अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 4
यो विश्वा॒भि वि॒पश्य॑ति॒ भुव॑ना॒ सं च॒ पश्य॑ति। स नः॑ पर्ष॒दति॒ द्विषः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । विश्वा॑ । अ॒भि । वि॒ऽपश्य॑ति । भुव॑ना । सम् । च॒ । पश्य॑ति । स: । न॒: । प॒र्ष॒त् । अति॑। द्विष॑: ॥३४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यो विश्वाभि विपश्यति भुवना सं च पश्यति। स नः पर्षदति द्विषः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । विश्वा । अभि । विऽपश्यति । भुवना । सम् । च । पश्यति । स: । न: । पर्षत् । अति। द्विष: ॥३४.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रुओं के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो परमेश्वर (विश्वा) सब (भुवना) भुवनों को (अभि) चारों ओर से (विपश्यति) अलग-अलग देखता है (च) और (सम् पश्यति) मिले हुए देखता है। (सः) वह (द्विषः) वैरियों को (अति) उलाँघ कर (नः) हमें (पर्षत्) भरपूर करे ॥४॥
भावार्थ
परमेश्वर सब लोकों और पदार्थों को व्यस्त और समस्त रूप से देखकर उनकी सुधि रखता है ॥४॥
टिप्पणी
४−(यः) परमेश्वरः (विश्वा) सर्वाणि (अभि) सर्वतः (विपश्यति) पृथक् पृथगवलोकयति (भुवना) भुवनानि (च) (सम् पश्यति) संगतानि निरीक्षते ॥
विषय
प्रभु की तीव्र ज्ञान-ज्योति में द्वेषान्धकार का विलय
पदार्थ
१. (य:) = जो (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (तिग्मेन शोचिषा) = बड़ी तीव्र ज्ञानदीसि से रक्षांसि (निजूर्वति) = राक्षसीवृत्तियों को नष्ट करते है, २. (यः) = जो प्रभु (परस्याः परावतः) = अत्यन्त दूर देश से (धन्य तिर:) = [धन्व-अन्तरिक्ष-नि०१.३] अन्तरिक्ष को भी पार करके (अतिरोचते) = अतिशयेन देदीप्यमान है, ३. (य:) = जो प्रभु (विश्वा भुवना) = सब प्राणियों व लोकों को (अभि-विपश्यति) = आभिमुख्येन अलग-अलग देखता है (च) = तथा (संपश्यति) = मिलकर देखता है, अर्थात् वे प्रभु एक-एक प्राणी का अलग-अलग भी रक्षण करते हैं और समूहरूप में भी रक्षण करते हैं। ४, (य:) = जो (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (अस्य रजस: पारे) = इस लोकसमूह से परे (शुक्रः अजायत) = देदीप्यमान शुद्धस्वरूप में प्रादुर्भूत हो रहे हैं ('पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि'), (सः) = वे प्रभु (नः) = हमें (द्विषः अतिपर्षत्) = द्वेष की सब भावनाओं से पार करें।
भावार्थ
हम प्रभु का स्मरण करें, सर्वत्र प्रभु की ज्योति को देखें, उसे ही सबका पालक जानें, उसे ही इस ब्रह्माण्ड से परे शुद्ध ज्योति के रूप में सोचें। यह स्मरण हमें देष की भावनाओं से ऊपर उठाएगा।
विशेष
द्वेष से ऊपर उठकर प्रभु का आलिङ्गन करनेवाला यह कौशिक' बनता है [कुश संश्लेषे]। यही अगले सूक्त का ऋषि है।
भाषार्थ
(यः) जो सर्वाग्रणी परमेश्वर (विश्वा भुवना= विश्वानि भुवनानि) सब भुवनों को (अभि वि पश्यति) साक्षात् एक-एक करके देखता है, (च ) और (सपश्यति) एक दृष्टि में सब को युगपत् देखता है। (सः) वह पूर्व वत् (मन्त्र १) ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना।
भावार्थ
(यः) जो (विश्वा भुवना) समस्त लोकों को (अभि विपश्यति) साक्षात् देख रहा है (सं पश्यति च) और खूब अच्छी तरह से देखता है (सः) वह (नः) हमें (द्विषः अतिपर्षत्) शत्रुओं से पार करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। अग्निर्देवता। १-५ गायत्र्यः पंचर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Splendour of Divinity
Meaning
He that watches and overwatches all regions of the universe in and out, over and above, completely, may, we pray, bless us with wealth, virtue and excellence beyond the reach of all jealousy, hate and enmity.
Translation
Who looks towards all carefully and who observes all the beings at a time, may He get us past our enemies well protected.
Translation
He is the Master of all who beholds all the worlds and observe carefully all the creatures. May remove our internal enemies— greed, aversion etc.
Translation
May God, Who beholds all creatures, Who beholds them with a careful eye, transport us past our foes.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(यः) परमेश्वरः (विश्वा) सर्वाणि (अभि) सर्वतः (विपश्यति) पृथक् पृथगवलोकयति (भुवना) भुवनानि (च) (सम् पश्यति) संगतानि निरीक्षते ॥
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