अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
यस्ये॒दमा रजो॒ युज॑स्तु॒जे जना॒ वनं॒ स्वः॑। इन्द्र॑स्य॒ रन्त्यं॑ बृ॒हत् ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । इ॒दम् । आ । रज॑: । युज॑: । तु॒जे । जना॑:। वन॑म् । स्व᳡: । इन्द्र॑स्य । रन्त्य॑म् । बृ॒हत् ॥३३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्येदमा रजो युजस्तुजे जना वनं स्वः। इन्द्रस्य रन्त्यं बृहत् ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । इदम् । आ । रज: । युज: । तुजे । जना:। वनम् । स्व: । इन्द्रस्य । रन्त्यम् । बृहत् ॥३३.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सर्व लक्ष्मी पाने को उपदेश।
पदार्थ
(यस्य) जिस (युजः) संयोग करनेवाले परमेश्वर के (तुजे) बल में (इदम्) यह (रजः) तोक, (जनाः) सब मनुष्य, (वनम्) जल (आ) और (स्वः) सूर्य्य है, (इन्द्रस्य) उस बड़े ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर का (रन्त्यम्) क्रीड़ा स्थान (बृहत्) बड़ा है ॥१॥
भावार्थ
जिस परमात्मा की शक्ति में यह सब संसार है, उसकी महिमा मनुष्य की समझ से बाहर है ॥१॥
टिप्पणी
१−(यस्य) (इदम्) पुरोगतम् (आ) चार्थे (रजः) लोकः (युजः) ऋत्विग्दधृक्। पा० ३।२।५९। इति युजिर् योगे−क्विन्। संयोजकस्य परमेश्वरस्य (तुजे) तुज चुरा० बले−क। बले (जनाः) मनुष्याः (वनम्) उदकम्−निघ० १।१२। (स्वः) अ० २।५।२। सु+ऋ गतौ−विच्। सूर्यः। आदित्यः (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवत परमात्मनः (रन्त्यम्) क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। पा० ३।३।१७४। इति रमु क्रीडायाम् क्तिच्। न क्तिचि दीर्घश्च। पा० ६।४।३९। इति अनुनासिकलोपदीर्घयोरभावः। तत्र भवः पा० ४।३।५३। इति यत्। क्रीडाभवं रमणस्थानम् (बृहत्) महत् ॥
विषय
वनं 'स्व'
पदार्थ
१. (यस्य इन्द्रस्य) = जिस सर्वशक्तिमान् शत्रुविद्राक प्रभु की (रज:) = रञ्जक ज्योति (तुजे) = शत्रुओं के हिंसन के लिए (आयुजः) = [आयोजयति] हमें सन्नद्ध करती है-जिसके तेज से हम शत्रु संहार करने में समर्थ होते हैं, उस इन्द्र का (इदं स्व:) = यह निरतिशय सुख-साधक तेज, हे (जना:) = लोगो! (रन्त्यम्) = रमणीय है, (बृहत्) = परिवृद-बढ़ा हुआ है, (वनम्) = वननीय [सेवनीय] है।
भावार्थ
प्रभु की उपासना से हम प्रभु के रमणीय तेज को धारण करें। प्रभु के तेज से तेजस्वी होकर हम शत्रु-संहार में समर्थ हों।
भाषार्थ
(जनाः) हे प्रजाजनो! (आयुजः) सर्वत्र ब्रह्माण्ड में योजनाओं वाले (यस्य) जिस इन्द्र अर्थात् परमेश्वर्यवान् परमेश्वर का ( इदम् ) यह ( रज:) मनोरञ्जक पृथिवीमण्डल है, उसी (इन्द्रस्य) परमेश्वर का (रन्त्यम) रमणीय (बृहत्) महत् ब्रह्माण्ड है। उस का, (तुजे) ईर्ष्या आदि की हिंसा के लिये, (स्वः) सुख स्वरूप (वनम्) याचनीय है, प्रार्थनीय है।
टिप्पणी
[ब्रह्माण्ड में सर्वत्र परमेश्वर की योजनाएं प्रतीत होती हैं। योजनाएं बुद्धि पूर्वक होती हैं, और उन में क्रम विशेष और पारस्परिक समन्वय होता है। ईर्ष्या आदि के विनाश के लिये परमेश्वर के सुख स्वरूप की याचना करनी चाहिये। तुजे= तुज हिंसायाम् (भ्वादिः)]।
विषय
इन्द्र, परमेश्वर की महिमा।
भावार्थ
ईश्वर का वर्णन करते हैं—हे जनाः (यस्य) जिसका (इदम्) यह (रजः) समस्त अनुरञ्जन करने वाला वैभव (युजः) योगसमाधि में उसके साथ मिलने वाले योगी के (आ तुजे*) सब ओर से पालन, रक्षा या बल सम्पादन करने के लिये है और जिस परमेश्वर का (वनं स्वः) भजन करना ही परम सुखकारक है उस (इन्द्रस्य) परमेश्वर का (रन्त्यम्) यह रमण करने योग्य धन-ऐश्वर्य (बृहत्) बड़ा भारी है।
टिप्पणी
‘आ रजो युजस्तुजे जने वनं स्वः’ इति साम। तुज हिंसायाम् पालने च। भ्वादिः। तुजि हिंसाबलादाननिकेतनेषु। चुरादिः। पट पुटि लुट तुजि मिज्यादयो भाषार्थाः। चुरादिः॥ इत्येतेभ्यः सम्पदादिभलक्षणो भावे क्विप्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
जाटिकायन ऋषि। इन्द्रो देवता । १,३ गायत्री, २ अनुष्टुप। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Power of Indra
Meaning
O men and women of the world, boundless, beautiful and ecstatic is the glory of Indra, friend and commander of all in union, in whose power and dominion abides this world of existence, the earth, the greenery, the waters and the heaven of freedom and joy.
Subject
Indrah
Translation
Whose this pleasing force is mobilized for destruction of enemies, O men, worship the great and beautiful light of the resplendent Lord.
Translation
Tremendously extensive is working field of the Almighty Divinity under whose control remain controlled this earth, people, water and the space.
Translation
Mighty is the beautiful power of God, under Whose control lie, the solar system, all human beings, the Earth and Sun.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यस्य) (इदम्) पुरोगतम् (आ) चार्थे (रजः) लोकः (युजः) ऋत्विग्दधृक्। पा० ३।२।५९। इति युजिर् योगे−क्विन्। संयोजकस्य परमेश्वरस्य (तुजे) तुज चुरा० बले−क। बले (जनाः) मनुष्याः (वनम्) उदकम्−निघ० १।१२। (स्वः) अ० २।५।२। सु+ऋ गतौ−विच्। सूर्यः। आदित्यः (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवत परमात्मनः (रन्त्यम्) क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। पा० ३।३।१७४। इति रमु क्रीडायाम् क्तिच्। न क्तिचि दीर्घश्च। पा० ६।४।३९। इति अनुनासिकलोपदीर्घयोरभावः। तत्र भवः पा० ४।३।५३। इति यत्। क्रीडाभवं रमणस्थानम् (बृहत्) महत् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal