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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - वैश्वनार सूक्त
    1

    ऋ॒तावा॑नं वैश्वान॒रमृ॒तस्य॒ ज्योति॑ष॒स्पति॑म्। अज॑स्रं घ॒र्ममी॑महे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तऽवा॑नम् । वै॒श्वा॒न॒रम्। ऋ॒तस्य॑ । ज्योति॑ष: । पति॑म् । अज॑स्रम्। घ॒र्मम् । ई॒म॒हे॒ ॥३६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतावानं वैश्वानरमृतस्य ज्योतिषस्पतिम्। अजस्रं घर्ममीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतऽवानम् । वैश्वानरम्। ऋतस्य । ज्योतिष: । पतिम् । अजस्रम्। घर्मम् । ईमहे ॥३६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (ऋतावानम्) सत्यमय, (ऋतस्य) धन के और (ज्योतिषः) प्रकाश के (पतिम्) पति (वैश्वानरम्) सब के नायक परमेश्वर से (अजस्रम्) निरन्तर (घर्म्मम्) प्रकाश को (ईमहे) हम माँगते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य सत्यमय ज्योतिःस्वरूप परमात्मा से प्रार्थनापूर्वक विद्या का प्रकाश प्राप्त करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(ऋतावानम्) छन्दसीवनिपौ च। वा० पा० ५।२।१०९। इति मत्वर्थे−वनिप्। सत्यमयम् (वैश्वानरम्) सर्वस्य नायकम् (ऋतस्य) धनस्य−निघ० २।१०। (ज्योतिषः) प्रकाशस्य (पतिम्) स्वामिनम् (अजस्रम्) सततम् (घर्म्मम्) अ० ४।१।२। प्रकाशम् (ईमहे) ईङ् गतौ, श्यनो लुक् द्विकर्मकः, याचामहे−निघ० ३।१९ ॥

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    विषय

    अजस्त्र घर्मम्

    पदार्थ

    १. (ऋतावानम्) = प्रशस्त यज्ञोंवाले [ऋत-यज्ञ], (वैश्वानरम्) = सब मनुष्यों के हितकारी, (ऋतस्य) = [Right] नियमितता के व (ज्योतिष:) = ज्ञानज्योति के (पतिम) = रक्षक प्रभु से (अजस्त्र घर्मम्) = हमें न छोड़ जानेवाले-सदा हमारे साथ रहनेवाले तेज को (ईमहे) = माँगते हैं। वस्तुत: इस 'अजस्त्र धर्म' की प्राप्ति का उपाय यही है कि हम भी 'यज्ञशील, सब मनुष्यों के हित में प्रवृत्त तथा भौतिक क्रियाओं में सूर्य-चन्द्र की भाँति नियमिततावाले तथा ज्ञान की रुचिवाले' बनें। ऐसा बनने पर ही शरीर में शक्ति का रक्षण होता है और हमें 'अजस्त्र धर्म' की प्राप्ति होती है।

    भावार्थ

    हम उस प्रभु का स्मरण करें जो यज्ञरूप हैं, सबका हित करनेवाले हैं, लोक लोकान्तरों को नियमितता से ले-चल रहे हैं, ज्ञान के पति हैं। इसप्रकार प्रभु-स्मरण करते हुए हम 'अक्षीण शक्ति' को प्राप्त करें।

     

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    भाषार्थ

    (ऋतावानम्) सत्यस्वरूप, (ऋतस्य ज्योतिषः) सत्यरूप ज्योति के (पतिम्) स्वामी, (अजस्रम्) अविनाशी, (धर्मम्) प्रकाश स्वरूप (वैश्वानरम् ) सब नर-नारियों के हितकारी या विश्व के नेता परमेश्वर से (ईमहे) हम सदा याचना करते हैं ।

    टिप्पणी

    [ऋतावानम् = ऋतम् सत्यनाम (निघं० ३।१०) + वनिप् (मत्वर्थे)। अजस्रम् = अ+जसु हिंसा (चुरादिः) । घर्मम्= घृ दीप्तौ (जुहोत्यादिः), तथा "घर्मम् दोप्यमानम्" (सायण)। ईमहे याच्ञाकर्मा (निघं० ३।१९)] ।

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    विषय

    ईश्वर की प्रार्थना

    भावार्थ

    (ऋतावानम्) सत्यज्ञानवान् (ऋतस्य ज्योतिषः पतिम्) जीवनमय ज्योति अर्थात् चेतना के परिपालक (अजस्रम्) निरन्तर विद्यमान अर्थात् नित्य (धर्मं) प्रकाशस्वरूप (वैश्वानरम्) परमेश्वर की (ईमहे) हम नित्य प्रार्थना करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    स्वस्त्ययनकाम अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। गायत्रं छन्दः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Sole Spirit of Life

    Meaning

    The Lord Supreme, ordainer and sustainer of the truth and reality of existence, leading light of humanity, protector and promoter of the light of law and yajnic evolution of natural and human karma, eternal and unaging spirit and passion of life for creative action, we invoke, adore and exalt in yajna.

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    Subject

    Agnih

    Translation

    We pray to the benefactor of all men, the righteous (rtavana), the lord of the light of eternal law blazing ceaselessly.

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    Translation

    We over pray the Self-refulgent All-leading Lord who is the possessor of all wae knowledge, up-holder of the laws eternal and the master of all illuminating objects.

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    Translation

    We incessantly, pray to God, the Embodiment of truth, the Benefactor of humanity, the Lord of wealth and light, the Master of refulgence.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(ऋतावानम्) छन्दसीवनिपौ च। वा० पा० ५।२।१०९। इति मत्वर्थे−वनिप्। सत्यमयम् (वैश्वानरम्) सर्वस्य नायकम् (ऋतस्य) धनस्य−निघ० २।१०। (ज्योतिषः) प्रकाशस्य (पतिम्) स्वामिनम् (अजस्रम्) सततम् (घर्म्मम्) अ० ४।१।२। प्रकाशम् (ईमहे) ईङ् गतौ, श्यनो लुक् द्विकर्मकः, याचामहे−निघ० ३।१९ ॥

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