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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कौशिक देवता - वैश्वानरः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - वैश्वनार सूक्त
    1

    वै॑श्वान॒रो न॑ ऊ॒तय॒ आ प्र या॑तु परा॒वतः॑। अ॒ग्निर्नः॑ सुष्टु॒तीरुप॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वै॒श्वा॒न॒र: । न॒:। ऊ॒तये॑ । आ । प्र । या॒तु॒ । प॒रा॒ऽवत॑: । अ॒ग्नि: । न॒: । सु॒ऽस्तु॒ती: । उप॑ ॥३५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैश्वानरो न ऊतय आ प्र यातु परावतः। अग्निर्नः सुष्टुतीरुप ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वैश्वानर: । न:। ऊतये । आ । प्र । यातु । पराऽवत: । अग्नि: । न: । सुऽस्तुती: । उप ॥३५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 35; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    यश की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (वैश्वानरः) सब नरों का हितकारक परमेश्वर (नः) हमारी (ऊतये) रक्षा के लिये (परावतः) दूर वा उत्कृष्ट स्थान से (आ) सन्मुख (प्रयातु) आवे। (अग्निः) सर्वव्यापक परमेश्वर (नः) हमारी (सुष्टुतीः) यथाशास्त्र स्तुतियों को (उप=उपयातु) प्राप्त हो ॥१॥

    भावार्थ

    हम सर्वान्तर्यामी परमेश्वर की महिमा जानकर उसकी स्तुति करते रहें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(वैश्वानरः) अ० १।१०।४। सर्वनरहितः (नः) अस्माकम् (ऊतये) रक्षायै (आ) अभिमुखम् (प्र) प्रकर्षेण (यातु) गच्छतु (परावतः) अ० ३।४।५। परागतात् उत्कर्षं प्राप्ताद् दूरगतात् स्थानाद् वा (अग्निः) सर्वव्यापकः (नः) अस्माकम् (सुष्टुतीः) यथाशास्त्रं स्तवान् (उप) उपयात ॥

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    विषय

    वैश्वानर-स्तवन

    पदार्थ

    १. (वैश्वानरः) = सब मनुष्यों का हित करनेवाला प्रभु (न:) = हमारे (ऊतये) = रक्षण के लिए (परावतः) = सुदूर देश से (आ प्रयातु) = आभिमुख्येन प्राप्त हो। हम प्रभु के सान्निध्य में अपने को पूर्ण सुरक्षित समझें। २. (अग्नि:) = वह अग्रणी प्रभु (न:) = हमारी (सुस्तुती: उप) = शोभन स्तुतियों को समीपता से स्वीकार करें।

    भावार्थ

    हम प्रभु-स्तवन करते हुए, प्रभु के सान्निध्य में अपने को पूर्णतया सुरक्षित जानें।

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    भाषार्थ

    (वैश्वानरः) सव नर-नारियों का हितकारी (अग्निः) जगदग्रणी परमेश्वर, (नः ऊतये) हमारी रक्षा के लिये, (नः) हमारी (सुष्टुतीः) उत्तम अर्थात् भक्तिभरी स्तुतिओं के (उप) समीप, (परावतः) दूर से भी ( आ प्र यातु) शीघ्र हमारे अभिमुख आ जाय, प्रकट हो जाय।

    टिप्पणी

    [गत सूक्त ३४ के प्रकरणानुकूल आध्यात्मिक अर्थ किया है । परमेश्वर सर्वव्यापक है, परन्तु अदृष्ट होने से वह हम से दूर है, अतः परावत् है। भक्तिभरी स्तुतियों द्वारा उस से "उप" द्वारा सामीप्य की प्रार्थना की गई है। अग्निरग्रणीर्भवति (निरुक्त ७।४।१४)]।

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    विषय

    ईश्वर स्तुति, प्रार्थना

    भावार्थ

    (वैश्वानरः) समस्त मनुष्यों का कल्याणकारी, समस्त आत्माओं में व्यापक या सब पदार्थों का नेता प्रभु (नः ऊतये) हमारी रक्षा के लिए (परावतः) दूर देश से भी (आ प्र यातु) आवे। अर्थात् चाहे जितनी भी दूर हो तब भी वह हमारी रक्षा करे। वही (अग्निः) ज्ञानप्रकाशस्वरूप होकर (नः) हमारी (सु स्तुतीः) उत्तम स्तुतियों को (उप) स्वीकार करे।

    टिप्पणी

    (तृ०) अग्निरुक्थेन वाहसा इति यजु० १७/८॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कौशिक ऋषिः। वैश्वानरा देवता। गायत्रं छन्दः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Life of Life

    Meaning

    May Agni, life of the life of humanity, come from the highest heavens of light and listen and inspire our songs of adoration and prayer.

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    Subject

    Vaisvanara : Cosmic Man

    Translation

    May the adorable Lord, benefactor of all men, come from afar for our succour and listen to our nice praises.

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    Translation

    The All—leading Lord may come to succor us be we far in remode distance from Him due to our ignorance, May the Self-effulgent Divinity accept our eulogies.

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    Translation

    Forth from the distance far away, may God, the Benefactor of humanity, come to succor us. May God accept our eulogies.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(वैश्वानरः) अ० १।१०।४। सर्वनरहितः (नः) अस्माकम् (ऊतये) रक्षायै (आ) अभिमुखम् (प्र) प्रकर्षेण (यातु) गच्छतु (परावतः) अ० ३।४।५। परागतात् उत्कर्षं प्राप्ताद् दूरगतात् स्थानाद् वा (अग्निः) सर्वव्यापकः (नः) अस्माकम् (सुष्टुतीः) यथाशास्त्रं स्तवान् (उप) उपयात ॥

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