अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 39/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - बृहस्पतिः, त्विषिः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - वर्चस्य सूक्त
1
यशो॑ ह॒विर्व॑र्धता॒मिन्द्र॑जूतं स॒हस्र॑वीर्यं॒ सुभृ॑तं॒ सह॑स्कृतम्। प्र॒सर्स्रा॑ण॒मनु॑ दी॒र्घाय॒ चक्ष॑से ह॒विष्म॑न्तं मा वर्धय ज्ये॒ष्ठता॑तये ॥
स्वर सहित पद पाठयश॑: । ह॒वि: । व॒र्ध॒ता॒म् । इन्द्र॑ऽजूतम् । स॒हस्र॑ऽवीर्यम् । सुऽभृ॑तम् । सह॑:ऽकृतम् । प्र॒ऽसर्स्रा॑णम् ।अनु॑ । दी॒र्घाय॑ । चक्ष॑से ।ह॒विष्म॑न्तम् । मा॒ । व॒र्ध॒य॒ । ज्ये॒ष्ठऽता॑तये ॥३९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यशो हविर्वर्धतामिन्द्रजूतं सहस्रवीर्यं सुभृतं सहस्कृतम्। प्रसर्स्राणमनु दीर्घाय चक्षसे हविष्मन्तं मा वर्धय ज्येष्ठतातये ॥
स्वर रहित पद पाठयश: । हवि: । वर्धताम् । इन्द्रऽजूतम् । सहस्रऽवीर्यम् । सुऽभृतम् । सह:ऽकृतम् । प्रऽसर्स्राणम् ।अनु । दीर्घाय । चक्षसे ।हविष्मन्तम् । मा । वर्धय । ज्येष्ठऽतातये ॥३९.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
यश पाने का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रजूतम्) परमेश्वर का भेजा हुआ (सहस्रवीर्यम्) सहस्रों सामर्थ्यवाला (सुभृतम्) अच्छे प्रकार भरा गया (सहस्कृतम्) पराक्रम से किया गया (यशः) यश और (हविः) अन्न (वर्धताम्) बढ़े। [हे परमेश्वर !] (दीर्घाय) बड़े और (ज्येष्ठतातये) अत्यन्त प्रशंसनीय (चक्षसे) दर्शन के लिये (प्रसर्स्राणम्) आगे बढ़नेवाले और (हविष्मन्तम्) भक्तिवाले (मा) मुझको (अनु) निरन्तर (वर्धय) तू बढ़ा ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर की प्रार्थना करके पुरुषार्थपूर्वक संसार में कीर्ति और अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करे ॥१॥
टिप्पणी
१−(यशः) कीर्त्तिः (हविः) देवयोग्यान्नम् (वर्धताम्) समृध्यताम् (इन्द्रजूतम्) परमेश्वरेण प्रेरितम् (सहस्रवीर्यम्) बहुसामर्थ्ययुक्तम् (सुभृतम्) यथावत्पोषितम् (सहस्कृतम्) बलेन सम्पादितम् (प्रसर्स्राणम्) सृ गतौ−यङ्लुकि ताच्छील्ये चानश्। अतिप्रसरणशीलम्। उद्योगिनम् (अनु) पश्चात्। निरन्तरम् (दीर्घाय) प्रवृद्धाय (चक्षसे) दर्शनाय (हविष्मन्तम्) भक्तिमन्तम् (मा) माम् (वर्धय) समर्धय (ज्येष्ठतातये) ज्येष्ठा प्रशस्ता तातिर्विस्तारो यस्य तस्मै। यद्वा। वृकज्येष्ठाभ्यां तिल्तातिलौ च च्छन्दसि। पा० ५।४।४१। इति प्रसशायां तातिल्। अतिविस्तारयुक्ताय। अत्यन्तप्रशंसनीयाय ॥
विषय
दीर्घजीवन व सर्वश्रेष्ठता
पदार्थ
१. (यश:) = यश की कारणभूत (हवि:) = दानपूर्वक अदन की वृत्ति (वर्धताम्) = हमारे जीवनों में वृद्धि प्राप्त करे । हम त्यागपूर्वक अदन-[खाने]-वाले बनें और इसप्रकार यशस्वी जीवनवाले हों। यह हवि (इन्द्रजूतम्) = प्रभु द्वारा प्रेरित की गई है-प्रभु ने त्यागपूर्वक अदन की प्रेरणा दी है। यह हवि (सहस्त्रवीर्यम्) = हमें अनन्त शक्ति प्राप्त कराती है, (सुभृतम्) = [शोभनं भृतं येन] यह हमारा उत्तम भरण करती है, (सहस्कृतम्) = बल के उद्देश्य से यह दी गई है-यह शत्रुओं का पराभव करानेवाला बल देती है। २. हे प्रभो! (अनु) = इस हवि के वर्धन के बाद (हविष्मन्तं मा) = प्रशस्त हविवाले मुझ (प्रसाणम्) = खूब गतिशील को (दीर्घाय चक्षसे) = चिरकालभावी दर्शन के लिए दीर्घजीवन के लिए तथा (ज्येष्ठतातये) = सर्वश्रेष्ठ्य के लिए (वर्धय) = बढ़ाइए। हवि को अपनाता हुआ मैं दीर्घजीवन और सर्वश्रेष्ठता को प्राप्त करूँ।
भावार्थ
प्रभु ने हमें त्यागपूर्वक अदन की प्रेरणा दी है। यह हवि ही हमारे दीर्घजीवन का कारण बनती है और हमें सर्वश्रेष्ठ बनाती है।
भाषार्थ
(यशः हवि:) यशःरूप हविः१ (वर्धताम्) बढ़े, (इन्द्रजूतम्) जो कि सम्राट् द्वारा प्रेरित है, ( सहस्रवीर्यम् ) हजारों वीरकर्मों द्वारा प्राप्त, (सुभृतम्) उत्तम विधि द्वारा धारित तथा परिपुष्ट, (सहस्कृतम् ) साहस द्वारा अर्जित है वह (दीर्घाय चक्षसे ) दीर्घ दृष्टि के लिए (अनु) निरन्तर (प्रसर्स्राणम्) प्रसरण शील हो। [हे इन्द्र सम्राट् !] (हविष्मन्तम् ) यशरूप हविवाले (मा) मुझ को (ज्येष्ठतातये) बड़े राज्य के विस्तार के लिये (वर्धय) तू बड़ा ।
टिप्पणी
[मन्त्र में इन्द्र अर्थात् सम्राट्, और वरुण अर्थात् माण्डलिक राजा के पारस्परिक सम्बन्ध का वर्णन हुआ है। "इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। सुभृतम्= सु + भृ (धारणपोषणयोः) + क्त। दीर्घाय चक्षसे =माण्डलिक राजा, निज राज्य में, नियमों का निर्माण आदि दीर्घ दृष्टि से करे, जो कि दीर्घ काल तक लागू हो सकें, इस से उसका यश फैलता है।] [१. यज्ञियाग्नि में आहुत हविः धूम्ररूप होकर, बढ़ कर, जैसे अन्तरिक्ष में प्रसूत हो जाती है, फैल जाती है, वैसे हमारा यश भी राज्य और साम्राज्य में बड़े, फैले।]
विषय
यश और बल की प्रार्थना।
भावार्थ
हमारा (सहः-कृतम्) बल और सहनशक्ति का बढ़ानेवाला (सुभृतम्) उत्तम रीति से हमारा धारण पोषण करनेवाला (सहस्रवीर्यम्) अनन्त सामर्थ्यो से युक्त (इन्द्र-जूतम्) ईश्वर से प्रदत्त या ईश्वर के निमित्त प्रेरित या राजा को अभिमत, हमारा (यशः) यश और (हविः) अन्न और बल (प्रसर्स्राणम्) खूब विस्तृत होकर (वर्धताम्) बढ़े। हे इन्द्र ! परमात्मन् ! (अनु) और फिर (हविष्मन्तं) अन्न समृद्धि से युक्त (मा) मुझ को (दीर्घाय चक्षसे) दीर्घदर्शी होने और (ज्येष्ठ-तातये) सब से बड़ा हो जाने के लिए (वर्धय) उन्नत कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वर्चस्कामोऽथर्वा ऋषिः। बृहस्पतिर्देवता। १ जगती, २ त्रिष्टुप्, ३ अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Honour and Excellence
Meaning
Let our yajna and our honour and fame increase Indra-inspired, thousandfold strong, well controlled, created and achieved through courage, confidence and patience. O Lord omnipotent, pray promote me, bearing havi in homage, prayerful and ambitious for advancement, raise me for a long life of vision and wisdom and bless me to rise to the highest position.
Subject
Brhaspatih
Translation
May my oblations, full of a thousand vigours, well-kept, - obtained by conquests, and offered to the resplendent lord, augment glory. May you raise me, who moves forward and offers oblations, to the highest rank and far-extended vision.
Translation
Let the glory and strength of us which is guarded by Almighty God, which is possessed of multifarious strength and vigor, which is well-ordered and which increases the strength and tolerance thrive abundantly. O God of Vedic Speech! raise to highest rank to me, the performer of Yajna to attain far-extended vision and occupying excellent position.
Translation
May my fame and strength, bestowed by God, possessing a thousand powers, well-ordered, augmenting might, thrive, spreading far and wide. O God, to a life of long duration and highest rank raise me, full of devotion.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यशः) कीर्त्तिः (हविः) देवयोग्यान्नम् (वर्धताम्) समृध्यताम् (इन्द्रजूतम्) परमेश्वरेण प्रेरितम् (सहस्रवीर्यम्) बहुसामर्थ्ययुक्तम् (सुभृतम्) यथावत्पोषितम् (सहस्कृतम्) बलेन सम्पादितम् (प्रसर्स्राणम्) सृ गतौ−यङ्लुकि ताच्छील्ये चानश्। अतिप्रसरणशीलम्। उद्योगिनम् (अनु) पश्चात्। निरन्तरम् (दीर्घाय) प्रवृद्धाय (चक्षसे) दर्शनाय (हविष्मन्तम्) भक्तिमन्तम् (मा) माम् (वर्धय) समर्धय (ज्येष्ठतातये) ज्येष्ठा प्रशस्ता तातिर्विस्तारो यस्य तस्मै। यद्वा। वृकज्येष्ठाभ्यां तिल्तातिलौ च च्छन्दसि। पा० ५।४।४१। इति प्रसशायां तातिल्। अतिविस्तारयुक्ताय। अत्यन्तप्रशंसनीयाय ॥
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