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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शौनक् देवता - चन्द्रमाः छन्दः - निचृत्त्रिपदा गायत्री सूक्तम् - अक्षिरोगभेषज सूक्त
    1

    आब॑यो॒ अना॑बयो॒ रस॑स्त उ॒ग्र आ॑बयो। आ ते॑ कर॒म्भम॑द्मसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आव॑यो॒ इति॑ । अना॑बयो॒ इति॑। रस॑: । ते॒ । उ॒ग्र: । आ॒ब॒यो॒ इति॑ । आ । ते॒ । क॒र॒म्भम् । अ॒द्म॒स‍ि॒ ॥१६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आबयो अनाबयो रसस्त उग्र आबयो। आ ते करम्भमद्मसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आवयो इति । अनाबयो इति। रस: । ते । उग्र: । आबयो इति । आ । ते । करम्भम् । अद्मस‍ि ॥१६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (आबयो) हे चारों ओर गतिवाले ! (अनाबयो) हे विना गतिवाले ! (आबयो) हे चारों ओर कान्तिवाले ईश्वर ! (ते) तेरा (रसः) रस [आनन्द] (उग्रः) नित्य सम्बन्धवाला है। हम (ते) तेरे (करम्भम्) सत्तु [अन्न] (आ) भले प्रकार (अद्मसि) खाते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर में श्रद्धापूर्वक अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करके भोगें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(आबयो) भृमृशीङ्०। उ–० १।७। इति आङ्+वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु−उ। वस्य बः। हे समन्ताद् गतिशील (अनाबयो) वी−उ। हे गतिशून्य (रसः) आनन्दः (ते) तव (उग्रः) ऋज्रेन्द्राग्र०। उ० २।२८। इति उच समवाये−रन्। समवेतः। नित्यसम्बद्धः (आबयो) हे समन्तात् प्रकाशमान (आ) सम्यक् (ते) तव (करम्भम्) अ० ७।४।२। सक्तून्। अन्नम् (अद्मसि) अद्मः। खादामः ॥

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    विषय

    करम्भ

    पदार्थ

    १. (आबयो) = [वी गतौ] हे समन्तात् गतिवाले-सर्वत्र गये हुए, (अनाबयो) = गतिशून्य, सर्वव्यापक होने के कारण सदा, सर्वत्र स्थिर [तदेजति तन्नजति], (आबयो) = हे समन्तात् कान्तिवाले [वी कान्ती] प्रभो! (ते रस: उग्र:) = आप का आनन्द अत्यन्त तेजस्वी व प्रबल है। यही वस्तुतः सब रोगों का विनाशक है। २. (ते) = आपके (क-रम्भम्) = आनन्द के [रम्भ-लम्भ-ज्ञान] ज्ञानरस का हम (आ अद्यसि) = अदन-ग्रहण करते हैं। आपकी उपासना करते हुए आपके आनन्दरस का उपभोग करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु सर्वत्र गतिवाले होते हुए भी स्थाणु व अचल है-उसको कान्ति का प्रसार सर्वत्र है। उसकी उपासना करते हुए हम उसके आनन्दरस का पान करते हैं।

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    भाषार्थ

    (आवयः) [हे परमेश्वर ! तू प्रलयकाल में सृष्टि का] भक्षण१ कर लेता है, (अनावयः) [ और सृष्टिकाल में तू सृष्टि का] भक्षण नहीं करता। (आवयः) हे भक्षण करने वाले ! प्रलय काल में (ते) तेरा (उग्रः रसः) उद्गोर्ण आनन्दरस२ रहता है, (ते) तेरे ( करम्भम्) हाथ में दीप्त हुए उस रस२ का (आ अद्मसि) हम पूर्णतया भोग करते हैं।

    टिप्पणी

    [सूक्त १६ में ४ मन्त्र हैं। समग्र सूक्त का अभिप्राय अत्यन्त अस्पष्ट है। कौशिक सूत्रों और तदनुसार सायणभाष्य में सूक्त का विनियोग अक्षिरोग, तद्भैषज्यरूप सर्षपतैल आदि में किया है, परन्तु समग्र सूक्त में इस का निर्देशक कोई पद नहीं। अपितु समग्र सूक्त अध्यात्म विषयप्रतिपादक हैं। प्रलय काल में परमेश्वर के हाथ में मानो उसका उग्र आनन्दरस अवशिष्ट रहता है, जिसका कि भक्षण अर्थात् आस्वादन मुक्तात्माएं करती हैं। वेद की वर्णन शैली कवितामय प्रायः होती है अतः उसके "कर" अर्थात् हाथ का वर्णन भी हुआ है। वस्तुतः वह "अपाणिपादो जवनो ग्रहीता" है]। [१. इसलिये परमेश्वर "अन्नाद" है। २. रसो वै सः। रसं ह्येष ल्ध्वाऽऽनन्दी भवति (ते० उप० ब्रह्मानन्द वल्ली ७)।]

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    विषय

    प्रजापति की शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    प्रजापतिर्देवता। आबयु—अन्न औषधि के नाम से प्रजापति के गुणों का वर्णन करते हैं। हे (आबयो) सर्वव्यापक ! या खा जाने योग्य अन्न ! हे (अनाबयो) कहीं भी इन्द्रियों से उपलब्ध न होने वाले या कभी न खाये जाने योग्य ! अथवा हे सर्वप्रकाशक सर्वोत्पादक और हे किसी से भी प्रकाशित और उत्पादित न होनेवाले ! (ते रसः) तेरा रस, आनन्दरस (उग्रः) बड़ा तीव्र है। है (आबयो*) सर्वव्यापक, सर्वप्रकाशक या हे अन्न ! (ते) तेरा ही (करम्भम्) दिया हुआ अन्न या क = सुखमय रम्भ = लम्भ = ज्ञान संवेदना या बल का हम (आ अझसि) सर्वत्र उपभोग करते हैं।

    टिप्पणी

    ‘सर्षप इति सायणः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शौनक ऋषिः। मन्त्रोक्ता उत चन्द्रमा देवता, २ हिनो देवता। १. निचृत् त्रिपदा गायत्री, ३ बृहतीगर्भा ककुम्मर्ता अनुष्टुप् ४ त्रिपदा प्रतिष्ठा, अनुष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Herbs and Essences

    Meaning

    This sukta is apparently on herbs, but it has also been interpreted in spiritual terms. This is to be kept in mind. Abaya, spreading all round, Anabaya, not moving, and yet refulgent all round, the power of the pleasure of your nectar is ecstatic, and that elixir we love to drink.

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    Subject

    As in the Verses

    Translation

    O abayu (fit for eating), O anabayu (unfit for eating), your sap is strong. O abayu, we eat your broth with relish.

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    Translation

    [N.B. In this hymn the description of Sarsapa, the mustard seed seems to be the main theme- Other medicinal plants which grow up in the vicinity of this mustard plant are also described. But at present they are not known by us.] The juice of Abaya, (the mustard plant) and Anabaya (the other kind of mustard plant) is pungent. We use the powder or gruel of this Abaya, for the sake of medicine.

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    Translation

    O All-pervading, O Motionless, O Refulgent God, excellent is Thy joy. We nicely eat the food bestowed Thee!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(आबयो) भृमृशीङ्०। उ–० १।७। इति आङ्+वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु−उ। वस्य बः। हे समन्ताद् गतिशील (अनाबयो) वी−उ। हे गतिशून्य (रसः) आनन्दः (ते) तव (उग्रः) ऋज्रेन्द्राग्र०। उ० २।२८। इति उच समवाये−रन्। समवेतः। नित्यसम्बद्धः (आबयो) हे समन्तात् प्रकाशमान (आ) सम्यक् (ते) तव (करम्भम्) अ० ७।४।२। सक्तून्। अन्नम् (अद्मसि) अद्मः। खादामः ॥

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