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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
    ऋषिः - चातन देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यातुधानक्षयण सूक्त
    1

    अ॑न्तर्दा॒वे जु॑हु॒ता स्वे॒तद्या॑तुधान॒क्षय॑णं घृ॒तेन॑। आ॒राद्रक्षां॑सि॒ प्रति॑ दह॒ त्वम॑ग्ने॒ न नो॑ गृ॒हाणा॒मुप॑ तीतपासि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्त॒:ऽदा॒वे । जु॒हु॒त॒ । सु । ए॒तत् । या॒तु॒धा॒न॒ऽक्षय॑णम् । घृ॒तेन॑ । आ॒रात् । रक्षां॑सि । प्रति॑ । द॒ह॒ । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । न । न॒: । गृ॒हाणा॑म् । उप॑ । ती॒त॒पा॒सि॒ ॒॥३२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तर्दावे जुहुता स्वेतद्यातुधानक्षयणं घृतेन। आराद्रक्षांसि प्रति दह त्वमग्ने न नो गृहाणामुप तीतपासि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्त:ऽदावे । जुहुत । सु । एतत् । यातुधानऽक्षयणम् । घृतेन । आरात् । रक्षांसि । प्रति । दह । त्वम् । अग्ने । न । न: । गृहाणाम् । उप । तीतपासि ॥३२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राक्षसों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वानो] (एतत्) इस (यातुधानक्षयणम्) पीड़ा देनेवालों के नाश करनेवाले कर्म को (घृतेन) प्रकाश के साथ (अन्तर्दावे) भीतरी सन्ताप में (सु) अच्छे प्रकार (जुहुत) छोड़ो। (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! (त्वम्) तू (रक्षांसि) राक्षसों को (आरात्) दूर करके (प्रति दह) भस्म करदे और (नः) हमारे (गृहाणाम्) घरों का (उप) कुछ भी (न तीतपासि) मत तापकारी हो ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य अन्धकारनाशक परमेश्वर के ज्ञान से विद्या का प्रकाश करके आत्मिक और शारीरिक रोगों का जड़ से नाश करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अन्तर्दावे) दुन्योरनुपसर्गे। पा० ३।१।१४२। इति टुदु उपतापे−ण। अन्तः शत्रूणां हृदयस्य तापे (जुहुत) प्रक्षिपत (सु) सुष्ठु (एतत्) (यातुधानक्षयणम्) पीडाप्रदानां नाशकर्म (घृतेन) विद्यादिप्रकाशेन (आरात्) दूरे कृत्वा (रक्षांसि) राक्षसान्। रोगान् (प्रति दह) सर्वथा भस्मसात् कुरु (त्वम्) (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् (न) निषेधे (नः) अस्माकम् (गृहाणाम्) निवासानाम् (उप) हीने (तीतपासि) यङ्लुकि छान्दसं रूपम्। भृशं तापकरो भव ॥

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    विषय

    अग्निहोत्र द्वारा रक्षोदहन

    पदार्थ

    १. (अन्तः दावे) = अग्नि में (एतत्) = इस (यातुधानाक्षयणम्) = पीड़ाकर रोग-कृमियों को नष्ट करनेवाली हवि को (घृतेन) = घृत के साथ (सुजहत) = सम्यक् आहुत करो। २. हे (अग्ने) = यज्ञाग्ने। (त्वम्) = तू (रक्षांसि) = रोगकृमियों को (आरात् प्रतिदह) = सुदूर दग्ध कर दे और इसप्रकार (न: गृहाणाम्) = हमारे घरों का (न उपतीतपासि)-= सन्तापक नहीं होता है। अग्नि रोगकृमियों के विनाश के द्वारा हमारे घरों को स्वस्थ वातावरणवाला बनाता है।

    भावार्थ

    हम अग्नि में घृत के साथ कृमिनाशक हविर्द्रव्यों को आहत करें। यह अग्नि रोगकृमियों के विनाश के द्वारा हमें सुखी करेगा।

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    भाषार्थ

    (अन्तः) जीवन के भीतर, (दावे) दावाग्नि के सदृश ईर्ष्या आदि अग्नियों के प्रदीप्त हो जाने पर, (एतत् ) इस (यातुधानक्षयणम्) यातना देने वाले कुसंस्कारों का क्षय करने वाले मनरूपी हवि को (सु) उत्तम विधि से, (घृतेन) निजशक्ति के अनुसार, (जुहुत ) परमेश्वराग्नि में आहुति रूप में समर्पित कर दो। (अग्ने) हे परमेश्वराग्नि (त्वम्) तू (आराद्) हमारे समीप के (रक्षांसि) राक्षसी भावों को ( प्रतिदह) अर्थात् प्रत्येक राक्षसी भाव को दग्ध कर, (नः) हमारे (गृहाणाम् ) शरीर गृहों को ( न)(उपतीतपासि) तू उपतापकारी हो।

    टिप्पणी

    [सायण ने दावाग्नि में घृत सहित हवि की आहुति देने का कथन किया है । दावाग्नि वनाग्नि। परन्तु मन्त्र में रूपकालंकार में वर्णन हुआ है । घृत है वीर्य "रेतः कृत्वाज्यम्" ( अथर्व० ११।८।२९)१। योग में भी वीर्य को समाधि में कारण माना है। यथा "श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्" (योग० १।२०)। हविः से अभिप्रेत है मन । राजस और तामस मन कुसंस्कारों को पैदा करता, और सात्त्विक मन उन का क्षय करता है। इसलिये कहा है कि "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः"]। [१. "रेतः कृत्वाज्यं देवाः पुरुषमाविशन्" रेतस् को आज्य मान कर देव पुरुष में प्रविष्ट हुए।]

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    विषय

    दुष्टों के दमन का उपदेश।

    भावार्थ

    विघ्नकारी, पीड़ाकारी दुष्टों के नाश करने का उपदेश करते हैं। हे विद्वान् लोगो ! (घृतेन) जिस प्रकार घृत के द्वारा अग्नि में चरु आदि पदार्थ भस्म कर दिये जाते हैं उसी प्रकार (घृतेन) घृत = बल के द्वारा (यातुधान-क्षयणं) पीड़ा देने वाले रोगों के नाश करनेवाले पदार्थों की (दावे अन्तः) विशाल अग्नियों में (सु-जुहत) उत्तम रीति से आहुति कर दो। और हे (अग्ने) अग्नि के समान जलाने वाले या शत्रुओं को परिताप देने हारे राजन् ! (भारात्) तू दूर से ही (रक्षांसि) राष्ट्र की व्यवस्था और जन-समाज के जीवनसुख में विघ्न करने वाले दुष्ट, राक्षस, विघ्नकारी पुरुषों, रोगों और पीड़ाकारी जन्तुओं को (प्रति दह) भस्म कर डाल। हे अग्ने ! (त्वं) तू (नः) हमारे (गृहाणाम्) गृहों को और घर के पुरुषों को (न उप तीतपासि) कभी पीड़ित न करना।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-२ चातन ऋषिः। अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। १-२ त्रिष्टुभौ। २ प्रस्तार पंक्तिः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Germs and other Organisms

    Meaning

    O house holders, offer this germ destroying havi with ghrta into the burning fire. O fire, burn and destroy the evil, polluting and life threatening germs from far and near, and do not cause any fire hazard to our homes.

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    Subject

    Agnih

    Translation

    In the blazing fire pour this destroyer of tormenting germs profusely along with the purified butter. O fire, may you burn the germs of wasting diseases far and near. May you not be so hot for our houses.

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    Translation

    O house-holders! offer into the fire of Yajna this oblation of disease—quelling herbs, mixed with ghee. Let this fire burn the diseases driving them away from us and let it not create any trouble in our houses.

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    Translation

    O learned persons, put into blazing fire, with butter, this oblation, full of substances which cure painful diseases. Remove from afar demons, O God, afflict not the inmates of our houses.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अन्तर्दावे) दुन्योरनुपसर्गे। पा० ३।१।१४२। इति टुदु उपतापे−ण। अन्तः शत्रूणां हृदयस्य तापे (जुहुत) प्रक्षिपत (सु) सुष्ठु (एतत्) (यातुधानक्षयणम्) पीडाप्रदानां नाशकर्म (घृतेन) विद्यादिप्रकाशेन (आरात्) दूरे कृत्वा (रक्षांसि) राक्षसान्। रोगान् (प्रति दह) सर्वथा भस्मसात् कुरु (त्वम्) (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् (न) निषेधे (नः) अस्माकम् (गृहाणाम्) निवासानाम् (उप) हीने (तीतपासि) यङ्लुकि छान्दसं रूपम्। भृशं तापकरो भव ॥

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