion call to the nation, resound over earth and sky and inspire the nation with the breath of life and passion. Let the wide world, moving and non¬ moving, know you with love and honour and hear the call. And, in unison with the power and grandeur of the nation and the best of brilliant nobility, let the call drive off the enemies farther than the farthest.
Subject
Dundubhih - Drum
Translation
O war drums, fill with your thumping sound the earth and heaven. Let all things, movable or stationary be aware of it: May you associated with the resplendent Lord and Nature’s forces drive all malign elements far from us. (Also Rg. VI.47.29)
Translation
Let this drum send forth its voice loudly through the earth and the heavenly space, let the expansive world have all regards for this drum, let this drum accordant with the king and learned states men drive far off the enemies.
Translation
O Commander, thundering aloud like the drum, being full of supremacy, with the help of the learned, drive thou afar, yea, very far, our foemen. Grant life to the denizens of the Earth, and persons exalted like Heaven. May the world existing in its various aspects seek thy shelter!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(उप) उपयोगेन (श्वासय) प्राणय। आश्रय (पृथिवीम्) भूमिमन्तरिक्षं वा (उत) अपि (द्याम्) सूर्यं विद्युतं वा (पुरुत्रा) बहुषु पदार्थेषु (ते) तुभ्यम् (वन्वताम्) वनु याचने। याचन्तां वीराः (विष्ठितम्) व्याप्तम् (जगत्) जगद्राज्यम् (सः) स त्वम् (दुन्दुभे) अ० ५।२०।१। दुन्दुभिरिव गर्जक (सजूः) अ० ६।३५।२। प्रीतिसहितः (इन्द्रेण) विद्युदस्त्रेण (देवैः) विजिगीषुभिर्वीरैः (दूरात्) (दवीयः) दूर−ईयसुन्। स्थूलदूरयुव० पा० ६।४।१५६। इति रलोपः पूर्वस्य च गुणः। अदूरतरम् (अपसेध) अपनय (शत्रून्) ॥
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