अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
ऋषिः - भृग्वङ्गिरा
देवता - यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - अतिजगती
सूक्तम् - यक्ष्मानाशन सूक्त
1
अ॒ग्नेरि॒वास्य॒ दह॑त एति शु॒ष्मिण॑ उ॒तेव॑ म॒त्तो वि॒लप॒न्नपा॑यति। अ॒न्यम॒स्मदि॑च्छतु॒ कं चि॑दव्र॒तस्तपु॑र्वधाय॒ नमो॑ अस्तु त॒क्मने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्ने:ऽइ॑व । अ॒स्य॒ । दह॑त: । ए॒ति॒। शु॒ष्मिण॑: । उ॒तऽइ॑व । म॒त्त: । वि॒ऽलप॑न् । अप॑ । अ॒य॒ति॒ । अ॒न्यम् । अ॒स्मत् । इ॒च्छ॒तु । कम् । चि॒त् । अ॒व्र॒त: । तपु॑:ऽवधाय । नम॑:। अ॒स्तु॒ । त॒क्मने॑ ॥२०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नेरिवास्य दहत एति शुष्मिण उतेव मत्तो विलपन्नपायति। अन्यमस्मदिच्छतु कं चिदव्रतस्तपुर्वधाय नमो अस्तु तक्मने ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने:ऽइव । अस्य । दहत: । एति। शुष्मिण: । उतऽइव । मत्त: । विऽलपन् । अप । अयति । अन्यम् । अस्मत् । इच्छतु । कम् । चित् । अव्रत: । तपु:ऽवधाय । नम:। अस्तु । तक्मने ॥२०.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोग के नाश के लिये उपदेश।
पदार्थ
वह [ज्वर] (दहतः) दहकती हुई, (शुष्मिणः) बलवान् (अस्य) इस (अग्नेः) अग्नि के [ताप के] (इव) समान (एति) व्यापता है, (उत) और (मत्तः इव) उन्मत्त के समान (विलपन्) विलपता हुआ (अप अयति) भाग जाता है। (अस्मत्) हम से (अन्यम्) दूसरे (कम् चित्) किसी [कुनियमी] को (अव्रतः) वह व्रतहीन (इच्छतु) ढूँढ लेवे, (तपुर्वधाय) तपते हुए अस्त्र रखनेवाले (तक्मने) दुःखित जीवन करनेवाले ज्वर को (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे ॥१॥
भावार्थ
जहाँ पर उत्तम वैद्य होते हैं और मनुष्य उचित आहार विहार करते हैं, वहाँ ज्वरादि रोग नहीं होते ॥१॥
टिप्पणी
१−(अग्नेः) पावकस्य ताप इति शेषः (इव) यथा (अस्य) प्रसिद्धस्य (दहतः) दाहकस्य (एति) व्याप्नोति (शुष्मिणः) शोषकबलयुक्तस्य (उत) अपि च (इव) यथा (मत्तः) उन्मत्तः। आत्मविस्मारकः (विलपन्) विविधं प्रलापं कुर्वन् (अप अयति) दूरं गच्छति (अन्यम्) व्रतहीनम् (अस्मत्) अस्मत्तः। व्रतधारकेभ्यः (इच्छतु) अन्विच्छतु (कम् चित्) कमपि पुरुषम् (अव्रतः) भ्रष्टनियमः (तपुर्वधाय) तापायुधाय (नमः) नमस्कारः (अस्तु) (तक्मने) अ० १।२५।१। कृच्छ्रजीवनकारिणे ज्वराय ॥
विषय
अव्रतता तथा ज्वर
पदार्थ
१. (शुष्मिणः अग्नेः इव) = प्रबल [सुखा देनेवाले] अग्नि के समान (दहत:) = सन्तप्त करते हुए (अस्य) = इस ज्वर का वेग (एति) = आता है। उस समय यह ज्वरक्रान्त पुरुष (मत्त: इव) = विचारहीन, उन्मत्त-सा (उत) = और (विलपन्) = बड़बड़ाता हुआ [delirium में] (अप अयति) = दूर भागता है। २. यह (अव्रत:) = व्रतशून्य पुरुष को-अनियमित जीवनवाले पुरुष को होनेवाला ज्वर (अस्मत् अन्यम्) = हमसे भिन्न (किञ्चित्) = किसी अन्य पुरुष की (इच्छतु) = इच्छा करे, (तपुर्वधाय) = सन्तापक शस्त्र को धारण करनेवाले इस (तवमने) = जीवन को कष्टमय बनानेवाले ज्वर के लिए (नमः अस्तु) = नमस्कार हो-हमसे यह दूर ही रहे।
भावार्थ
शरीर को सन्तप्त करनेवाला, मन को उन्मत्त और वाणी में बड़बड़ाहट उत्पन्न करनेवाला ज्वर अनियमित जीवनवाले पुरुषों को ही होता है, अत: हम व्रतमय जीवनवाले बनकर अपने को इस ज्वर से बचाएँ।
भाषार्थ
(दहतः) दहन करने वाली (अग्ने: इव) अग्नि के दाह के सदृश, (अस्य शुष्मिणः) सुखा देने वाले इस [ज्वर का दाह] (एति) आता है [शरीर को व्याप्त कर लेता है] (उत) तथा (मत्तः इव) उन्मत्त व्यक्ति की तरह [ज्वरार्त्त व्यक्ति] (विलपन्) विविध प्रलाप करता हुआ (अप एति) इधर-उधर जाता-आता है। (अव्रतः) ज्वर कर्मरहित कर देने वाला है, यह ज्वर (अस्मद् अन्यम्) हम से भिन्न (कंचित् ) किसी को ( इच्छतु) चाहे, (तपुर्वधाय) शरीर को तपा देना जिस का घातुक आयुध है उस ( तक्मने ) पित्तज्वर के लिये (नमः अस्तु) नमः हो।
टिप्पणी
[शुष्मिणः = शुष्म बलनाम (निघं० २।९)। पित्तज्वर शोषक है, और प्रबल वेग के साथ आक्रमण करता है। यह रक्त को सूखा देता है। तक्मने = तकि कृच्छ्रजीवने (भ्वादिः), यह जीवन को कष्टमय कर देता है। अग्रतः = कर्महीन कर देता है "व्रतम् कर्मनाम" (निघं० २।१)। अस्मत् = बुद्धि और कर्मों में पवित्र जीवन वाले (अथर्व० ६।१९।१-३)। अन्यम्= अपवित्र जीवन वाले को। 'नम:' के दो अर्थ अभिप्रेत हैं अन्न और वज्र (निरुक्त २७;२।२०)। पाच्य अन्न के सेवन और औषधवज्र से तक्मा नष्ट हो जाता है। विनियोगकारों ने सूक्त का देवता "यक्ष्मनाशन" कहा है। सम्भवतः दीर्घकाल का पित्तज्वर 'यक्ष्म" में परिणत हो जाता हो, रक्त के सुख जाने से कमजोरी के कारण यक्ष्म आक्रमण करता हो।]
विषय
ज्वर का निदान और चिकित्सा।
भावार्थ
(शुष्मिणः) प्रबल (अग्नेः इव) आग के समान (दहतः) शरीर को भस्म करते हुए, तपाते हुए इस ज्वर का वेग (एति) आता है और रोगी तब (मत्तः) मत्त, विचारहीन नशेबाज के समान (उत) और (विलपन्) बड़बड़ाता हुआ (अप अयति) उठ कर भागा करता है। ज्वर (अव्रतः) जो कि व्रतहीनता की निशानी है (अस्मद् अन्यं कंचित्) हमसे अतिरिक्त किसी दूसरे अर्थात् व्रतहीन अनाचारी पुरुषको (इच्छतु) हुआ करता है। (तपुः-वधाय) ताप रूप शस्त्र को धारण करनेवाले (तक्मने) कष्टदायी ज्वर का तो (नमः) शान्ति का उपाय ही हम करें। पापाचारी को रोग सताते हैं, पुण्यात्मा, सदाचारी युक्ताहार-विहारवान् व्रतनिष्ट योगी को नहीं सताते।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वंगिरा ऋषिः। यक्ष्मनाशनं देवता। १ अति जगती। २ ककुम्मती प्रस्तारे पंक्तिः। ३ सतः पक्तिः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Takma-Nashanam
Meaning
Like the heat of burning fire comes the attack of this intense fever, and while the patient is delirious and talks incoherently like one mad, it goes and returns. Let there be ‘namas’ proper treatment for fever, and let the nasly fever go off, elsewhere, to some one not observing proper health care. Thus ‘homage’ appropriate to the killer fever.
Subject
Cure of Yaksma
Translation
Like the heat of this mighty burning fire, (the fever) comes; and then like a mad person, crying out it goes away. May this unruly one, seek some one other than us for killing with intense heat. Our homage be to the fever.
Translation
The fever like the heat of the fierce burning fire attacks the men and man under its influence like a mad runs in delirium. Let this lawless fever seek another but me. We should take the measure of safety against the fever the heat of which is the cause of death.
Translation
Fever comes like this fierce burning fire, and makes the patient run lamenting and inebriated. Let fever seek another intemperate parson and not us. We assuage the fever armed with fiery heat.
Footnote
Those who are temperate in habits and observe the laws of hygiene remain free from fever. It attacks those who are intemperate and violate the laws of health.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अग्नेः) पावकस्य ताप इति शेषः (इव) यथा (अस्य) प्रसिद्धस्य (दहतः) दाहकस्य (एति) व्याप्नोति (शुष्मिणः) शोषकबलयुक्तस्य (उत) अपि च (इव) यथा (मत्तः) उन्मत्तः। आत्मविस्मारकः (विलपन्) विविधं प्रलापं कुर्वन् (अप अयति) दूरं गच्छति (अन्यम्) व्रतहीनम् (अस्मत्) अस्मत्तः। व्रतधारकेभ्यः (इच्छतु) अन्विच्छतु (कम् चित्) कमपि पुरुषम् (अव्रतः) भ्रष्टनियमः (तपुर्वधाय) तापायुधाय (नमः) नमस्कारः (अस्तु) (तक्मने) अ० १।२५।१। कृच्छ्रजीवनकारिणे ज्वराय ॥
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