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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 139 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 139/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वनस्पतिः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा विराड्जगती सूक्तम् - सौभाग्यवर्धन सूक्त
    2

    न्य॑स्ति॒का रु॑रोहिथ सुभगं॒कर॑णी॒ मम॑। श॒तं तव॑ प्रता॒नास्त्रय॑स्त्रिंशन्निता॒नाः। तया॑ सहस्रप॒र्ण्या हृद॑यं शोषयामि ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि॒ऽअ॒स्ति॒का । रु॒रो॒हि॒थ॒ । सु॒भ॒ग॒म्ऽकर॑णी । मम॑ । श॒तम् । तव॑ । प्र॒ऽता॒ना: । त्रय॑:ऽत्रिंशत् । नि॒ऽता॒ना: । तया॑ । स॒ह॒स्र॒ऽप॒र्ण्या । हृद॑यम् । शो॒ष॒या॒मि॒ । ते॒ ॥१३९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न्यस्तिका रुरोहिथ सुभगंकरणी मम। शतं तव प्रतानास्त्रयस्त्रिंशन्नितानाः। तया सहस्रपर्ण्या हृदयं शोषयामि ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    निऽअस्तिका । रुरोहिथ । सुभगम्ऽकरणी । मम । शतम् । तव । प्रऽताना: । त्रय:ऽत्रिंशत् । निऽताना: । तया । सहस्रऽपर्ण्या । हृदयम् । शोषयामि । ते ॥१३९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 139; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्या !] (न्यस्तिका) नित्य प्रकाशमान और (मम) मेरी (सुभगंकरणी) सुन्दर ऐश्वर्य करनेवाली तू (रुरोहिथ) प्रकट हुई है। (ते) तेरे (प्रतानाः) उत्तम फैलाव (शतम्) सौ [अनेक], और (नितानाः) नियमित विस्तार (त्रयस्त्रिंशत्) तैंतीस [तैंतीस देवताओं के जतानेवाले] हैं। [हे ब्रह्मचारिणि !] (तया) उस (सहस्रपर्ण्या) सहस्रों पालन शक्तिवाली विद्या से (ते) तेरे (हृदयम्) हृदय को (शोषयामि) मैं सुखाता हूँ [प्रेममग्न करता हूँ] ॥१॥

    भावार्थ

    ब्रह्मचारी समावर्तन के पश्चात् यथार्थ विद्या से संसार के सब पदार्थ और तैंतीस देवताओं का ज्ञान प्राप्त करके अपने सदृश विदुषी स्त्री से विवाह की कामना करे। तैंतीस देवता यह हैं−८ वसु अर्थात् अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौः वा प्रकाश, चन्द्रमा और नक्षत्र, ११ रुद्र अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, और धनञ्जय, यह दश प्राण और ग्यारहवाँ जीवात्मा, १२ आदित्य अर्थात् महीने १ इन्द्र अर्थात् बिजुली, १ प्रजापति अर्थात् यज्ञ−ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदविषय, पृष्ठ ६६-६८ ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(न्यस्तिका) वृतेस्तिकन्। उ० ३।१४६। नि+अस दीप्तौ−तिकन्। नितरां दीप्यमाना विद्या (रुरोहिथ) प्रादुर्बभूविथ (सुभगंकरणी) आढ्यसुभग०। पा–० ३।२।५६। इति करोतेः ख्युन्। खित्यनव्ययस्य। पा० ६।३।६६। इति पूर्वपदस्य मुम्। टिड्ढाणञ्०। पा० ४।१।१५। इति ङीप्। सौभाग्यं कुर्वती (मम) (शतम्) बहु (तव) (प्रतानाः) प्रकृष्टविस्ताराः (त्रयस्त्रिंशत्) एतत्संख्यानां देवानामुपकारकत्वात् तत्संख्या (नितानाः) नियमितविस्ताराः (तया) (सहस्रपर्ण्या) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति पॄ पालनपूरणयोः−न। बहुपालनशक्त्या विद्यया (हृदयम्) (शोषयामि) परितप्तं प्रेममग्नं करोमि (ते) तव ॥

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    विषय

    सुभगंकरणी 'न्यस्तिका'

    पदार्थ

    १. एक युवक विद्या आदि गुणों से अपने को इसप्रकार सुशोभित करे कि एक युवति उसके गुणों को सुनकर उसके प्रति प्रेमवाली हो। वह उसे ही जीवन-साथी के रूप में प्राप्त करने की कामनावाली हो। इसीप्रकार युवति के गुण युवक को प्रेमयुक्त करें। युवक कहता है (न्यस्तिका) = निश्चय से दीप्त होनेवाली [अस् दीप्ती] अथवा अविद्यान्कार को परे फेंकनेवाली [अस् क्षेपणे] विद्या का (रुरोहिथ) = मुझमें प्रादुर्भाव हुआ है। यह विद्या (मम सुभगंकरणी) = मेरा सौभाग्य बढ़ानेवाली है। २. हे विद्ये! (शतं तव प्रताना:) = तेरे सैकड़ों प्रतान-फैलाव है, अर्थात् शतवर्षपर्यन्त [आजीवन] होनेवाले तेरे प्रतान हैं, तेरे (त्रयः त्रिंशत्) = तेतीस (निताना:) = नियमित विस्तार हैं, तेतीस देव तेरे ज्ञान का विषय बनते हैं। हे युवति! तया सहस्त्रपण्या-उस सहस्रों प्रकार से पालन करनेवाली विद्या से ते हृदयं शोषयामि तेरे हृदय को शुष्क करता हूँ-अपने प्रति प्रेमाकुल करता हूँ।

    भावार्थ

    एक युवक अपने में विद्यादि गुणों का प्रादुर्भाव करके एक युवति को अपने प्रति प्रेममग्न करने का प्रयत्न करे।

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    भाषार्थ

    [हे पारमेश्वरी माता !] (न्यस्तिका) तू नितरां [काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि को] फेंक देती है, उन्हें निरस्त कर देती है, (रुरोहिथ) तू हृदय में आरोहण किये हुई है, (मम, सुभगंकरणी) मेरे सौभाग्यों को उत्पन्न करने वाली है। (तव) तेरे (प्रतानाः) ऊपर की ओर विस्तार (शतम्) सैंकड़ों हैं, (निताना ) नीचे की ओर फैलाव (त्रयस्त्रिंशत्१) ३३ हैं, (सहस्रपर्ण्या) हजारों का पालन करने वाली (तया) उस माता द्वारा (ते) [हे पत्नी !] तेरे (हृदयम्) हृदय को (शोषयामि) मैं पति, सांसारिक विषय भोगों के लिये सूखा देता हूं।

    टिप्पणी

    [सूक्त में सात्त्विक-प्रकृति वाले गृहस्थ पति-पत्नी का वर्णन है। परमेश्वर माता भी है, वह उपासक के कामादि को, मातृस्नेह वाली होकर, दूर कर देती हैं। सदा हृदयवासिनी है। द्युलोक में उसके विस्तार सैंकड़ों हैं, द्युलोक से नीचे की ओर उसके विस्तार ३३ है। बुध, शुक्र, पृथिवी, मङ्गल, बृहस्पति शनैश्चर, चन्द्रमा और सूर्य, ८ ग्रह; तथा रुद्र ११; और मास १२; यज्ञ और प्रजापति २। पारमेश्वरी माता, उपासक पति के सौभाग्यों को पैदा कर चुकी है। सौभाग्य है षड्विध, ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य। पति निज पत्नी को भी इस आध्यात्मिक मार्ग की ओर लाना चाहता है, और हजारों का पालन करने वाली माता के द्वारा पत्नी के हृदय को सूखा देता है, विषय भोगों के लिये प्रेमरस से रहित कर देता है। पर्णी= प पालनपुरणयोः (जुहोत्यादिः)।][१. ३३ देवता भी है। यथा "स्प त्रयस्त्रिंशद् देवा अङ्गे गात्रा विभेजिरे" (अथर्व० १०।७।२७)। ये ३३ देवता हैं, ८ वसवः, ११ रुद्राः, १२ आदिस्याः, यज्ञ और प्रजापतिः। वेद में "तिस्रः दिवः" द्वारा ३ द्युलोक कहे हैं। एक दृश्यमान, तथा दो इस दृश्यमान द्युलोक से ऊपर के द्युलोक। सम्भवतः इस द्विविध विभाग को “शतम् प्रतानाः, और त्रयस्त्रिंशत् नितानाः" द्वारा सूचित किया हो। यह विषय अनुसन्धान योग्य है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Conjugal Happiness

    Meaning

    Here you arise and emerge, conjugal spirit of love, bright harbinger of good fortune for me. Hundred are your expansive versatilities of life. Thirty-three are your defined interests in respect of divinities of nature and humanity. O maiden of my love, with that same art and versatility of hundredfold possibilities of conjugal bliss, I afflict your heart with love and desire.

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    Subject

    Vanaspati (herb)

    Translation

    O herb, dispeller of misfortune and bestower of good fortune on me, you have grown up here. A hundred are your out-stretching branches and thirty-three down-stretching tendencies. With such a herb of a thousand leaves, I make your heart parch.

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    Translation

    This herbaceous plant is full of splendors in its qualities, it grows as the gift of my (wife’s husband’s) prosperity, it has hundred tendrils and has thirty three shoots, I the husband or wife dry your (husband’s or wife’s) heart and wither it with this which bears thousand of leaves.

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    Translation

    O Knowledge, full of luster, thou hast manifested thyself to bless me with prosperity. A hundred (innumerable) are thy branches. Thy orderly expansion betokens of thirty-three gods. O celibate woman, with the thousand fold powers of knowledge I fill thy heart with love.

    Footnote

    Thirty-three gods are (1) Eight vasues (2) Eleven Rudras (Breaths) (3) Twelve Adityas months (4) Indra, Electricity (5) Prajapati (Yajna).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(न्यस्तिका) वृतेस्तिकन्। उ० ३।१४६। नि+अस दीप्तौ−तिकन्। नितरां दीप्यमाना विद्या (रुरोहिथ) प्रादुर्बभूविथ (सुभगंकरणी) आढ्यसुभग०। पा–० ३।२।५६। इति करोतेः ख्युन्। खित्यनव्ययस्य। पा० ६।३।६६। इति पूर्वपदस्य मुम्। टिड्ढाणञ्०। पा० ४।१।१५। इति ङीप्। सौभाग्यं कुर्वती (मम) (शतम्) बहु (तव) (प्रतानाः) प्रकृष्टविस्ताराः (त्रयस्त्रिंशत्) एतत्संख्यानां देवानामुपकारकत्वात् तत्संख्या (नितानाः) नियमितविस्ताराः (तया) (सहस्रपर्ण्या) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति पॄ पालनपूरणयोः−न। बहुपालनशक्त्या विद्यया (हृदयम्) (शोषयामि) परितप्तं प्रेममग्नं करोमि (ते) तव ॥

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