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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
    ऋषिः - उपरिबभ्रव देवता - गौः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - गौ सूक्त
    1

    आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन्मा॒तरं॑ पु॒रः। पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्वः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒यम् । गौ: । पृश्नि॑: । अ॒क्र॒मी॒त् । अस॑दत् । मा॒तर॑म् । पु॒र: । पि॒तर॑म् । च॒ । प्र॒ऽयन् । स्व᳡: ॥३१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः। पितरं च प्रयन्त्स्वः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अयम् । गौ: । पृश्नि: । अक्रमीत् । असदत् । मातरम् । पुर: । पितरम् । च । प्रऽयन् । स्व: ॥३१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 31; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    सूर्य वा भूमि के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अयम्) यह (गौ) चलने वा चलानेवाला, (पृश्निः) रसों वा प्रकाश का छूनेवाला सूर्य (आ अक्रमीत्) घूमता हुआ है, (च) और (पितरम्) पालन करनेवाले (स्वः) आकाश में (प्रयन्) चलता हुआ (पुरः) सन्मुख हो कर (मातरम्) सब की बनानेवाली पृथिवी माता को (असदत्) व्यापा है ॥१॥

    भावार्थ

    यह सूर्य अन्तरिक्ष में घूम कर आकर्षण, वृष्टि आदि व्यापारों से पृथ्वी आदि लोकों का उपकार करता है ॥१॥ इस सूक्त के तीनों मन्त्र कुछ भेद से अन्य तीनों वेदों में इस प्रकार हैं ॥ वेद पता ऋषि देवता ऋग्वेद १०।१८९।१-३ सार्पराज्ञी सार्पराज्ञी वा सूर्य्य यजुर्वेद ३।६-८ सार्पराज्ञी कद्रु अग्नि सामवेद पृ० ।१४।४-६ सार्पराज्ञी सूर्य्य हमने “सार्पराज्ञी” चलनेवाले और चमकनेवाले सूर्य से सम्बन्धवाली पृथ्वी और “सूर्य” को देवता मान कर सूक्त का अर्थ किया है। प्रत्येक मन्त्र के साथ महर्षि दयानन्दकृत भाष्य के अनुसार सक्षिप्त अर्थ दिखाया गया है, सविस्तार उनके भाष्य में देख लेवें ॥ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका−पृष्ठ १३६, पृथिव्यादिभ्रमण−“(अयम्) यह (गौः) पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, अथवा अन्य लोक (पृश्निः=पृश्निम्) अन्तरिक्ष में (आ अक्रमीत्) घूमता चलता है, इनमें पृथिवी (मातरम्) अपने उत्पत्तिकारण जल को तथा (पितरम्) (स्वः) पिता और अग्निमय सूर्य को (असदत्) प्राप्त होती है (च) और (पुरः) पूर्व-पूर्व (प्रयन्) सूर्य के चारों ओर घूमती है। ऐसे ही सूर्य वायु पिता और आकाश माता के, तथा चन्द्रमा, अग्नि पिता और जल माता के प्रति घूमता है ॥” यजुर्वेद−अ० ३ म० ६ ॥ “(अयम्) यह (गौः) गोलरूपी पृथिवी (पितरम्) पालन करनेवाले (स्वः) सूर्य के और (मातरम्) अपनी योनिरूप जल के (पुरः) आगे-आगे (प्रयन्) चलती हुई (पृश्निः) अन्तरिक्ष अर्थात् आकाश में (आ अक्रमीत्) चारों ओर चलती है (च) और (असदत्) अपनी कक्षा में घूमती है ॥ यह पृथ्वी अपने योनिरूप जलसहित आकर्षण करनेवाले सूर्य के चारों ओर घूमती है, उसी से दिनरात्रि, शुक्ल कृष्णपक्ष और ऋतु और अयन आदि काल विभाग उत्पन्न होते हैं ॥”

    टिप्पणी

    १−(अयम्) प्रत्यक्षः (गौः) अ० १।२।३। गौरादित्यो भवति। गमयति रसान्, गच्छत्यन्तरिक्षे−निरु० २।१४। (पृश्निः) अ० २।१।१। स्पृश−नि। पृश्निरादित्यो भवति.... संस्प्रष्टा रसान् संस्प्रष्टा भासं ज्योतिषां संस्पृष्टो भासेति वा−निरु० २।१४। (आ अक्रमीत्) समन्तात् क्रान्तवान् (असदत्) असीदत्। प्राप्तवान् (मातरम्) निर्मात्रीं भूमिम् (पुरः) पुरस्तात्। अग्रे (पितरम्) पालकम् (च) समुच्चये (प्रयन्) इण्−शतृ। सञ्चरन् (स्वः) अ० २।५।२। अन्तरिक्षलोकम् ॥

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    विषय

    गौ-पृश्नि:

    पदार्थ

    १. (अयम्) = यह-गतसूक्त के अनुसार यवादि सात्त्विक अन्नों का सेवन करनेवाला व्यक्ति (गौः) = [गच्छति] क्रियाशील होता है, (पृश्नि:) = [संस्प्रष्टा भासाम्-नि० २.१४] ज्ञान-ज्योति का स्पर्श करनेवाला होता है। यह (आ अक्रमीत) = समन्तात् अपने कर्त्तव्यकर्मों में गतिवाला होता है। यह (मातरम्) = वेदमाता को (पुरः) = सदा अपने सामने स्थापित करके उसकी प्रेरणा के अनुसार (असदत्) = गतिवाला होता है। आगमदीप-दृष्ट मार्ग से ही गति करता है। २. इसप्रकार शास्त्र प्रमाणक बनकर-शास्त्र विधान के अनुसार कार्यों को करता हुआ यह (स्वः पितरम्) = उस प्रकाशमय पिता प्रभु की ओर (प्रयन्) = जानेवाला होता है।

    भावार्थ

    हम गतिशील बनें, ज्ञानी बनें। वेद के अनुसार कर्म करते हुए प्रभु-प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ें।

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    भाषार्थ

    (अयम् ) यह (गौ:) पृथिवीलोक, (पृश्निः) जो कि नाना वर्णी है (आ अक्रमीत्) सूर्य के चारों ओर परिक्रमा कर रहा है, (पुरः ) पश्चिम से पूर्व की ओर; ( मातरम् अवदत् ) अन्तरिक्ष में स्थित हुआ, (च) और (स्वः) उत्तप्त (पितरम् ) पितॄरूप सूर्य के प्रति ( प्रयन् ) प्रयाण करता हुआ।

    टिप्पणी

    [गौ: पृथिवीनाम (निघं. १।१) । पृश्नि: =[प्राष्टवर्णः] भूमिरिति (सायण ऋ० १।२३।१०), पृथिवीलोक नानारूपों से रञ्जित है अतः प्राष्टवर्णः। मातरम्= अन्तरिक्षम्, यथा मातरिश्वा= वायुः, यह मातृभूत अन्तरिक्ष में गति करती है, और बढ़ती है, फैलती है। यथा "मातरिश्वा वायुः, मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति, मातरि आशु अनितीति वा१'' (निरुक्त ७७।२६) । पितरम् = पृथिवी लोक सूर्य से पैदा हुआ है। अतः सूर्य पृथिवी का पिता है। स्वः = स्व उपतापे (भ्वादिः)। आ+ अक्रमीत् (क्रमु पादविक्षेपे भ्वादिः), पादविक्षेप =पाद बढ़ाना, चलना। अक्रमीत् भूतकाल का प्रयोग है। इस द्वारा यह दर्शाया है कि पृथिवीलोक जब से पिता से पैदा हुआ है तभी से पिता की ओर वह पाद बढ़ा रहा है]। [१. अनिति गतिकर्मा (निघं० २।१४ ) ।]

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    भाषार्थ

    (अयम् ) यह (गौ:) पृथिवीलोक, (पृश्निः) जो कि नाना वर्णी है (आ अक्रमीत्) सूर्य के चारों ओर परिक्रमा कर रहा है, (पुरः ) पश्चिम से पूर्व की ओर; ( मातरम् अवदत् ) अन्तरिक्ष में स्थित हुआ, (च) और (स्वः) उत्तप्त (पितरम् ) पितॄरूप सूर्य के प्रति ( प्रयन् ) प्रयाण करता हुआ।

    टिप्पणी

    [गौ: पृथिवीनाम (निघं. १।१) । पृश्नि: =[प्राष्टवर्णः] भूमिरिति (सायण ऋ० १।२३।१०), पृथिवीलोक नानारूपों से रञ्जित है अतः प्राष्टवर्णः। मातरम्= अन्तरिक्षम्, यथा मातरिश्वा= वायुः, यह मातृभूत अन्तरिक्ष में गति करती है, और बढ़ती है, फैलती है। यथा "मातरिश्वा वायुः, मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति, मातरि आशु अनितीति वा१'' (निरुक्त ७।७।२६) । पितरम् = पृथिवी लोक सूर्य से पैदा हुआ है। अतः सूर्य पृथिवी का पिता है। स्वः = स्वृ उपतापे (भ्वादिः)। आ+ अक्रमीत् (क्रमु पादविक्षेपे, भ्वादिः), पादविक्षेप =पाद बढ़ाना, चलना। अक्रमीत् भूतकाल का प्रयोग है। इस द्वारा यह दर्शाया है कि पृथिवीलोक जब से पिता से पैदा हुआ है तभी से पिता की ओर वह पाद बढ़ा रहा है]। [१. अनिति गतिकर्मा (निघं० २।१४ ) ।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Sun, Planets and Satellites

    Meaning

    This moving earth, abiding by its mother, the atmospheric globe, and circumambulating its father, the bright sun, goes on and on in its orbit in space. (This mantra is a beautiful metaphor of the moving solar family. The sun is the father, the earth is child, and the globe of air and waters including the field of gravity is the mother. And this family of father, mother and child moves on and on in space in orbit. Another version, in Atharva-veda (20,48,4) translated by Pandit Satavalekara, interprets the metaphor as moon, the child, earth the mother, and sun the father.)

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    Subject

    Gauh - Earth

    Translation

    This fire, having strange-coloured flames, moves. He sits down before the mother (earth) in the form of domestic fire and goes to the father, the sky as well (in the form of the sun i.e., Svah) (Also III.6)

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    Translation

    This globe, i.e. the earth as well as the Sun, the moon are revolving in the space (the same is true of the other globes also). Among them the earth along with the waters of the oceans which are, as were its mother) revolves round the Sun which is a mass of fire.

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    Translation

    This Earth revolves in the space, it revolves with its mother water inits orbit. It moves round its father, the sun.

    Footnote

    Water is the mother of Earth as Earth is produced by the mixture of the particles of water with its own particles, and remains pregnant with water. Sun is the father of the Earth, as from the sun, it derives all light and sustenance. See Yajur, 3-6. See Sama, 630, and Rig, 10-186-1.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अयम्) प्रत्यक्षः (गौः) अ० १।२।३। गौरादित्यो भवति। गमयति रसान्, गच्छत्यन्तरिक्षे−निरु० २।१४। (पृश्निः) अ० २।१।१। स्पृश−नि। पृश्निरादित्यो भवति.... संस्प्रष्टा रसान् संस्प्रष्टा भासं ज्योतिषां संस्पृष्टो भासेति वा−निरु० २।१४। (आ अक्रमीत्) समन्तात् क्रान्तवान् (असदत्) असीदत्। प्राप्तवान् (मातरम्) निर्मात्रीं भूमिम् (पुरः) पुरस्तात्। अग्रे (पितरम्) पालकम् (च) समुच्चये (प्रयन्) इण्−शतृ। सञ्चरन् (स्वः) अ० २।५।२। अन्तरिक्षलोकम् ॥

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