अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 130/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - स्मरः
छन्दः - विराट्पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - स्मर सूक्त
1
र॑थ॒जितां॑ राथजिते॒यीना॑मप्स॒रसा॑म॒यं स्म॒रः। देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
स्वर सहित पद पाठर॒थ॒ऽजिता॑म् । रा॒थ॒ऽजि॒ते॒यीना॑म् । अ॒प्स॒रसा॑म् । अ॒यम् । स्म॒र: । देवा॑: । प्र । हि॒णु॒त॒ । स्म॒रम् । अ॒सौ । माम् । अनु॑ । शो॒च॒तु॒ ॥१३०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
रथजितां राथजितेयीनामप्सरसामयं स्मरः। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु ॥
स्वर रहित पद पाठरथऽजिताम् । राथऽजितेयीनाम् । अप्सरसाम् । अयम् । स्मर: । देवा: । प्र । हिणुत । स्मरम् । असौ । माम् । अनु । शोचतु ॥१३०.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
स्मरण सामर्थ्य बढ़ाने का उपदेश।
पदार्थ
(रथजिताम्) रमणीय पदार्थों की जितानेवाली, और (राथजितेयीनाम्) और स्मरणीय पदार्थों के विजयी पुरुषों के समीप रहनेवाली (अप्सरसाम्) आकाश, जल, प्राण और प्रजाओं में व्यापक शक्तियों का (अयम्) यह जो (स्मरः) स्मरण सामर्थ्य है, (देवाः) हे विद्वानो ! (स्मरम्) उस स्मरण सामर्थ्य को (प्र) अच्छे प्रकार (हिणुत) बढ़ाओ, (असौ) वह [स्मरण सामर्थ्य] (माम् अनु) मुझ में व्यापकर (शोचतु) शुद्ध रहे ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग से विज्ञानपूर्वक संसार की उपकारी विद्याओं को स्मरण रखकर उपयोगी बनावें ॥१॥
टिप्पणी
१−(रथजिताम्) जि−क्विप्, अन्तर्गतणिच्। रमणीयानां पदार्थानां जापयित्रीणाम् (राथजितेयीनाम्) शुभ्रादिभ्यश्च। पा० ४।१।१२३। रथजित्−ढक्। अदूरभवश्च। पा० ४।२।७०। इत्यर्थे। रथजितां रमणीयपदार्थजेतॄणां समीपभवानाम् (अप्सरसाम्) अप्सु आकाशे, जले, प्राणेषु प्रजासु च सरणशीलानां शक्तीनाम् (अयम्) (स्मरः) स्मृ आध्याने चिन्तायां च−अप्। ध्यानसामर्थ्यम् (देवाः) हे विद्वांसः (प्र) प्रकर्षेण (हिणुत) हि गतौ वृद्धौ च। वर्धयत (स्मरम्) चिन्तनम् (असौ) स्मरः (माम्) ब्रह्मचारिणम् (अनु) व्याप्य (शोचतु) ईशुचिर् शौचे, छान्दसः शप्। शुच्यतु शुध्यतु ॥
विषय
कामवासना की उत्पत्ति कहाँ
पदार्थ
१. (रथजिताम्) = रमण के साधनभूत पदार्थों का विजय [संग्रह] करनेवाले पुरुषों का तथा (राथजितेयीनाम्) = रमण-साधन पदार्थों को जीतनेवाले पुरुषों की (अप्सरसाम्) = इन सुन्दर स्त्रियों का अर्थ (अयं स्मर:) = यह 'काम' है। काम-वासना का सम्बन्ध इन रथजितों व राथजितेयी अप्सराओं से ही है। 'रमणसाधन पदार्थों का संग्रह व शारीरिक सौन्दर्य'काम-वासना की उत्पत्ति के साधन बनते हैं। २. हे (देवा:) = देवो! (स्मरम्) = इस 'काम' को (प्रहिणुत) = मुझसे दूर ही भेजो, (असौ माम् अनुशोचतु) = यह काम मेरा शोक करता रहे कि 'किस प्रकार उस पुरुष के हृदय में मेरा निवास था और किस प्रकार मुझे वहाँ से निकलना पड़ गया। २. (असौ) = वह काम में (स्मरतात्) = मुझे स्मरण करता रहे (इति) = बस । मे (प्रियः) = मेरा बड़ा प्रिय था, इति (स्मरतात्) = इसप्रकार मेरा स्मरण करके दुखी होता रहे। २. हे देवो! आप ऐसी कृपा करो कि (यथा) = जिससे (असौ मम स्मरतात्) = वह काम मेरा स्मरण करे, (अहं कदाचन अमुष्य न) = मैं कभी उसका स्मरण न करूँ। मुझसे वियोग के कारण 'काम' दुःखी हो। 'काम' से पृथक् होकर मैं दुःखी न हो।
भावार्थ
कामवासना की उत्पत्ति वहीं होती है, जहाँ रमणसाधन पदार्थों के संग्रह व सौन्दर्य की ओर झुकाव हो। देवों की कृपा से काम मुझसे दूर हो जाए। स्थान-भ्रंश के कारण 'काम' दुःखी हो। मैं कभी इस काम का स्मरण न करूँ।
भाषार्थ
(रथजिताम्) शरीर रथ पर विजय पाने वाली, (राथजितेयीनाम्) शरीर रथ पर विजय पाने वालों की सम्बन्धिनी (अप्सरसाम्) रूपवती पत्नियों सम्बन्धी (अयम्) यह (स्मरः) स्मरण या कामवासना है। (देवाः) हे दिव्य शक्तियों ! (स्मरम्) स्मरण या कामवासना को (प्रहिणुत१) प्रेरित या प्रबुद्ध करो (असौ) ताकि वह [मेरा पति] (माम्) मुझ को अर्थात् मेरा (अनु) अनुस्मरण कर (शोचतु) शोकान्वित हो।
टिप्पणी
[सूक्त १३०, १३१, १३२ में स्मरण या स्मर का वर्णन है। गृह कलह के कारण पति रुष्ट होकर गृह त्याग कर चला गया है, तब उद्गारों का वर्णन इन तीन सूक्तों में किया गया है। वैदिक पत्नियां अपने शरीर रथों पर विजय पाई हुई हैं, और शरीर रथों पर विजय पाएं पतियों की पत्नियां हैं, अतः वे निजपतियों के प्रति ही अनुराग वाली हैं। अतः कारणवश पति वियोग में पति के वापिस आ जाने की कामना करता रहती हैं। रूपवती होती हुई भी पर पुरुष की कामना नहीं करती, ऐसा अभिप्राय इन तीन सूक्तों का है। मन्त्र में "देवाः" का अभिप्राय इन सूक्तों में स्पष्ट हो जायगा। रथ=शरीर "आत्मानं रथिनं बिद्धि शरीर रथमेव तु" (उपनिषद् कठ० अ० १। वल्ली ३। ख० ३)।] [१. सूक्त में देवाः= मरुतः, मानसून वायुएं आदि (सूक्त १३०।४)। कवि सम्प्रदायानुसार वर्षर्तु मे गर्जन तथा तत्सामयिक मोहक दृश्य, स्मरोद्रेक पैदा कर वियोगी पति-पत्नी को व्याकुलित कर उन में सांमनस्य पैदा कर देते हैं। देवाः का अर्थ मादक दृश्य भी है। दिवु क्रीडा मोद “मद" आदि (दिवादिः)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Love and Memory
Meaning
To appreciate and understand this sukta and the following upto 132, we should refer to Yajurveda 34, 5 which describes the cosmic mind as the treasure-hold of divine knowledge and universal memory. Of the cosmic forces which comprehend all the true, good and beautiful things and values of life, and of the cosmic waves of the universal mind which lead to comprehension of all that is true, good and beautiful, this Vedic knowledge is the memory content. O divinities of nature and brilliant scholars of humanity, pray invoke and promote this divine knowledge, and may that divine mind enlighten and sanctify me.
Subject
Smarah : Love and Passion
Translation
This is the passionate love of the apsaras (beauties) chariot winning and belonging to the chariot-winners. O bounties of Nature, send forth the passionate love. Let so and so wail for me (asau mimanu Socatu.)
Translation
This sexual desire is found in increase in the persons who use odoriferous articles and in the women who use fragrant things. Let the physical forces working in the body and in the external world increase this sexual desire (in husband and wife) so that either of them may remember either.
Translation
This power of recollection is the conqueror of delightful, enjoyable objects, the companion of valiant persons who conquer, charming, lovely objects, and the associate of sentient beings, O learned persons, fully develop this power of remembrance. May this memory ever remain fresh and pure in me.
Footnote
Memory helps men in acquiring lovable objects, and achieving success in life स्मरःmeans memory and love. The verse has been interpreted by some commentators; as instructing man and woman to develop love mutually. Purify me: keep my knowledge fresh and ever ready for use.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(रथजिताम्) जि−क्विप्, अन्तर्गतणिच्। रमणीयानां पदार्थानां जापयित्रीणाम् (राथजितेयीनाम्) शुभ्रादिभ्यश्च। पा० ४।१।१२३। रथजित्−ढक्। अदूरभवश्च। पा० ४।२।७०। इत्यर्थे। रथजितां रमणीयपदार्थजेतॄणां समीपभवानाम् (अप्सरसाम्) अप्सु आकाशे, जले, प्राणेषु प्रजासु च सरणशीलानां शक्तीनाम् (अयम्) (स्मरः) स्मृ आध्याने चिन्तायां च−अप्। ध्यानसामर्थ्यम् (देवाः) हे विद्वांसः (प्र) प्रकर्षेण (हिणुत) हि गतौ वृद्धौ च। वर्धयत (स्मरम्) चिन्तनम् (असौ) स्मरः (माम्) ब्रह्मचारिणम् (अनु) व्याप्य (शोचतु) ईशुचिर् शौचे, छान्दसः शप्। शुच्यतु शुध्यतु ॥
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