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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
    ऋषिः - चातन देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    1

    प्राग्नये॒ वाच॑मीरय वृष॒भाय॑ क्षिती॒नाम्। स नः॑ पर्ष॒दति॒ द्विषः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । अ॒ग्नये॑ । वाच॑म् । ई॒र॒य॒ । वृ॒ष॒भाय॑ । क्षि॒ती॒नाम् । स: । न॒: । प॒र्ष॒त् । अति॑ । द्विष॑: ॥३४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राग्नये वाचमीरय वृषभाय क्षितीनाम्। स नः पर्षदति द्विषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । अग्नये । वाचम् । ईरय । वृषभाय । क्षितीनाम् । स: । न: । पर्षत् । अति । द्विष: ॥३४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 34; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वान् !] (क्षितीनाम्) पृथिवी आदि लोकों के बीच (वृषभाय) महाबली (अग्नये) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर के लिये (वाचम्) वाणी (प्र ईरय) अच्छे प्रकार उच्चारण कर, (सः) वह (द्विषः) वैरियों को (अति=अतीत्य) उलाँघ कर (नः) हमें (पर्षत्) पाले ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर की स्तुतिपूर्वक पुरुषार्थ करके दरिद्रता आदि दुःखों को हटावें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अग्नये) ज्ञानस्वरूपाय परमेश्वराय (वाचम्) वाणीम्। स्तुतिम् (प्र ईरय) उच्चारय (वृषभाय) अ० ४।५।१। बलिष्ठाय (क्षितीनाम्) वसेस्तिः। उ० ४।१८०। क्षि निवासगत्योः−ति। क्षितिः। पृथिवीनाम−निघ० १।१। पृथिव्यादिलोकानां मध्ये (सः) अग्निः (नः) अस्मान् (पर्षत्) पॄ पालनपूरणयोः−लेटि अडागमः। सिब् बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। इति सिप्। पालयेत्। पूर्णान् कुर्य्यात् ॥

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    विषय

    स नः पर्षद् अति द्विष

    पदार्थ

    १.हे स्तोत:! (अग्नये) = राक्षसीवृत्तियों को भस्म करनेवाले अग्रणी प्रभु के लिए (वाचम् ईरयः) = स्तुतिलक्षण वाणी को प्रकर्षेण प्रेरित कर। उस प्रभु के लिए जो (क्षितीनाम्) = मनुष्यों के लिए (वृषभाय) = सब शुभ काम्य पदार्थों का वर्षण करनेवाले हैं। २. (सः) = वे प्रभु (न:) = हमें (द्विषः) = द्वेष की सब भावनाओं से (अतिपर्षत) = पार ले-जाएँ।

    भावार्थ

    हम प्रभु का स्मरण करें। वे प्रभु ही हमें आगे ले-चलनेवाले तथा सब शुभ पदार्थों को प्राप्त करानेवाले है। यह प्रभु-स्मरण हमें द्वेष की भावनाओं से पार करेगा।

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    भाषार्थ

    हे मनुष्य ! (क्षितीनाम्) प्रजाजनों पर (वृषभाय) सुखों की वर्षा करने वाले, (अग्नये) सर्वाग्रणी परमेश्वर के लिये (वाचम्) स्तुति ववन ( प्र ईरय) प्रेरित किया कर, (सः ) वह परमेश्वर (द्विष:) द्वेष भावनाओं [के नर] से (नः अति पर्षत्) हमें पार करे अथवा द्वेष भावनाओं से हटा कर हमें परिपालित करे।

    टिप्पणी

    [क्षितीनाम् =क्षितयः मनुष्यनाम (निघं० २।३) पर्षत्= पॄ पालनपूरणयोः (जुहोत्यादिः), पॄ लेटि अडागम: सिय् च]।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुष ! (क्षितीनां) समस्त भूमियों पर जलों की वर्षा करनेहारे मेघ के समान (क्षितीनाम्) समस्त प्रजाओं पर (वृषभाय) सुखों की वर्षा करनेहारे (अग्नये) उस ज्ञानवान् सबके पथदर्शक, गुरु अग्रणी परमेश्वर की स्तुति के लिये (वाचं प्र ईरय) अपनी वाणी को प्रेरित कर (सः) वही ईश्वर (नः) हमें (द्विषः) भीतरी शत्रु काम आदि प्रबल दुर्भावों के (अति पर्षत्) पार पहुंचा दे।

    टिप्पणी

    ऋग्वेदे अस्य सूक्तस्य वत्स आग्नेय ऋषिः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। अग्निर्देवता। १-५ गायत्र्यः पंचर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Splendour of Divinity

    Meaning

    Raise your voice of prayer and adoration in honour of Agni, potent and generous lord ruler and sustainer of the people and worlds of existence, who may, we pray, shower us with wealth, honour and excellence beyond the reach of hate, jealousy and enmity.

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    Subject

    Agnih

    Translation

    Direct your speech to the adorable Lord, showerer of bounties on these worlds. May He get us past our enemies well-protected

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    Translation

    O learned man! send forth your voice in the praise of Agni, the Self-effulgent God who is mightiest protector of men, May He remove our internal enemies greed, aversion etc.

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    Translation

    O learned person, sing the praise of God, Most Powerful of all men. May He bear us past our foes!

    Footnote

    Foes: Internal foes like. lust, avarice, anger, pride etc.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अग्नये) ज्ञानस्वरूपाय परमेश्वराय (वाचम्) वाणीम्। स्तुतिम् (प्र ईरय) उच्चारय (वृषभाय) अ० ४।५।१। बलिष्ठाय (क्षितीनाम्) वसेस्तिः। उ० ४।१८०। क्षि निवासगत्योः−ति। क्षितिः। पृथिवीनाम−निघ० १।१। पृथिव्यादिलोकानां मध्ये (सः) अग्निः (नः) अस्मान् (पर्षत्) पॄ पालनपूरणयोः−लेटि अडागमः। सिब् बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। इति सिप्। पालयेत्। पूर्णान् कुर्य्यात् ॥

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