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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 142 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 142/ मन्त्र 3
    ऋषिः - विश्वामित्र देवता - वायुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अन्नसमृद्धि सूक्त
    1

    अक्षि॑तास्त उप॒सदोऽक्षि॑ताः सन्तु रा॒शयः॑। पृ॒णन्तो॒ अक्षि॑ताः सन्त्व॒त्तारः॑ स॒न्त्वक्षि॑ताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अक्षि॑ता: । ते॒ ।उ॒प॒ऽसद॑: । अक्षि॑ता: । स॒न्तु॒ । रा॒शय॑: । पृ॒णन्त॑: । अक्षि॑ता: । स॒न्तु॒ । अ॒त्तार॑: । स॒न्तु॒ । अक्षि॑ता: ॥१४२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अक्षितास्त उपसदोऽक्षिताः सन्तु राशयः। पृणन्तो अक्षिताः सन्त्वत्तारः सन्त्वक्षिताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अक्षिता: । ते ।उपऽसद: । अक्षिता: । सन्तु । राशय: । पृणन्त: । अक्षिता: । सन्तु । अत्तार: । सन्तु । अक्षिता: ॥१४२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 142; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अन्न की वृद्धि का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे जौ आदि अन्न !] (ते) तेरे (उपसदः) निकटवर्ती कार्यकर्ता लोग (अक्षिताः) बिना घाटे और तेरी (राशयः) रासें (अक्षिताः) बिना घाटे (सन्तु) होवें। (पृणन्तः) तेरे भरती करनेवाले लोग (अक्षिताः) बिना घाटे (सन्तु) होवें और (अत्तारः) तेरे खानेवाले (अक्षिताः) बिना हानि (सन्तु) होवें ॥३॥

    भावार्थ

    चतुर किसानों के उद्योग से अन्न की भारी उपज होती है, लोग अन्न का व्यापार करते और भोजन करते हैं ॥३॥ इति त्रयोदशोऽनुवाकः ॥ इति पञ्चदशः प्रपाठकः ॥ इति षष्ठं काण्डम् ॥ इति श्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगायकवाडाधिष्ठितबडोदेपुरीगतश्रावणमासपरीक्षायाम् ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषु लब्धदक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना कृते अथर्ववेदभाष्ये षष्ठं काण्डं समाप्तम् ॥

    टिप्पणी

    ३−(अक्षिताः) अक्षीणाः (ते) तव (उपसदः) उपसत्तारः कर्मकराः (सन्तु) (राशयः) अशिपणाय्योरुडायलुकौ च। उ० ४।१३३। अशू व्याप्तौ−इण्, रुट् च। धान्यपुञ्जाः (पृणन्तः) अन्नं पूरयन्तः (अत्तारः) भोक्तारः। अन्यत्पूर्ववत् ॥

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    विषय

    यव व अक्षीणता

    पदार्थ

    १.हे यव! (ते उपसदः) = तेरे रक्षण के लिए तेरे समीप बैठनेवाले रक्षकलोग (अक्षिता:) = विनष्ट न हों। (राशयः अक्षिताः सन्तु) = हे यव ! तेरे धन्यसमूह कभी क्षीण न हों, (पृणन्त:) = तेरे द्वारा घरों का पूरण करनेवाले (अक्षिताः सन्तु) = अक्षीण हों, (अत्तारः अक्षिताः सन्तु) = तेरा भोजन करनेवाले पुरुष भी अक्षीण हों।

     

    भावार्थ

    यव खानेवाले कभी क्षीण नहीं होते, अत: राष्ट्र में यत्र के उत्पादन पर बल दिया। राष्ट्र यवः [तै० ३.९.७२] इस वाक्य से यह स्पष्ट है कि यव का राष्ट्रोन्नति से विशेष सम्बन्ध है। सेनान्यं वा एतदोषधीनां यद् यवा:-ऐ० ८.१६ में यव को ओषधियों का मुखिया कहा है।

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर ! (ते) तेरे (उपसदः) उपासक (अक्षिताः) क्षीण न हों, (राशयः) तेरी सम्पत्ति राशियां (अक्षिताः) क्षीण न हों, (पृणन्तः) तेरे प्रसादार्थ पर-पालक (अक्षिताः) क्षीण न हों, (अत्तारः) तेरे अन्नरूप का भोग करने वाले (अक्षिताः) क्षीण न हों।

    टिप्पणी

    [अक्षिताः= संख्या में क्षीण न हों, बहुसंख्यक हों, तथा शक्तिशाली हों। उपसदः= उप + सद:" अर्थात् उपासकः "उप + आसकाः" (आस उपवेशने, अदादिः)। पृणन्तः= पॄ पालने (क्र्यादिः)। अत्तार:= परमेश्वर अन्न१ है और अन्नाद२ है। उपासक उसके अन्नरूप का भोग करते हैं, उस के आनन्द रस का पान करते हैं, यह पान ही अन्नभोग है। प्रलय काल में परमेश्वर जगत् का मानो प्राशन करता है। अतः वह अन्नाद है। तथा "यस्य ब्रह्म व क्षत्रं चोभे भवत ओदनः। मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः" (उपनिषद्)। ब्रह्म क्षत्र" पद उपलक्षक हैं सब प्राणियों और जड़ जगत् के।" तथा यव= कृष्यन्न जौं। पृथिवी में बोया गया यव का बीज अंकुरित हो कर उत्थान करता है। निज तेज या महिमा के कारण बहुसंख्यक यव बीजों का प्रदान करता है। यव इतना पैदा हो जाता है कि कुसूल, कोष्ठ आदि को इतना भर देता है कि यव के दबाव के कारण ये पात्र फटने लगते है (मृणोहि), कविता में वर्णन। दिव्या अशनिः = रुद्र का वज्रपात।] [(१) अहमन्नम् अहमन्तादः (तैत्ति उप० ३।६।१०)। (२) यजुर्वेद ५।२६ में भी "यव" का प्रयोग आध्यात्मिक अर्थ में हुआ है। यथा "यवोऽसि यवयास्मद् द्वेषो यवधारातीः", अर्थात् तू यव है, अमिश्रण करनेवाला है, पृथक् करने वाला है, पृथक कर हम से द्वेष को, पृथक् कर अराती अर्थात अदान भावनाओं को कंजूसी को। "हे मनुष्य तू (यवय) उत्तम गुणों से पदार्थों का मेल कर, तू भी ईर्ष्या आदि दोष वा (अरातीः) शत्रुओं को (यव) दूर कर" (दयानन्द)। तथा "यवानां भागोऽसि अयवानामधिपत्यम्" (यजुः १४।२६), पर भाष्य है "पूर्वमक्षाणां भागोऽसि अयवानामपक्षाणां त्वयि आधिपत्यम्" (महीधर)। इस प्रकार "यव" के भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। अतः प्रकरणानुसार "यव" के अर्थ सूक्त में किये है, जो कि के सब मन्त्रों में एकवाक्यता के उपपादक है।]

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    विषय

    सन्तान के प्रति उपदेश।

    भावार्थ

    (ते) तेरे (उपसदः) आश्रित जन या तेरे समीप बैठने वाले तेरे सम्बन्धी या स्वार्थ (अक्षिताः सन्तु) कभी क्षीण न हो (पृणन्तः) आश्रित जनों या समाज की पालना करने वाले सज्जन (अक्षिताः सन्तु) कभी क्षीण न हों, अर्थात् तुम्हारे घरों में अतिथि आदि सदा आते रहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः। वायुर्देवता। अनुष्टुभः। तृचं सुक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Growth of Food

    Meaning

    Let the producers be inexhaustible, let the stores be inexhaustible, let the food givers be inexhaustible, O yava, and let the beneficiaries be inexhaustible.

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    Translation

    May inexhaustible be your servings (upasadas); inexhaustible be your gathered heaps. May inexhaustible be your bestowers, and inexhaustible be the partakers.

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    Translation

    Let the other crop in its vicinity be inexhaustible, let the gathered heap of it be inexhaustible, lot the givers of be inexhaustible and let the men who eat it, be inexhaustible.

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    Translation

    Exhaustless be thine out-turns, O barley, exhaustless be thy gathered heaps, exhaustless be thy givers, and exhaustless be thy eaters.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अक्षिताः) अक्षीणाः (ते) तव (उपसदः) उपसत्तारः कर्मकराः (सन्तु) (राशयः) अशिपणाय्योरुडायलुकौ च। उ० ४।१३३। अशू व्याप्तौ−इण्, रुट् च। धान्यपुञ्जाः (पृणन्तः) अन्नं पूरयन्तः (अत्तारः) भोक्तारः। अन्यत्पूर्ववत् ॥

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