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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 49/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गार्ग्य देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अग्निस्तवन सूक्त
    1

    न॒हि ते॑ अग्ने त॒न्वः॑ क्रू॒रमा॒नंश॒ मर्त्यः॑। क॒पिर्ब॑भस्ति॒ तेज॑नं॒ स्वं ज॒रायु॒ गौरि॑व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । त॒न्व᳡: । क्रू॒रम् । आ॒नंश॑ । मर्त्य॑: । क॒पि: । ब॒भ॒स्ति॒ । तेज॑नम् । स्वम् । ज॒रायु॑ । गौ:ऽइ॑व ॥४९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि ते अग्ने तन्वः क्रूरमानंश मर्त्यः। कपिर्बभस्ति तेजनं स्वं जरायु गौरिव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि । ते । अग्ने । तन्व: । क्रूरम् । आनंश । मर्त्य: । कपि: । बभस्ति । तेजनम् । स्वम् । जरायु । गौ:ऽइव ॥४९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रलय और सृष्टिविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! (मर्त्यः) मनुष्य ने (ते) तेरे (तन्वः) स्वरूप की (क्रूरम्) क्रूरता को (नहि) नहीं (आनंश) पाया है। (कपिः) कँपानेवाले आप (तेजनम्) प्रकाशमान सूर्यमण्डल को (बभस्ति) खा जाते हैं (इव) जैसे (गौः) गौ (स्वम्) अपनी (जरायु) जरायु को [खा लेती है] ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर की अनन्त शक्ति को नहीं जान सकता है। परमेश्वर ही इस संसार को बना कर फिर अपने में प्रविष्ट कर लेता है, जैसे गौ बच्चा उत्पन्न होने के पीछे अपने पेट से निकली झिल्ली को आप निगल जाती है ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(नहि) नैव (ते) तव (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् (तन्वः) विस्तृतस्य स्वरूपस्य (क्रूरम्) अ० ५।१९।५। क्रूरभावम्। (आनंश) अश्नोतेर्लिट्। परस्मैपदं छान्दसम्। प्राप (मर्त्यः) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। इति मृङ् प्राणत्यागे−यक्, तुडागमः। मनुष्यः−निघ० २।३। (कपिः) कुण्ठिकम्प्योर्नलोपश्च। उ० ४।१४४। इति कपि चलने−इ। कम्पकः (बभस्ति) भस भर्त्सनदीप्त्योः, अदने च। बभस्तिरत्तिकर्मा−निरु० ५।—१२। भक्षयति (तेजनम्) अ० १।२।४। प्रकाशमयं सूर्यमण्डलम् (स्वम्) स्वकीयम् (जरायु) अ० १।११।४। गर्भवेष्टनम् (गौः) प्रसूता धेनुः ॥

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    विषय

    कपिः बभस्ति तेजनम्

    पदार्थ

    १. (अग्ने) = हे तेजस्विन् प्रभो! (मर्त्यः) = वह मनुष्य (ते) = आपके दिये हुए (तन्य:) = इस शरीर के (करम्) = [कृत] कर्तन व छेदन को (नहि आनंश) = नहीं प्राप्त करता, जो (कपिः) = [कं पिबति] शरीरस्थ रेत:कणरूप जल को पीनेवाला-शरीर में ही खपानेवाला तथा (तेजनम्) = [तेज-to protect] रक्षा के महान् साधन इस वीर्य को (बभस्ति) = [बभस्तिरत्तिकर्मा-नि० ५.१२] शरीर में उसी प्रकार निगीर्ण करनेवाला होता है (इव) = जैसे (गौ:) = एक गौ (स्वं जरायु) = अपने जेर को निगीर्ण कर लेती है। निगरण के कारण ही यह 'गार्ग्य' कहलाता है।

    भावार्थ

    हम उत्पन्न वीर्य को शरीर में ही खपानेवाले बनें। इससे शरीर का कर्तन व छेदन नहीं होगा। यह बीर्य 'तेजन' है, हमारा रक्षण करनेवाला है।

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे परमेश्वर अग्नि ! (ते) तेरे (तन्वः) विस्तृत प्रकाश-स्वरूप की (क्रूरम्) तीक्ष्णता१ को (मर्त्यः) मरणधर्मा१ मनुष्य ( नहि ) नहीं (आनंश) प्राप्त होता। (कपिः) उदक का पान करने वाले आदित्य सदृश तेजस्वी परमेश्वर अग्नि, (तेजनम्) अध्यात्मिक ज्ञान द्वारा तेजस्वी व्यक्ति को (बभस्ति) निजस्वरूप के प्रकाश द्वारा प्रदीप्त अर्थात् प्रकाशित कर देता है, (इव) जैसे (गौ:) गौ (जरायु) जरायुज वत्स को (बभस्ति) प्रदीप्त अर्थात् प्रकाशित कर देती है ।

    टिप्पणी

    [सूक्त ४९ के तीनों मन्त्र दुरूह हैं। तथापि यथा सम्भव बुद्धिग्राह्य अर्थ प्रस्तुत किये गए हैं। अग्नि है सर्वाग्रणी परमेश्वर। सूक्त ४८ के मन्त्र २ में "ऋभु" पद द्वारा परमेश्वर को "उरु भासमान अर्थात् प्रकाश वाला कहा है"। प्रकाश के "उरुपन" को व्याख्येय मन्त्र में "क्रूरम्" कहा है। सामान्य मनुष्य१ प्रकाश के इस उड़ान को प्राप्त नहीं होता। मन्त्र में अग्नि को ही "कपि" कहा है । कपि: = कम्, उदकम्, पिबतीति (सायण) द्वारा कपि है आदित्य। मन्त्र में आदित्य द्वारा परमेश्वराग्नि अभिप्रेत है। मन्त्र में "जरायु" पद जरायुज "वत्स" अभिप्रेत है। यथा "सुण्येव जर्भरी" (ऋ० १०॥१०६।६) मन्त्र में जरायु है "जरायुजं शरीरम्" (निरुक्त १३॥१।५)। गौ उत्पन्न वत्स को चाट कर उसके शरीर को प्रदीप्त कर देती है, उज्ज्वल कर देती है। बभस्ति =मस भर्त्सनदीप्त्या: (जुहोत्यादिः) मन्त्र में दीप्ति अर्थ अभिप्रेत है]। [१. जोवनमुक्त ही इस प्रकाश की तीक्ष्णता को प्राप्त कर सकता है।]

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    विषय

    कालाग्नि का वर्णन।

    भावार्थ

    हे अग्ने ! (ते तन्वः) तेरे अग्निमय शरीर के (कुरम्*) छेदन भेदन सामर्थ्य को अर्थात् परमाणु परमाणु अलग कर डालनेवाले विशेष सामर्थ्य को (मर्त्यः) यह मरणधर्मा पुरुष (न आनंश) नहीं प्राप्त कर सकता। तू (कपिः) कपि = अति कम्पवान् होकर (तेजनम्) अग्नि या ताप को अपने भीतर (बभस्ति) ऐसे धारण कर लेता है जैसे (गौः) गौ (स्वं जरायुः) अपनी जेर को खा जाती है। अथवा—हे अग्ने ! परमात्मन् ! तेरे क्रूर = छेदन भेदन सामर्थ्य को मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकता। तू (कपिः) सब कंपाने वाला होकर (तेजनम्*) पाप को ऐसे खा जाता है, जला देता है, विनाश कर देता है जैसे गौ जरायु को। अथवा—(स्वं जरायु गौरिव) अपनी अजीर्ण त्वचा या आवरण को जिस प्रकार सूर्य बार बार लील जाता है उसी प्रकार (कपिः) क= प्रजापति हिरण्यगर्भ का पालक परमात्मा समस्त (तेजनम्) ब्रह्माण्ड को (बभस्ति*) अपने प्रलयकाल में लील जाता है। इसलिए (मर्त्यः अग्नेः तन्वः क्रूरम् न आनंश) यह मनुष्य उस कालाग्नि परमेश्वर के छेदनभेदन सामर्थ्य तक नहीं पहुँच सकता।

    टिप्पणी

    जरायुः शणाः॥ श ० ६। ६। १। ५॥ यत्र वा प्रजापतिरजायत गर्भो भूत्वा एतस्मात् यज्ञात् तस्य यन्नेदिष्टमुल्वमासीत् ते शणाः॥ जिसमें प्रजापति हिरण्यगर्भ रूप में उस यज्ञ रूप परमात्मा से उत्पन्न हुआ वह उपर का गर्भावरण = उल्क, शण या जरायु नाम से कहा जाता है। कृतेश्छः क्रू च। उणादि० पा० २। २१॥ कर्त्तनसामर्थ्य छेदनसामर्थ्यम्। कम्पतेः ‘सार्वधातुभ्य इन’। उणादिः। ४। १४४ यकृद्वा कम् उदकं शरीरगतं रसं पिबति इति कपिः। सायणः॥ पाप्मा वै तेजनी॥ तै० ३। ८। १९। २॥ बभस्तिरत्तिकर्मा इति यास्कः। निरु० ५। १२॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गार्ग्य ऋषिः। अग्निर्देवता। १ अनुष्टुप, २ जगती, ३ निचृज्जगती। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Dynamics of Divine Nature

    Meaning

    This sukta should better be read with Gita, chapter 11, especially verses 24-32. O lord self-refulgent, Agni, no mortal man can comprehend the inexorable dynamics of your creative manifestation in the universe—your spirit in form through the medium of Prakrti. The Sun devours its own blaze of light. Nature consumes its own creation, like the cow eating up its own embryo’s outer skin.

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    Subject

    Agnih

    Translation

    O fire, a mortal can never attain (endure) the cruelty of your self. (Due to it) the monkey (kapih) chews the reed (of an sow) as a cow cats her after-birth. (jarayu)

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    Translation

    Man finds no imperfection in the operational structure of fire. This fire giving convulsion to all objects contains in it the heat of the universe (at the time of annihilation) as the cow eats outer skin of her embryo after birth.

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    Translation

    O God, mortal man cannot comprehend the immensity and virility of Thy power. Thou makest every one tremble with Thy fear. Thou destroyest Sin, as a cow eats her secundines.

    Footnote

    God is subtle in contemplation, and grand, expanded in nature to the naked eye, just as the sun contracts in the morning and evening when it sets, and expands and grows warmer in the day time. Just as the jaws of a man press and chew the food, so the destructive powers of God devour the universe at the time of dissolution.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(नहि) नैव (ते) तव (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् (तन्वः) विस्तृतस्य स्वरूपस्य (क्रूरम्) अ० ५।१९।५। क्रूरभावम्। (आनंश) अश्नोतेर्लिट्। परस्मैपदं छान्दसम्। प्राप (मर्त्यः) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। इति मृङ् प्राणत्यागे−यक्, तुडागमः। मनुष्यः−निघ० २।३। (कपिः) कुण्ठिकम्प्योर्नलोपश्च। उ० ४।१४४। इति कपि चलने−इ। कम्पकः (बभस्ति) भस भर्त्सनदीप्त्योः, अदने च। बभस्तिरत्तिकर्मा−निरु० ५।—१२। भक्षयति (तेजनम्) अ० १।२।४। प्रकाशमयं सूर्यमण्डलम् (स्वम्) स्वकीयम् (जरायु) अ० १।११।४। गर्भवेष्टनम् (गौः) प्रसूता धेनुः ॥

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