अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 142/ मन्त्र 1
ऋषिः - विश्वामित्र
देवता - वायुः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अन्नसमृद्धि सूक्त
1
उच्छ्र॑यस्व ब॒हुर्भ॑व॒ स्वेन॒ मह॑सा यव। मृ॑णी॒हि विश्वा॒ पात्रा॑णि॒ मा त्वा॑ दि॒व्याशनि॑र्वधीत् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । श्र॒य॒स्व॒ । ब॒हु: । भ॒व॒ । स्वेन॑ । मह॑सा । य॒व॒ । मृ॒णी॒हि । विश्वा॑ । पात्रा॑णि । मा । त्वा॒ । दि॒व्या । अ॒शनि॑: । व॒धी॒त् ॥१४२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उच्छ्रयस्व बहुर्भव स्वेन महसा यव। मृणीहि विश्वा पात्राणि मा त्वा दिव्याशनिर्वधीत् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । श्रयस्व । बहु: । भव । स्वेन । महसा । यव । मृणीहि । विश्वा । पात्राणि । मा । त्वा । दिव्या । अशनि: । वधीत् ॥१४२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अन्न की वृद्धि का उपदेश।
पदार्थ
(यव) हे जौ अन्न ! तू (स्वेन) अपने (महसा) बल से (उत् श्रयस्व) ऊँचा आश्रय ले और (बहुः) समृद्ध (भव) हो। (विश्वा) सब (पात्राणि) जिनसे रक्षा की जावे ऐसे राक्षसों [विघ्नों] को (मृणीहि) मार, (दिव्या) आकाशीय (अशनिः) बिजुली आदि उत्पात (त्वा) तुझको (मा वधीत्) नहीं नष्ट कर ॥१॥
भावार्थ
किसान लोग खेती विद्या में चतुर होकर प्रयत्न करें कि उत्तम जौ आदि बीजों से नीरोग और पुष्टिकारक अन्न उपजे ॥१॥
टिप्पणी
१−(उच्छ्रयस्व) उन्नतो भव (बहुः) बहि वृद्धौ−कु। प्रवृद्धः (भव) (स्वेन) आत्मीयेन (महसा) महत्त्वेन। रसादिना (यव) (मृणीहि) मॄ वधे। मारय (विश्वा) सर्वाणि (पात्राणि) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। इति पा रक्षणे−अपादाने ष्ट्रन्। पाति यस्मात्। रक्षांसि। विघ्नान् (त्वा) (दिव्या) दिवि आकाशे भवा (अशनिः) विद्युदाद्युत्पातः (मा वधीत्) मा हिंसीत् ॥
विषय
यव द्वारा रोगकृमि विनाश
पदार्थ
हे (यव) = जौ ! तू (उच्छ्य स्व) = ऊपर उठ-प्ररूढ़ होकर उन्नत हो (बहुः भव) = तू अनेकविध व बहुत हो, (स्वेन महसा) = अपने तेज से-रस-वीर्य से (विश्वा पात्राणि) = [पा रक्षणे, रक्षितव्यम् अस्मात् रक्षांसि] सब रोगकृमियों को (मृणीहि) = नष्ट कर डाल। (दिव्या अश्नि:) = आकाश से गिरनेवाली विद्युत् (त्वा मा वधीत्) = तुझे हिंसित न करे।
भावार्थ
हमारे क्षेत्रों में जौ की खूब उत्पत्ति हो। यह यव अपनी प्राणशक्ति से [यवे ह प्राण अहितः] शरीरस्थ रोगकृमियों को नष्ट करे। हमारे यव-क्षेत्र विद्युत् गिरने से नष्ट न हों।
भाषार्थ
(यव) हे मिश्रण तथा अमिश्रण करने वाले !, तथा यव अर्थात् कृषि धान्य जौं की तरह संसार के बीजरूप परमेश्वर ! (उच्छ्रयस्व) तू उत्कृष्ट आश्रयरूप हमारा बन (स्वेन महसा) अपने तेज द्वारा (बहूः भव) बहु प्रकाशमान हो। (विश्वा पात्राणि१) उन सबको जोकि अकेले१ खाते-पीते है (मृणीहि) मार, (दिव्या अशनिः) मेघीय दिव्यवज्रपात् (त्वा) तेरा (मा बधीत्) वध नहीं करता।
टिप्पणी
[मन्त्र (२) में "आशृण्वन्तं यवं देवम्, वदामसि" द्वारा "यव" को देव तथा सुनने वाला कहा है, और उस के प्रति बोलने अर्थात् कथन करने का भी निर्देश हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि "यव" "चेतन" है, न कि जड़ "जौं"। सायणाचार्य ने भी ऐसा ही मान कर व्याख्या की है। यथा "आभिमूख्येनास्मदुक्तमाकणयन्तं यवं, यवधान्यरूपेण अवस्थितं देवम्"। यव= यु मिश्रणामिश्रणयोः (अदादिः)। किसी भी वस्तु की उत्पत्ति में मिश्रण और अमिश्रण दोनों होते हैं। यव अर्थात् जौं से जब अंकुर की उत्पत्ति होती है तब जौं के साथ मिट्टी, जल आदि का मिश्रण होता है, और जौं के निज तत्वों का अमिश्रण अर्थात् उससे अलग होकर अंकुर रूप में उनका मिश्रण होता है। इस मिश्रण और अमिश्रण का कर्ता परमेश्वर है। इसलिये उसे "यव" कहा है। तथा परमेश्वर संसार के उत्पादन का बीज भी है, कारण भी है। पात्राणि= पा + ष्टन् (उणा० ४।१६०)। पा पाने, पा रक्षणे। जो केवल अपनी ही रक्षा के लिये खाते-पीते हैं। पात्राणि= पातृणि।] [१. मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः “सत्यं ब्रवीमि अध इत्स तस्य"। नार्यमणं पुष्यति नो सखायं, केवलायो भवति केवलादी।। (ऋ० ११।७।६)। तथा " ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् गीता। २. मेघीय दिव्य वज्रपात यवधान्य का तो वध करता है, तुझ परमेश्वर रूप यव का नहीं।]
विषय
सन्तान के प्रति उपदेश।
भावार्थ
(यव) हे जौ आदि अन्न के समान बढ़ने वाली सन्तान ! तू (उच्छ्रयस्व) ऊपर उठ, उंची हो, (बहुः भव) गृहस्थ-जीवन में पुत्रों और पुत्रियों के रूप में तू बहु रूप बन, (स्वेन महसा) परन्तु अपने तेज प्राप्ति और क्रान्ति के साथ सदा सम्बन्धित (विश्वा पात्राणि) सब प्रकार के रक्षा के साधनों से युक्त हो कर तू (मृणीहि) अपनी बाधाओं की हत्या कर (दिव्या अशनिः) दिव्य-विजुली अर्थात् दैवी कोप (त्वा) तेरा (मा वधीत्) न वध करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः। वायुर्देवता। अनुष्टुभः। तृचं सुक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Growth of Food
Meaning
O barely crop, rise and grow abundant by your own natural fercundity. Fill up all the food stores of the world. Let no hail or thunder from the sky strike you.
Subject
Vayu
Translation
Grow high, O barley; become plentiful with your good quality (own vitality). May you fill all (our) containers. May the celestial thunder-bolt not kill you.
Translation
Let this crop of barley spring up and grow in plenty through its magnificence. Let it overcome all the trouble in the way of growth and let not thunderbolt or natural calamities destroy it.
Translation
Spring high, O Barley, grow in abundance, through thine own magnificence. Fill all the bins; let the bolt from heaven forbear to strike thee down!
Footnote
Pt. Jaidev Vidyalankar has interpreted as progeny, whom the teacher gives instructions for moral elevation.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(उच्छ्रयस्व) उन्नतो भव (बहुः) बहि वृद्धौ−कु। प्रवृद्धः (भव) (स्वेन) आत्मीयेन (महसा) महत्त्वेन। रसादिना (यव) (मृणीहि) मॄ वधे। मारय (विश्वा) सर्वाणि (पात्राणि) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। इति पा रक्षणे−अपादाने ष्ट्रन्। पाति यस्मात्। रक्षांसि। विघ्नान् (त्वा) (दिव्या) दिवि आकाशे भवा (अशनिः) विद्युदाद्युत्पातः (मा वधीत्) मा हिंसीत् ॥
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