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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अङ्गिरस् देवता - दुःष्वप्ननाशनम् छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - दुःष्वप्ननाशन
    1

    प॒रोऽपे॑हि मनस्पाप॒ किमश॑स्तानि शंससि। परे॑हि॒ न त्वा॑ कामये वृ॒क्षां वना॑नि॒ सं च॑र गृ॒हेषु॒ गोषु॑ मे॒ मनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒र: । अप॑ । इ॒हि॒ । म॒न॒:ऽपा॒प॒ । किम् । अश॑स्तानि । शं॒स॒सि॒ । परा॑ । इ॒हि॒ । न । त्वा॒ । का॒म॒ये॒ । वृ॒क्षान् । वना॑नि । सम् । च॒र॒ । गृ॒हेषु॑ । गोषु॑ । मे॒ । मन॑: ॥४५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परोऽपेहि मनस्पाप किमशस्तानि शंससि। परेहि न त्वा कामये वृक्षां वनानि सं चर गृहेषु गोषु मे मनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पर: । अप । इहि । मन:ऽपाप । किम् । अशस्तानि । शंससि । परा । इहि । न । त्वा । कामये । वृक्षान् । वनानि । सम् । चर । गृहेषु । गोषु । मे । मन: ॥४५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (5)

    विषय

    मानसिक पाप के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (मनस्पाप) हे मानसिक पाप ! (परः) दूर (अप इहि) हट जा (किम्) क्या (अशस्तानि) बुरी बातें (शंससि) तू बताता है। (परा इहि) दूर चला जा, (त्वा) तुझको (न कामये) मैं नहीं चाहता, (वृक्षान्) वृक्षों और (वनानि) वनों में (सम् चर) फिरता रह, (गृहेषु) घरों में और (गोषु) गौ आदि पशुओं में (मे) मेरा (मनः) मन है ॥१॥

    भावार्थ

    विद्वानों को योग्य है कि वनचर डाकू आदियों के समान दुष्कर्मों में अपना मन न लगावें, किन्तु सत्यव्यवहारी होकर परस्पर रक्षा करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(परः) परस्तात्। दूरदेशे (अपेहि) अपगच्छ (मनस्पाप) हे मनसि चेतसि वर्तमान पाप (किम्) निन्दायाम् (अशस्तानि) अशोभनानि कर्माणि (शंससि) कथयसि (परेहि) दूरे गच्छ (न) निषेधे (त्वा) त्वाम् (कामये) अभिलष्यामि (वृक्षान्) वृक्षवासिनः पुरुषान्−इत्यर्थः (वनानि) वनचरान् दस्य्वादीनिति यावत् (सं चर) सम्यक् प्राप्नुहि (गृहेषु) गृहावस्थितेषु जनेषु (गोषु) गवादिपशुषु, तेषां रक्षण इत्यर्थः (मे) मम (मनः) अन्तःकरणम् ॥

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    विषय

    मन पाप से दूर हट।

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    कल महानन्द जी ने प्रश्न किया कि हमारे, आपके वाक्य मृत मण्डल में क्यों जाते हैं? यह क्या दशा है जो इस प्रकार आपत्ति काल भोगना पड़ा है? परन्तु आज भी हम इसका उत्तर न दे सके और व्याख्यान देते देते बहुत दूर चले गए। हम उच्चारण कर रहे थे, कि मानव को अपने कार्यों में दृढ़ रहना चाहिए। जो मानव जैसा करता है, वैसा ही भोगता है। बहुत पूर्व काल में हमने जो कर्म किए हैं, आज उन्हीं का फल भोगना पड़ रहा है। इसमें कुछ भी असत्य और न इसमें कोई भ्रान्ति है।

    पूज्य महानन्द जीः आपके व्याख्यान तो यथार्थ होते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। परन्तु भगवन्! आधुनिक काल में ऐसे व्यक्ति हैं, जो नाना प्रकार की विद्याओं को अच्छी प्रकार जानते नहीं और न वेदों का स्वाध्याय ही करते हैं। उनके हृदय में नाना प्रकार की भ्रान्तियाँ, नाना प्रकार की अशुद्धियाँ रहती हैं इसलिए उनका निर्णय करना आपका कर्तव्य है।

    पूज्यपाद गुरुदेव: महानन्द जी! जिसके द्वारा यथार्थता न हो, जो यथार्थ कार्यों को भी यथार्थ न मान रहा हो, बेटा! वह मानव कदापि नहीं मानेगा। वह तो अन्धकार में पहुँचा हुआ है।

    आज हमारे हृदय में वह कौन सा स्थान है, जहाँ परमात्मा यह न्याय कर रहा है? आज हम विचारते हैं और यह उच्चारण करते हैं कि कोई स्थान नहीं, वह तो न्याय है। द्वितीय प्रश्न आता है कि जब कोई स्थान नहीं, तो परमात्मा न्याय कैसे करता है। आज यह एक बड़ा दार्शनिक विषय बन जाता है। आज मानव को विचारना चाहिए कि वह परमात्मा विभु है, तो वह कौन सा विभु है, जहाँ हमारे पाप पुण्य, कर्मों का फल दे रहा है? आज हमें वेदों के अनुकूल प्रतीत होता है कि वह परमात्मा हमारी आत्मा के समक्ष बैठा हुआ है। जो भी मानव कर्म करता है, उसके संस्कार, उसके अन्तःकरण में नियुक्त हो जाते हैं। जब मानव तुच्छ कर्म करने के लिए चलता है तो उस समय मानव को संकेत मिलता है, कि अरे, मानव! यह कुमार्ग है,इस पर न जा। मानव उस कर्म को कर लेता है, तो बेटा! वही कर्म परमात्मा उसके अन्तःकरण में नियुक्त कर देता है। जो बेटा! हमने किया है वह अन्तःकरण में विराजमान हो गया है, और वह हमें भोगना अनिवार्य है। उसको भोगे बिना हमारा कार्य न चलेगा।

    महानन्द जी ने आज हमें एक संकेत किया है, और कई स्थानों में कहा है कि बहुत से मानव ऐसे हैं, जिन्होंने तपस्या करके तुच्छ कर्मों को समाप्त कर दिया है। परन्तु यह नहीं, यह वाक्य तुम्हारा विचित्र है। यह भी देखो, मानने वाला वाक्य बन जाता है। जैसा मानव ने कर्म किया है, उन्हें भोग करके, उसका अन्तःकरण शुद्ध बनेगा। जैसे आज प्रकाश हो रहा है, परन्तु वह प्रकाश उस काल तक रहेगा, जब तक उसमें प्रकाश देने वाले पदार्थ हैं। दीपक जल रहा है, परन्तु उसी स्थान तक प्रकाश देता रहेगा, जब तक उसमें वह पदार्थ है। जब वह पदार्थ न होंगे, तो वह अपना प्रकाश देना समाप्त कर देगा। इसी प्रकार बेटा! हमारा अन्तःकरण है। जब तक अन्तःकरण में संस्कार हैं जब तक हम भोगते रहेंगे।

    आज परमात्मा से जिज्ञासु कहता है कि हे परमात्मन्! मेरा हृदय प्रकाश दे रहा है, अब मैं इसमें कोई पदार्थ नियुक्त नहीं करूंगा, जिससे यह प्रकाश देता है। तो मुनिवरों! तब तक उस अन्तःकरण रूपी महान दीपक में कोई पदार्थ नहीं पड़ेगा, तो प्रकाश कदापि नही देगा भोगना भी नही पड़ेगा, जब इसमें नियुक्त करता है, तो भोगना भी अनिवार्य है। यह कैसा सुन्दर वाक्य हमारे समक्ष आ पहुँचा है। महानन्द जी ने हमसे एक स्थान में प्रश्न किया, कि सृष्टि के प्रारम्भ में मानव की आकृति ऐसी थी, जैसे भालू की।

    मुनिवरों! आज का वेदमन्त्र तो यह कह रहा था, कि जब महान सृष्टि प्रारम्भ होती है, तो उस समय जो विमुक्त आत्माएं होती हैं, जिन्हें पूर्वकाल का ज्ञान रहता है, वह आत्मा आ करके परमात्मा के नियमों के अनुकूल अपने महान शरीर को धारण कर लेती है। उनसे यह महान संसार बन जाता है। संसार की गति इस प्रकार की हो जाती है। यह व्याख्या हम अधिक न देंगे। यह विषय तो हमारा कल का है, अब तो हमारा यह वाक्य चल रहा था, कि मानव जैसा कर्म करता है, वैसा उसे भोगना अनिवार्य है। अन्तःकरण में उसके संस्कार नियुक्त रहते हैं परन्तु प्रतीत नहीं कि मानव का अन्तःकरण किस काल में जाग जाए, किस काल में समाप्त हो जाए। आज मानव को विचारना चाहिए कि हमने जो कर्म किया है, वह हमें भोगना अनिवार्य हैं इसलिए हमें शुभ कर्म करना चाहिए। जैसे बेटा! याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने राजा जनक से कहा था, हे जनक! यह मन तो शान्त रहता ही नहीं, यह तो कार्य करता ही रहता है, इसलिए तुम मन को शुद्ध बनाओ। जिससे तुम्हारा जीवन महत्वदायक बन जाएगा।

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    विषय

    गृहेषु गोषु मे मनः

    पदार्थ

    १. हे (मनस्पाप) = मन के पाप! मन में उत्पन्न होनेवाले पाप-विचार ! तू (परः अप इहि) = यहाँ से परे-दूर चला जा, (किम्) = क्यों तू (अशस्तानि) = अशुभ बातों को शंससि-प्रशंसित करता है। २. (परा इहि) = तू दूर ही चला जा। (त्वा न कामये) = मैं तुझे नहीं चाहता। (वृक्षान् वनानि) = संचर-तू वृक्षों व वनों में भटकनेवाला हो, (मे मनः) = मेरा मन तो (गृहेषु) = घरों में घर के कार्यों में और (गोषु) = गौओं में अथवा ज्ञान की वाणियों में लगा हुआ है। मुझे तेरे लिए अवकाश नहीं है।

    भावार्थ

    हे अशुभ का शंसन करनेवाले मनस्पाप! तू मुझसे दूर चला जा। मेरा मन तो घर के कार्यों व गौओं में लगा है। मुझे तेरे लिए अवकाश नहीं। खाली व्यक्ति के मन में ही अशुभ भावों का उदय होता है।

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    भाषार्थ

    (मनस्पाप) हे मानसिक पाप! (परः अप इहि) परे हट जा, (किम्) क्यों (अशस्तानि) अप्रशस्त कर्मों की (शंससि) तू प्रशंसा करता है। (परा इहि) परे चला जा (त्वा न कामये) तुझे नहीं मैं चाहता, (वृक्षान्, वनानि) वृक्षों और वनों में (संचर) संचार कर, विचर (में) मेरा (मनः) मन (गृहेषु) गृहकार्यों में, (गोषु) और गोपालन में विचरे।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में देवासुर संग्राम को निर्दिष्ट किया है, मानसिक पाप है असुर और उसके हटाने का संकल्प है देव। मानसिक-पाप ही वास्तविक पाप है। ऐन्द्रियिक और शारीरिक पाप तो मानसिक-पाप के परिणाम होते हैं, अतः संकल्पों और विचारों को शिव बनाना चाहिये। मानसिक-पाप की कामना को वर्जित करना चाहिये। वृक्षों और वनों में पाप विचरता है। वृक्षों और वनों में पापिष्ठ जीवात्माएं जन्म ग्रहण करती हैं। इनमें जीवात्माओं का वास होता है तभी इन्हें "ऊर्ध्वस्वप्नाः" कहा है (अथर्व० ६।४४।१)। स्वप्न और जागरण जीवधारियों को होते हैं, जड़ों को नहीं। मन को खाली न रखना चाहिये, इसलिये कहा है "गृहेषु गोषु" "मे मनः"। जीवात्मा के लिये कहा "ओषधिषु प्रतितिष्ठा शरीरै:" (अथर्व० १८।२।७)। शरीरै: = बार-बार शरीर ग्रहण करना औषधियों में। अतः शरीरै: बहुवचन है, या सूक्ष्म और कारण शरीर सहित स्थूल शरीर रूप में औषधि, वनस्पति, वृक्षों और वनों में शरीरग्रहण करना, अभिप्रेत है।]

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    विषय

    मानस पाप के दूर करने के दृढ़ संकल्प की साधना।

    भावार्थ

    मानसिक पापों को दूर करने के मूलमन्त्र का उपदेश करते हैं। (मनः-पाप) हे मानसिक पाप, दुर्विचार ! (परः अपेहि) परे हट, तू (अशस्तानि) बुरी बुरी निन्दा योग्य कुचालियां करने को (किम्) क्यों (शंससि) कहता है। (परा इहि) चल परे हो। (न त्वा कामये) में तुझे नहीं चाहता। हे (मनः) मेरे मन ! तू पाप से हट कर (वृक्षान् वनानि सं चर) हरे हरे वृक्षों और वनों उपवनों में विहार कर और (गृहेषु गोषु सं चर) अपने गृहों और गौओं में विहार कर। पाप में जब मन जाय तब पाप के संकल्पों को दूर करके हरे वृक्षों, वनों, उत्तम गृहों, सम्बन्धियों और गौ आदि पशुओं के साथ मन को बहलाना चाहिए।

    टिप्पणी

    ‘अपेहि मनसस्यतेऽपकाम परश्चर। परो निर्ऋत्या आचक्ष्व बहुधा जीवतो मनः’ इति ऋ०॥ ऋग्वेदे प्रचेताः ऋषिः। दुःस्वप्नघ्नं देवता॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रचेताः, अंगिरा यमश्च ऋषिः। दुःस्वप्ननाशनं देवता। १ पथ्यापंक्तिः। २ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Go off Negative Thoughts

    Meaning

    Go off, evil of the mind, why do you present things undesirable? Keep off. I do not want you. Gad about woods and trees. My mind is in and with the home and homely thoughts and perceptions.

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    Subject

    Cure for Evil Dreams:

    Translation

    O evil thought, go far away. What abominable things you suggest (Why do you suggest abominable things). Get away. I do not like you. Go and move among trees and forests. My heart is in my home and cows.

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    Translation

    [N.B. Bad dreams is treated, in this hymn, to be a kind of sin. Generally it may be called mental sin identified as evil intention. Dream is a kind of memory. Sometimes mind intermix in it some sort of perverted imagination. This should wiped off by good intention.] Let the sin of mind be gone off, why does it fore shadow in auspicious things. Let it go hence away, I do not like it, let go to the forest and trees, my mind or heart is engaged in my homes and cows.

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    Translation

    Sin of the Mind, avaunt, get away! Why sayest thou what none should say. Go hence away, I love thee not, go to the forests and the trees. My heart is in our homes and cows.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(परः) परस्तात्। दूरदेशे (अपेहि) अपगच्छ (मनस्पाप) हे मनसि चेतसि वर्तमान पाप (किम्) निन्दायाम् (अशस्तानि) अशोभनानि कर्माणि (शंससि) कथयसि (परेहि) दूरे गच्छ (न) निषेधे (त्वा) त्वाम् (कामये) अभिलष्यामि (वृक्षान्) वृक्षवासिनः पुरुषान्−इत्यर्थः (वनानि) वनचरान् दस्य्वादीनिति यावत् (सं चर) सम्यक् प्राप्नुहि (गृहेषु) गृहावस्थितेषु जनेषु (गोषु) गवादिपशुषु, तेषां रक्षण इत्यर्थः (मे) मम (मनः) अन्तःकरणम् ॥

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