अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
स॒स्रुषी॒स्तद॒पसो॒ दिवा॒ नक्तं॑ च स॒स्रुषीः॑। वरे॑ण्यक्रतुर॒हम॒पो दे॒वीरुप॑ ह्वये ॥
स्वर सहित पद पाठस॒स्रुषी॑: । तत् । अ॒पस॑: । दिवा॑ । नक्त॑म्। च॒ । स॒स्रुषी॑: । वरे॑ण्यऽक्रतु । अ॒हम् । अ॒प: । दे॒वी: । उप॑ । ह्व॒ये॒ ॥२३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सस्रुषीस्तदपसो दिवा नक्तं च सस्रुषीः। वरेण्यक्रतुरहमपो देवीरुप ह्वये ॥
स्वर रहित पद पाठसस्रुषी: । तत् । अपस: । दिवा । नक्तम्। च । सस्रुषी: । वरेण्यऽक्रतु । अहम् । अप: । देवी: । उप । ह्वये ॥२३.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
कर्म करने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(वरेण्यक्रतुः) उत्तम कर्म वा बुद्धिवाला (अहम्) मैं (अपसः) व्यापक (तत्=तस्य) विस्तृत ब्रह्म की (दिवा) दिन (च) और (नक्तम्) राति (सस्रुषीः सस्रुषीः) अत्यन्त उद्योगशील, (देवीः) प्रकाशमय (अपः) व्यापक शक्तियों को (उप) आदर से (ह्वये) बुलाता हूँ ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर की शक्तियों का विचार करते हुए सदा पुरुषार्थ करें ॥१॥
टिप्पणी
१−(सस्रुषीः सस्रुषीः) सृ गतौ, लिटः क्वसु। उगितश्च। पा० ४।१।६। इति ङीप्। वसोः सम्प्रसारणे यण्। नित्यवीप्सयोः। पा० ८।१।४। इति द्विर्वचनम्। अतिशयेनोद्योगशीलाः (तत्) त्यजितनियजिभ्यो डित्। उ० १।१३२। इति तनु विस्तारे−अदि, स च डित्। विस्तृतस्य ब्रह्मणः (अपसः) आपः कर्माख्यायां०। उ० ४।२०८। इति आप्लृ व्याप्तौ−असुन्, ह्रस्वश्च। व्यापकस्य (दिवा) दिने (नक्तम्) रात्रौ (च) (वरेण्यक्रतुः) वृञ एण्यः। उ० ३।९८। इति वृञ् वरणे−एण्य। क्रतुः कर्मनाम−निघ० २।१। प्रज्ञानाम−निघ० ३।९। प्रशस्तकर्मा। उत्तमबुद्धिः (अहम्) पुरुषार्थी (अपः) व्यापिकाः शक्तीः (देवीः) प्रकाशमानाः (उप) आदरे (ह्वये) आह्वयामि ॥
विषय
वरेण्य क्रतु द्वारा अपों का आह्वान
पदार्थ
१. (वरेण्यक्रतुः अहम्) = प्रशंसित श्रेष्ठ कर्म व प्रज्ञानवाला मैं (तत् सस्नुषी:) = उन प्रवाहयुक्त जलधाराओं को (च) = और (दिवा नक्तम्) = दिन-रात (सस्नुषी: अपस:) = धाराओं में बहनेवाले जलों को (उपह्वये) = पुकारता हूँ। जल बह रहे हैं और बह ही रहे हैं। मैं भी निरन्तर कार्यक्रम में बहनेवाला-शान्तभाव से कर्त्तव्यकर्मों को करनेवाला बनूं। २. मैं (देवी: अप:) = इन दिव्य गुणयुक्त जलों को पुकारता हूँ। इनके प्रयोग से मैं रोगों को जीतनेवाला बनूं। नौरोग बनकर जलों की भाँति शान्तभाव से कर्तव्यधारा में बहनेवाला बनूं।
भावार्थ
हम जलों का स्मरण करें। जलों की भाँति शान्तभाव से कर्तव्यधारा में बहें । यही 'वरेण्यक्रतु' बनने का मार्ग है।
भाषार्थ
(सस्रुषीः) प्रवाहित होती हुई, (तदपसः) वह प्रवाहित होना जिन का कर्म है, (दिवा नक्तं च) दिन और रात (सस्रुषी:) प्रवाहित होती हुई (देवी: अपः) [दिव्य नदियों] के जलों को (अहम् ) मैं (वरेण्यक्रतुः) श्रेष्ठ-यज्ञिय कर्मों वाला (उप) समीप (ह्वये ) बुलाता हूं ।
टिप्पणी
[सस्रुषीः= सृ लिटि क्वसुः (सायण)। तदपसः= तत् प्रवहणम्, अप: कर्म, यासां ता आपः। क्रतुः = यज्ञिय कर्म, कृष्यादि। उपह्वये =कुल्या द्वारा। यज्ञिय कर्म कृष्यादि= राष्ट्रयज्ञ के लिये]।
विषय
जलधाराओं द्वारा यन्त्र सञ्चालन।
भावार्थ
(तत्) उस अनादि अनन्त जीवन-रस को (सखुषीः) निरन्तर बहानेवाली (अपसः) ब्रह्माण्ड निर्मापक शक्तिधाराएं या जलधाराएं (दिवा नक्तं च) रात और दिन (सखुषीः) बहनेवाली जलधाराओं के समान बराबर चलती ही रहती हैं। (वरेण्य क्रतुः) सब से वरण करने योग्य क्रतु = ज्ञान और कर्म से युक्त (अपः) व्यापक प्रकृति शक्तियों को (उप-ह्वये) अपने समीप ही अपनी हुकूमत में रखता हूँ। अथवा—मैं (वरेण्य-क्रतुः) उत्तम ज्ञान और कर्मवाला पुरुष उन दिव्य शक्तिसम्पन्न (अपः) जलों को (उप-ह्वये) अपने कलायन्त्रादि द्वारा अधीन रखता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शन्तातिर्ऋषिः। आपो देवताः। १ अनुष्टुप्। २ त्रिपदा गायत्री। ३ परोष्णिक्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Apah, the flow
Meaning
I, seeker and performer of choice actions, invoke and pray for the divine gift of Karmic potential, that stream and shower of fluent karma which ceaselessly flows day and night in karmic streams of the flux of existence.
Subject
Apah - Waters
Translation
Those flowing streams, and the divine waters flowing day and night in streams, I, of excellent actions, hereby call to me.
Translation
The waters are of the nature of flow, they flow incessantly day and night, I, possessed of noble knowledge and act utilize these useful waters in various ways.
Translation
Most excellently wise and energetic I, invoke day and night, the extremely active and brilliant powers of the All-pervading Vast God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(सस्रुषीः सस्रुषीः) सृ गतौ, लिटः क्वसु। उगितश्च। पा० ४।१।६। इति ङीप्। वसोः सम्प्रसारणे यण्। नित्यवीप्सयोः। पा० ८।१।४। इति द्विर्वचनम्। अतिशयेनोद्योगशीलाः (तत्) त्यजितनियजिभ्यो डित्। उ० १।१३२। इति तनु विस्तारे−अदि, स च डित्। विस्तृतस्य ब्रह्मणः (अपसः) आपः कर्माख्यायां०। उ० ४।२०८। इति आप्लृ व्याप्तौ−असुन्, ह्रस्वश्च। व्यापकस्य (दिवा) दिने (नक्तम्) रात्रौ (च) (वरेण्यक्रतुः) वृञ एण्यः। उ० ३।९८। इति वृञ् वरणे−एण्य। क्रतुः कर्मनाम−निघ० २।१। प्रज्ञानाम−निघ० ३।९। प्रशस्तकर्मा। उत्तमबुद्धिः (अहम्) पुरुषार्थी (अपः) व्यापिकाः शक्तीः (देवीः) प्रकाशमानाः (उप) आदरे (ह्वये) आह्वयामि ॥
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