अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 5
यो अ॒स्य पा॒रे रज॑सः शु॒क्रो अ॒ग्निरजा॑यत। स नः॑ पर्ष॒दति॒ द्विषः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्य । पा॒रे । रज॑स: । शु॒क्र: । अ॒ग्नि: । अजा॑यत । स: । न॒: । प॒र्ष॒त् । अति॑ । द्विष॑: ॥३४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अस्य पारे रजसः शुक्रो अग्निरजायत। स नः पर्षदति द्विषः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्य । पारे । रजस: । शुक्र: । अग्नि: । अजायत । स: । न: । पर्षत् । अति । द्विष: ॥३४.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रुओं के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (शुक्रः) शुद्ध स्वभाव (अग्निः) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर (अस्य) इस (रजसः) अन्तरिक्ष के (पारे) पार (अजायत) प्रकट हुआ है। (सः) वह (द्विषः) वैरियों को (अति) उलाँघ कर (नः) हमें (पर्षत्) भरपूर करे ॥५॥
भावार्थ
परमेश्वर प्रत्येक स्थान में व्यापक रहकर हमारी रक्षा करता है ॥५॥
टिप्पणी
५−(यः) परमेश्वरः (अस्य) प्रत्यक्षस्य (पारे) अन्ते (रजसः) अन्तरिक्षलोकस्य−निघ० १।७। (शुक्रः) शुद्धस्वभावः (अजायत) प्रादुरभवत्। अन्यत्पूर्ववत् ॥
विषय
प्रभु की तीव्र ज्ञान-ज्योति में द्वेषान्धकार का विलय
पदार्थ
१. (य:) = जो (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (तिग्मेन शोचिषा) = बड़ी तीव्र ज्ञानदीसि से रक्षांसि (निजूर्वति) = राक्षसीवृत्तियों को नष्ट करते है, २. (यः) = जो प्रभु (परस्याः परावतः) = अत्यन्त दूर देश से (धन्य तिर:) = [धन्व-अन्तरिक्ष-नि०१.३] अन्तरिक्ष को भी पार करके (अतिरोचते) = अतिशयेन देदीप्यमान है, ३. (य:) = जो प्रभु (विश्वा भुवना) = सब प्राणियों व लोकों को (अभि-विपश्यति) = आभिमुख्येन अलग-अलग देखता है (च) = तथा (संपश्यति) = मिलकर देखता है, अर्थात् वे प्रभु एक-एक प्राणी का अलग-अलग भी रक्षण करते हैं और समूहरूप में भी रक्षण करते हैं। ४, (य:) = जो (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (अस्य रजस: पारे) = इस लोकसमूह से परे (शुक्रः अजायत) = देदीप्यमान शुद्धस्वरूप में प्रादुर्भूत हो रहे हैं ('पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि'), (सः) = वे प्रभु (नः) = हमें (द्विषः अतिपर्षत्) = द्वेष की सब भावनाओं से पार करें।
भावार्थ
हम प्रभु का स्मरण करें, सर्वत्र प्रभु की ज्योति को देखें, उसे ही सबका पालक जानें, उसे ही इस ब्रह्माण्ड से परे शुद्ध ज्योति के रूप में सोचें। यह स्मरण हमें देष की भावनाओं से ऊपर उठाएगा।
विशेष
द्वेष से ऊपर उठकर प्रभु का आलिङ्गन करनेवाला यह कौशिक' बनता है [कुश संश्लेषे]। यही अगले सूक्त का ऋषि है।
भाषार्थ
(यः) जो (अग्निः) सर्वग्रणी परमेश्वर ( अस्य रजसः) इस रञ्जक ब्रह्माण्ड से (पारे१) पार (शुक्रः) चमकीले रूप में (अजायत ) प्रकट होता है (स:) वह, पूर्ववत् ( मन्त्र १) ।
टिप्पणी
[रजस:= रञ्जक, मनोरव्जक, मनोहर । शुक्र२ = "सः पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणम्" (यजु० ४०।८)। तथा परमेश्वर रजोगुण से परे अर्थात् सात्विक चित्त में प्रकट होता है, - यह भाव भी सूचित होता है]। [१. यथा “पादोऽस्य विश्वा भूतानि। त्रिपादस्यामृतं दिवि" (यजु० ३१।३)। तथा "पादोऽस्येहाभवत् पृनः" (यजु० ३१।४) । २. "तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म ता आपः स प्रजापति:" (यजु० ३२।१) ।]
विषय
परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना।
भावार्थ
(यः) जो (शुक्रः) ज्योतिःस्वरूप (अस्य) इस समस्त (रजसः पारे) रजः अर्थात् लोक समूह के पार या रजोनिर्मित प्राकृत संसार से परे (अग्निः*) ज्ञानमय उसमें लीन होनेवाला (अजायत) विद्यमान है (सः नः) वह हमें (द्विषः) द्वेष = अप्रीति के पदार्थ-कर्म-बन्धनों अर्थात् सकाम कर्मों के बन्धनों से (अति पर्षत्) पार करे, मुक्त करे।
टिप्पणी
*अग्निः अक्रोपनो भवति (निरु०)।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। अग्निर्देवता। १-५ गायत्र्यः पंचर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Splendour of Divinity
Meaning
That Agni, self refulgent, pure and immaculate, who manifests beyond the spaces of the universe may, we pray, bless us with the wealth of purity and excellence beyond the reach of all hate, jealousy and enmity.
Translation
Who, the bright fire, appears beyond this firmament, may He get us past our enemies well-protected.
Translation
It is the Self-effulgent God who is shining as powerful glamour within and beyond the region of firmament, May He remove our internal enemies—greed, aversion, etc.
Translation
May that Refulgent God, Who exists even beyond this region of the air transport us past our foes.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(यः) परमेश्वरः (अस्य) प्रत्यक्षस्य (पारे) अन्ते (रजसः) अन्तरिक्षलोकस्य−निघ० १।७। (शुक्रः) शुद्धस्वभावः (अजायत) प्रादुरभवत्। अन्यत्पूर्ववत् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal