अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 141/ मन्त्र 1
ऋषिः - विश्वामित्र
देवता - अश्विनौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गोकर्णलक्ष्यकरण सूक्त
1
वा॒युरे॑नाः स॒माक॑र॒त्त्वष्टा॒ पोषा॑य ध्रियताम्। इन्द्र॑ आभ्यो॒ अधि॑ ब्रवद्रु॒द्रो भू॒म्ने चि॑कित्सतु ॥
स्वर सहित पद पाठवा॒यु: । ए॒ना॒: । स॒म्ऽआक॑रत् । त्वष्टा॑ । पोषा॑य । ध्रि॒य॒ता॒म् । इन्द्र॑: । आ॒भ्य॒: । अधि॑ । ब्र॒व॒त् । रु॒द्र: । भू॒म्ने । चि॒कि॒त्स॒तु॒ ॥१४१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वायुरेनाः समाकरत्त्वष्टा पोषाय ध्रियताम्। इन्द्र आभ्यो अधि ब्रवद्रुद्रो भूम्ने चिकित्सतु ॥
स्वर रहित पद पाठवायु: । एना: । सम्ऽआकरत् । त्वष्टा । पोषाय । ध्रियताम् । इन्द्र: । आभ्य: । अधि । ब्रवत् । रुद्र: । भूम्ने । चिकित्सतु ॥१४१.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वृद्धि करने का उपदेश।
पदार्थ
(वायुः) शीघ्रगामी आचार्य (एनाः) इन [प्रजाओं] को (समाकरत्) एकत्र करे, (त्वष्टा) सूक्ष्मदर्शी वह (पोषाय) [उनके मानसिक और शारीरिक] पोषण के लिये (ध्रियताम्) स्थिर रहे। (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला वही (आभ्यः) इन [प्रजाओं] से (अधि) अनुग्रहपूर्वक (ब्रवत्) बोले, (रुद्रः) ज्ञानदाता अध्यापक (भूम्ने) उनकी वृद्धि के लिये (चिकित्सतु) शासन करे ॥१॥
भावार्थ
जितेन्द्रिय दूरदर्शी आचार्य विद्यालय में ब्रह्मचारियों को उत्तम विद्या से समृद्ध करे ॥१॥
टिप्पणी
१−(वायुः) शीघ्रगाम्याचार्यः (एनाः) प्रजाः। विद्यार्थिगणान् (समाकरत्) करोतेर्लेट्। संयोजयेत् (त्वष्टा) अ० २।५।६। त्वक्षू तनूकरणे−तृन्। सूक्ष्मदर्शी (पोषाय) मानसिकशारीरिकपोषणाय (ध्रियताम्) धृङ् अवस्थाने। स्थिरो भवतु (इन्द्रः) परमैश्वर्यवानाचार्यः (आभ्यः) प्रजाभ्यः (अधि) अधिकमनुग्रहपूर्वकम् (ब्रवत्) वदेत् (रुद्रः) अ० २।२७।६। रुत् ज्ञानं राति ददातीति यः ज्ञानदाता (भूम्ने) अ० ५।२८।३। बहुत्वाय। वर्धनाय (चिकित्सतु) कित व्याधिप्रतीकारे निग्रहे अपनयने नाशने संशये च। गुप्तिज्किद्भ्यः सन्। पा० ३।१।५। इति कितेः सन्। निगृह्णातु। शास्तु ॥
विषय
गोदुग्ध सेवन
पदार्थ
१. (वायुः) = वायु (एना:) = इन हमारी गौओं को (समाकरत्) = संघश: अपने में प्राप्त कराए, अर्थात् ये गौएँ खुली वायु में भ्रमण [चारागाहों में चरने] के लिए जाएँ-'वायुर्वेषां सहचारं जुजोष', (त्वष्टा) = पशु के रूप को बनानेवाला यह सूर्य (पोषाय) = अभिवृद्धि के लिए इन गौओं को (धियताम्) = धारण करे। (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली परमेश्वर (आभ्यः) = इनके रक्षण के लिए (अधिबवत्) = आधिक्येन उपदेश करता है । वेद में गोपालन का स्थान-स्थान पर उपदेश किया गया है। (रुद्रः) = रोगों का चिकित्सक (भूम्ने) = इनके बाहुल्य के लिए (चिकित्सतु) = इनकी व्याधियों का प्रतीकार करे।
भावार्थ
हमारी गौएँ खुली वायु में चारागाहों में चरने के लिए जाएँ। सूर्य अपनी किरणों द्वारा इनमें प्राणशक्ति का धारण करे। प्रभु [राजा] इनके दुग्ध के सेवन के लिए हमें उपदेश दे। रुद्र [पशुचिकित्सक] इनके रोगों को दूर करनेवाला हो।
भाषार्थ
(वायुः) वायुसमान शोधक अधिकारी (एनाः) इन प्रजाओं को (समाकरत्) सम्यक् तथा पूर्णतया शुद्ध करे, (त्वष्टा) त्वष्टा नाम वाला अधिकारी (पोषाय) अन्न द्वारा पुष्टि के लिये (ध्रियताम्) धारित अर्थात् नियुक्त किया जाय। (इन्द्रः) सम्राट् (आभ्यः) इन प्रजाओं के लिये (अधि) अधिकार पूर्वक (ब्रवत्) जीवनमार्ग का उपदेश दे, कथन करे, (रुद्रः) रुद्र अधिकारी (भूम्ने) प्रजा की वृद्धि के लिये (चिकित्सतु) प्रजा की चिकित्सा अर्थात् रोगापनयन करे।
टिप्पणी
[वायु सदा गति करती है, और निजगति द्वारा शुद्ध करती रहती है। अतः शुद्धिकर्ता अधिकारी को वायु कहा है। त्वष्टा है सूर्य, जो कि मेघों का निर्माण कर, वर्षा द्वारा अन्नोत्पादन कर, प्रजा का पोषण करता है, अतः पोषण के अधिकारी को त्वष्टा कहा है। इन्द्र है सम्राट् "इन्द्रश्च सम्राड्" (यजु० ८।३७)। रुद्र है चिकित्सा का अधिकारी, जिसके सम्बन्ध में "चिकित्सतु" पद का प्रयोग हुआ है। चिकित्सतु= कित निवासे रोगापनयने च (भ्वादिः)। ब्रवत्= बोलना मनुष्य धर्म है, अतः इन्द्र मनुष्य हैं। इसके साथी भी, शासन कर्म में मनुष्य होने चाहिये, अतः वायु आदि के अर्थ तदनुरूप किये हैं।]
विषय
माता पिता का सन्तान के प्रति कर्तव्य। नामकरण और कर्णवेध का उपदेश।
भावार्थ
(वायुः) वायु (एनाः) इन प्रजाओं को (सम् आ-अकरत्) जीवित करे (त्वष्टा) त्वष्टा = अन्न इनकी (पोषाय) पुष्टि के लिये (ध्रियताम्) रक्षा करे, (इन्द्रः) इन्द्र, आचार्य (आभ्यः) इन प्रजाओं के लिये (अधि ब्रवत्) विशेष हितकारी नियमों का उपदेश करे, और (रुद्रः) रुद्र, चिकित्सक (भूम्ने) बड़ी संख्या में बढ़ाने के लिये (चिकित्सतु) विशेष ज्ञानपूर्वक इनके रोगों को निवृत्त करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः। अश्विनौ देवते। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Growth and Development
Meaning
The subject of this sukta is growth and development on a collective basis. But development of what? This question is left open. The sukta says: Enah, ‘these’. ‘These’ has been interpreted as cows, the people as a body, the students as a community. The intention seems to be that life at any living level is a collectivity, has to grow and has to be developed as an organismic organisation. Even the whole universe is an organism, Purusha, a living, breathing, intelligent, self-organising, sovereign system. The sukta does mention functionaries who organise the growth and development of the collective body: Vayu, Tvashta, Indra, Rudra, Ashvins, and it also mentions organisations at different characteristic levels: Devas, humans and demons. We take up the growth and development of the human community through education, culture and enlightenment. Let Vayu, the man of vibrancy, enthusiasm and enlightenment bring these, young generation, together, that is, in educational institutions together, meant for boys and for girls separately. Let Tvashta, man of fine imagination specialised in specific characteristic and social forms, hold and manage them for growth in their characteristic social lines and professions. Let Indra, supreme commander of the institution, speak to them as one community, and let Rudra enlighten them for growth, each in his or her own line of interest.
Subject
Asvin - Pair
Translation
May the cosmic wind collect them (samakarat) (group -wise), may the universal architect look after their nourishment; may the resplendent Lord bless and encourage them; may the Lord of cures (Rudra) treat them (cikitsatu), so that they may multiply.
Translation
May vital air unite those, subjects with strength, may the man of penetrative vision sustain them for their strength and vigor, may the mighty teacher or ruler give them good trainings and may the man of medical science treat to free them from all diseases for their growth and progress.
Translation
An active teacher should collect the pupils. Let the far-sighted teacher exert for their mental and physical development. Let the dignified preceptor give them sound moral advice. Let the knowledge imparting master control their progress.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(वायुः) शीघ्रगाम्याचार्यः (एनाः) प्रजाः। विद्यार्थिगणान् (समाकरत्) करोतेर्लेट्। संयोजयेत् (त्वष्टा) अ० २।५।६। त्वक्षू तनूकरणे−तृन्। सूक्ष्मदर्शी (पोषाय) मानसिकशारीरिकपोषणाय (ध्रियताम्) धृङ् अवस्थाने। स्थिरो भवतु (इन्द्रः) परमैश्वर्यवानाचार्यः (आभ्यः) प्रजाभ्यः (अधि) अधिकमनुग्रहपूर्वकम् (ब्रवत्) वदेत् (रुद्रः) अ० २।२७।६। रुत् ज्ञानं राति ददातीति यः ज्ञानदाता (भूम्ने) अ० ५।२८।३। बहुत्वाय। वर्धनाय (चिकित्सतु) कित व्याधिप्रतीकारे निग्रहे अपनयने नाशने संशये च। गुप्तिज्किद्भ्यः सन्। पा० ३।१।५। इति कितेः सन्। निगृह्णातु। शास्तु ॥
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