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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भृगु देवता - यमः, निर्ऋतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त
    1

    ऋ॒चा क॒पोतं॑ नुदत प्र॒णोद॒मिषं॒ मद॑न्तः॒ परि॒ गां न॑यामः। सं॑लो॒भय॑न्तो दुरि॒ता प॒दानि॑ हि॒त्वा न॒ ऊर्जं॒ प्र प॑दा॒त्पथि॑ष्ठः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒चा । क॒पोत॑म् । नु॒द॒त॒ । प्र॒ऽनोद॑म् । इष॑म्। मद॑न्त: । परि॑ । गाम् । न॒या॒म॒: । स॒म्ऽलो॒भय॑न्त: । दु॒:ऽइ॒ता । प॒दानि॑ । हि॒त्वा । न॒: । उर्ज॑म् । प्र । प॒दा॒त् ॥२८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋचा कपोतं नुदत प्रणोदमिषं मदन्तः परि गां नयामः। संलोभयन्तो दुरिता पदानि हित्वा न ऊर्जं प्र पदात्पथिष्ठः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋचा । कपोतम् । नुदत । प्रऽनोदम् । इषम्। मदन्त: । परि । गाम् । नयाम: । सम्ऽलोभयन्त: । दु:ऽइता । पदानि । हित्वा । न: । उर्जम् । प्र । पदात् ॥२८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 28; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    विद्वान् के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वानो !] (ऋचा) स्तुति से (प्रणोदम्) आगे बढ़ानेवाले (कपोतम्) स्तुतियोग्य विद्वान् को (नुदत) आगे बढ़ाओ। (मदन्तः) हर्ष करते हुए और (दुरिता) दुर्गति के कारण (पदानि) चिह्नों को (संलोभयन्तः) मिटाते हुए हम लोग (इषम्) अन्न और (गाम्) विद्या को (परि) सब ओर (नयामः) पहुँचाते हैं। (पथिष्ठः) वह अति शीघ्रगामी विद्वान् (नः) हमें (ऊर्जम्) पराक्रम (हित्वा) देकर (प्र पदात्) आगे ठहरे ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि उद्योगी पुरुषार्थी विद्वान् पुरुष को अपना नेता बना कर उन्नति करें ॥१ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० १०।१६५।५ ॥

    टिप्पणी

    १−(ऋचा) ऋच स्तुतौ−क्विप्। स्तुत्या। वेदमन्त्रेण (कपोतम्) सू० २७। म० १। स्तुत्यं दूरदर्शिनं पुरुषम् (नुदत) प्रेरयत (प्रणोदम्) णुद प्रेरणे−विच्। प्रेरकं नायकम् (इषम्) अन्नम् (मदन्तः) हर्षन्तः (परि) सर्वतः (गाम्) विद्याम् (नयामः) प्रापयामः (संलोभयन्तः) लुभ विमोहने तुदा० शतृ। विमोहयन्तो नाशयन्तः (दुरिता) दुरितानि दुर्गतिनिमित्तानि (पदानि) चिह्नानि (हित्वा) डुधाञ् धारणपोषणयोः, दाने च, क्त्वा। धृत्वा। दत्वा (नः) अस्मभ्यम् (ऊर्जम्) पराक्रमम् (प्र) प्रकर्षेण (पदात्) पद स्थैर्ये गतौ च−लेट्। तिष्ठतु। गच्छतु (पथिष्ठः) पथितृ−इष्ठन्। तुरिष्ठेमेयस्सु। पा० ६।४।१५४। इति तृलोपः। अतिशयेन गन्ता। महापुरुषार्थी ॥

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    विषय

    कपोतम्, प्रणोदम्

    पदार्थ

    १. (ऋचा) = स्तुति के द्वारा (प्रणोदम्) = प्रकृष्ट प्रेरणा प्राप्त करानेवाले (क-पोतम्) = आनन्द-पोत के समान प्रभु को नुदत-अपने हृदय में प्रेरित करो। प्रभु के सम्पर्क में मदन्त:-आनन्द का अनुभव करते हुए इषम् प्रभु-प्रेरणा को तथा गाम्-इस वेदवाणी को परिनयामः-अपने साथ परिणत करते हैं। प्रभु-प्रेरणा व प्रभुवाणी को प्राप्त करने के लिए यत्नशील होते हैं। २. इसप्रकार हम दुरिता पदानि-अशुभ गतियों को संलोभयन्त:-विनष्ट करनेवाले होते हैं। न: हमारे लिए ऊर्जम्-बल व प्राणशक्ति को हित्वा-धारण करके पथिष्ठः प्रपदात्-मार्ग पर चलानेवालों में सर्वश्रेष्ठ प्रभु हमारे आगे चले। प्रभु हमारे नेता हों। उस अग्नि के नेतृत्व में हम भी अग्नि बन पाएँ।

     

    भावार्थ

    वे प्रभु आनन्द के पोत हैं। हमें प्रेरणा देनेवाले हैं। हम प्रभु-प्रेरणा व प्रभु वाणी को प्राप्त करने के लिए यत्नशील हों। अशुभ गतियों को छोड़कर बल व प्राण को धारण करके प्रभु के अनुयायी बनें। प्रभु ही हमारे नेता हों।

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    भाषार्थ

    [हे जलीय-यान के चलाने वालो !] (ऋचा) ऋक-प्रोक्त विधि द्वारा (प्रणोदम्) प्रकृष्टतया प्रेरणीय ( कपोतम्) जलीय-यान को (नुदत) प्रेरित करो, चलाओ, (इषम्) अभीष्ट अन्न को प्राप्त कर (मदन्तः) तृप्त तथा हर्षित होते हुए ( गाम् परि =परितः ) पृथिवी के सब ओर ( नयाम:) इस [कपोत को] हम ले जाते हैं, (दुरिता =दुरितानि ) दुष्परिणामी ( पदानि) पदन्यासों को (संलोभयन्तः ) संलुप्त करते हुए । ताकि ( पथिष्ठः ) पथ में स्थित हुआ [कपोत] (नः) हमारे लिये (ऊर्जम्) बलप्रद तथा प्राणप्रद अन्न को (हित्वा) हमारे राष्ट्र में छोड़कर ( प्र पदात् ) शीघ्र पुन: [अन्न प्राप्ति के लिये] चला जाय।

    टिप्पणी

    [सूक्त २७ और २८ पृथक्-पृथक् पठित हैं, चाहे विषय कपोत ही है। इसलिये इन भिन्न सूक्तों में कपोत का अभिप्राय भी भिन्न-भिन्न है सूक्त २७ में "पक्षिणी" द्वारा कपोत को अल्पकाय तथा वायुयान रूप कहा है । सूक्त २८ में कपोत अन्नसंग्रह करने के लिये पृथिवी के सब ओर ले जाया जाता है । अतः यह जलीययान है कपोत= क (जल) + पोत(यान) । नुदत=णु प्रेरणे (तुदादिः) । इषम् अन्ननाम (निघं: २।७) । गौ: पृथिवीनाम (निघं. १।१)। मदन्तः= मद तृप्तियोगे; मदी हुर्षे (चुरादिः; भ्वादिः) संलोभयन्त:= जलीय-यान को दुर्गम मार्गों से बचाते हुए। प्रपदात् =प्र + पद (गतौ, दिवादिः)। ऊर्जम= ऊर्ज बलप्राणनयोः (चुरादिः)]।

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    भाषार्थ

    [हे जलीय-यान के चलाने वालो !] (ऋचा) ऋक-प्रोक्त विधि द्वारा (प्रणोदम्) प्रकृष्टतया प्रेरणीय ( कपोतम्) जलीय-यान को (नुदत) प्रेरित करो, चलाओ, (इषम्) अभीष्ट अन्न को प्राप्त कर (मदन्तः) तृप्त तथा हर्षित होते हुए ( गाम् परि =परितः ) पृथिवी के सब ओर ( नयाम:) इस [कपोत को] हम ले जाते हैं, (दुरिता =दुरितानि ) दुष्परिणामी ( पदानि) पदन्यासों को (संलोभयन्तः ) संलुप्त करते हुए । ताकि ( पथिष्ठः ) पथ में स्थित हुआ [कपोत] (नः) हमारे लिये (ऊर्जम्) बलप्रद तथा प्राणप्रद अन्न को (हित्वा) हमारे राष्ट्र में छोड़कर ( प्र पदात् ) शीघ्र पुन: [अन्न प्राप्ति के लिये] चला जाय।

    टिप्पणी

    [सूक्त २७ और २८ पृथक्-पृथक् पठित हैं, चाहे विषय कपोत ही है। इसलिये इन भिन्न सूक्तों में कपोत का अभिप्राय भी भिन्न-भिन्न है सूक्त २७ में "पक्षिणी" द्वारा कपोत को अल्पकाय तथा वायुयान रूप कहा है । सूक्त २८ में कपोत अन्नसंग्रह करने के लिये पृथिवी के सब ओर ले जाया जाता है । अतः यह जलीययान है कपोत= क (जल) + पोत (यान) । नुदत=णुद प्रेरणे (तुदादिः) । इषम् अन्ननाम (निघं० २।७) । गौ: पृथिवीनाम (निघं. १।१)। मदन्तः= मद तृप्तियोगे; मदी हर्षे (चुरादिः; भ्वादिः) संलोभयन्त:= जलीय-यान को दुर्गम मार्गों से बचाते हुए। प्रपदात् =प्र + पद (गतौ, दिवादिः)। ऊर्जम= ऊर्ज बलप्राणनयोः (चुरादिः)]।

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    विषय

    राजा और राजदूत के व्यवहार।

    भावार्थ

    (ऋचा) उत्तम अर्चना, आदर सत्कार से (प्रणोदम्) शिक्षा प्राप्त, स्तुति योग्य (कपोतं) विशेष लक्षण या वर्णयुक्त विद्वान् राजदूत को आप लोग भी (नुदत) अपना संदेशहर बना बना कर भेजो। हम भी (इषम्) अपनी अभिलाषा को (मदन्तः) हर्षपूर्वक (गां परिनयामः) इस पृथ्वी में सब ओर पहुंचावें। (दुरितानि पदानि) दुःखदायी स्थानों का (सं लोभयन्तः) विनाश करें। वह हमारे (ऊर्जं) बल को (हित्वा) ग्रहण करके स्वयं (पथिष्ठः) मार्ग तय करता हुआ (प्र पदात्) बराबर आगे बढ़ता चला जाय। राजा अपने दूतों को समस्त पृथिवी में भेजे, अपनी आज्ञाओं को उसके द्वारा सर्वत्र प्रचारित करे। दुर्गम स्थानों को सुगम कर के वहां से राष्ट्र के हितार्थ ऊर्जं = बल प्राप्त करके अगले देशों में प्रवेश करे।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘नयध्वम्’। (तृ० च०) ‘संयोपयन्तो दुरितानि विश्वा हि त्वा न ऊर्जं प्रपतात् पतिष्ठः।’ इति ऋ०। अस्य सूक्तस्य ऋग्वेदे कपोतो नैर्ऋते ऋषिः कपोतोपहते वैश्वदेवं प्रायश्चित्तं देवता इति।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। यमो निर्ऋतिश्च देवते। १ त्रिष्टुप्। २ अनुष्टुप्। ३ जगती। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Response to Challenge

    Meaning

    With proper words of praise and appreciation, urge upon the ambassador that, happy and rejoicing in our power and supplies of food and energy, with confidence and full power, we guide and rule our land and people. Thus avoiding references to undesirables but without omitting the assertion of our power and potential, let the messenger be sent back with a fitting reply.

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    Subject

    Yamah : Nir-rtih (Perdition)

    Translation

    Send forth the pigeon, worthy for despatch, with vedic verses. Enjoying food, we make him go all around the earth Obliterating the tracks of evil, |leaving vigour for us, may he, the fleet-winged, fly forth

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    Translation

    O men! send the pigeon as messenger who is trained with your word, we enjoying the desired knowledge to send messages through pigeon and destroying the obstacles in the ways send messages throughout the globe. Let the pigeon covering the path with message increasing our strength proceed onwards.

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    Translation

    O learned persons, advance through Vedic knowledge, this venerable, far-sighted leader. Rejoicing, obliterating traces of misfortune, we spread foodstuffs and knowledge all round. May this active learned person advance, giving us vigor.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(ऋचा) ऋच स्तुतौ−क्विप्। स्तुत्या। वेदमन्त्रेण (कपोतम्) सू० २७। म० १। स्तुत्यं दूरदर्शिनं पुरुषम् (नुदत) प्रेरयत (प्रणोदम्) णुद प्रेरणे−विच्। प्रेरकं नायकम् (इषम्) अन्नम् (मदन्तः) हर्षन्तः (परि) सर्वतः (गाम्) विद्याम् (नयामः) प्रापयामः (संलोभयन्तः) लुभ विमोहने तुदा० शतृ। विमोहयन्तो नाशयन्तः (दुरिता) दुरितानि दुर्गतिनिमित्तानि (पदानि) चिह्नानि (हित्वा) डुधाञ् धारणपोषणयोः, दाने च, क्त्वा। धृत्वा। दत्वा (नः) अस्मभ्यम् (ऊर्जम्) पराक्रमम् (प्र) प्रकर्षेण (पदात्) पद स्थैर्ये गतौ च−लेट्। तिष्ठतु। गच्छतु (पथिष्ठः) पथितृ−इष्ठन्। तुरिष्ठेमेयस्सु। पा० ६।४।१५४। इति तृलोपः। अतिशयेन गन्ता। महापुरुषार्थी ॥

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