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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अश्विनौ छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - अभययाचना सूक्त
    1

    ह॒तं त॒र्दं स॑म॒ङ्कमा॒खुम॑श्विना छि॒न्तं शिरो॒ अपि॑ पृ॒ष्टीः शृ॑णीतम्। यवा॒न्नेददा॒नपि॑ नह्यतं॒ मुख॒मथाभ॑यं कृणुतं धा॒न्याय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह॒तम् । त॒र्दम् । स॒म्ऽअ॒ङ्कम् । आ॒खुम् । अश्वि॑ना । छि॒न्तम् । शिर॑: । अपि॑ । पृ॒ष्टी: । शृ॒णी॒त॒म् । यवा॑न् । न । इत् । अदा॑न् । अपि॑ । न॒ह्य॒त॒म्। मुख॑म् । अथ॑ । अभ॑यम् । कृ॒णु॒त॒म् । धा॒न्या᳡य ॥५०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हतं तर्दं समङ्कमाखुमश्विना छिन्तं शिरो अपि पृष्टीः शृणीतम्। यवान्नेददानपि नह्यतं मुखमथाभयं कृणुतं धान्याय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हतम् । तर्दम् । सम्ऽअङ्कम् । आखुम् । अश्विना । छिन्तम् । शिर: । अपि । पृष्टी: । शृणीतम् । यवान् । न । इत् । अदान् । अपि । नह्यतम्। मुखम् । अथ । अभयम् । कृणुतम् । धान्याय ॥५०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा के दोष निवारण का उपदेश।

    पदार्थ

    (अश्विना) हे कामों मे व्याप्त रहनेवाले स्त्री-पुरुषो ! (तर्दम्) हिंसा करनेवाले कौवे आदि को, (समङ्कम्) पृथिवी में अङ्क करनेवाले शूकर आदि को और (प्राखुम्) कुतरनेवाले चूहे आदि को (हतम्) तुम मारो, (शिरः) उनका शिर (छिन्तम्) काटो और (पृष्टीः) पसलियाँ (अपि) भी (शृणीतम्) तोड़ो। वे (यवान्) यवादि अन्नों को (न इत्) कभी न (अदान्) खावें, (मुखम्) उनका मुख (अपि) भी (नह्यतम्) तुम बाँधो, (अथ) और (धान्याय) धान्य के लिये (अभयम्) अभय (कृणुतम्) करो ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे किसान लोग हानिकारक पक्षी पशु आदि से खेती की रक्षा करके धान्य प्राप्त करते हैं, वैसे ही विद्वान् स्त्री-पुरुष काम क्रोध आदि शत्रुओं से अपनी रक्षा करके सुख भोगें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(हतम्) हन्तेर्लोट्। युवां नाशयतम् (तर्दम्) तर्द हिंसायाम्−अच्। हिंसकं काकादिकम् (समङ्कम्), अकि लक्षणे−अच्। भूमौ अङ्कनशीलं शूकरादिकम् (आखुम्) आड्परयोः खनिशॄभ्यां डिच्च। उ० १।३३। इति आङ्+खनु अवदारणे−उ, स च डित्। खननशीलमूषकादिकम् (अश्विना) अ० २।२९।६। अश्विनौ। हे कर्मसु व्यापनशीलौ स्त्रीपुरुषौ (छिन्तम्) भिन्तम् (शिरः) ललाटम् (अपि) (पृष्टीः) अ० २।७।५। पार्श्वास्थीनि (शृणीतम्) हिंस्तं चुर्णीकुरुतम् (यवान्) यवाद्यन्नानि (न इत्) नैव (अदान्) अद भक्षणे−लेट्। भक्षयेयुः (अपि) (नह्यतम्) बध्नीतम् (मुखम्) (अथ) अनन्तरम् (अभयम्) भयराहित्यं कुशलम् (कृणुतम्) कुरुतम् (धान्याय) अन्नवर्धनाय ॥

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    विषय

    चूहों का विनाश

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = कृषि-कर्म में व्याप्त स्त्री-पुरुषो! [अश व्याप्ती] (तर्दम्) = हिंसक समकम् [समञ्चनं बिलं संप्रविश्य गच्छन्तम्] बिल में प्रवेश करके रहनेवाले (आखुम्) = चूहे को (हतम्) = विनष्ट करो, (शिरः छिन्तम्) = इसके सिर को काट डालो, (पृष्टी: अपि शणितम्) = पार्श्व अस्थियों को भी चूर्णीभूत कर दो। २. यह चूहा (यवान्) = क्षेत्र उत्पन्न यवों को (न इत् अदान) = न खा जाए, अत: हे अश्विनौ ! आप (मुखम्) = इसके मुख को (अपिनहातम्) = बाँध दो और (अथ) = ऐसा करके अब (धान्याय) = ब्रीहि-यवादिरूप धान्य के लिए (अभयं कृणुतम्) = निर्भयता कीजिए।

    भावार्थ

    खेती के विनाशक चूहों को नष्ट करना ठीक ही है। धान्य-रक्षण के लिए इनका विनाश आवश्यक है।

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    भाषार्थ

    (अश्विनौ) हे दो अश्वियो ! (तर्दम् ) धान्य की हिंसा करने वाले, (समङ्कम्) शीघ्र भाग जाने वाले (आखुम्) चूहे को (हतम्) मारो, (शिर: छिन्तम्) सिर को काट डालो, (अपि पृष्टो:) पसलियों को भी (शृणीतम्) कुचल डालो। ताकि (यवान्) जौं को ( न इत् अदा ) न खाएं (अपि नह्यतम, मुखम्) मुख को भी बान्ध दो, (अथ) तदनन्तर (धान्याय) धान्य के लिये (अभयम् कृणुतम्) अभय प्रदान करो।

    टिप्पणी

    [अश्विनौ सायण ने दो अश्विनौ१ को देवी माना है। क्या देव आए चूहे को मारने और बान्धने के लिये सम्नद्ध रहेंगे। अश्विनौ से अभिप्राय है गृहवासी पति-और-पत्नी ।। निरुक्त के अनुसार अश्विनो हैं "द्यावापृथिव्यौ” (निरुक्त १२।१।१) और द्यावापृथिव्यौ हैं विवाहित पति-पत्नी यथा "द्यौरहं पृथिवी त्वम्। ताविह संभवाव प्रजामाजनयावहै" (अथर्व० १४।२।७१)। मन्त्र में अतिशयोक्ति है चूहे के सम्बन्ध में। तर्दम्= तदं हिंसायाम् (भ्वादिः)। छिन्तम् =छिदिर द्वंधीकरणे (रुधादिः)] [१. तथा अश्विनौ= "पुण्यकृतौ राजानौ” (निरुक्त १२।१।१)। राजानौ= राजा और राजपत्नी, तथा राजा और प्रधानमन्त्री। पुष्यकृतौ राजानौ, प्रजा और प्रजा की सम्पत्ति की रक्षा निःस्वार्थ भावना से करते हैं। राष्ट्र का धान्य, जिस पर कि प्रजा का जीवन अवलम्बित है उस की रक्षा, महापुण्य का काम है। ये अश्विनौ आयु आदि का विनाश कर प्रजा को जीवित रखते हैं ।]

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    विषय

    अन्नरक्षा के लिए हानिकारक जन्तुओं का नाश।

    भावार्थ

    हे (अश्विना) अश्विगणो ! धान्य के उत्पादक और रक्षक स्त्री पुरुषो ! (तर्दम्) हिंसक जन्तु (समङ्कम्) बिल में छिपने वाले मूसाजाति (आखुम्) और भूमि को खनकर रहनेवाले अन्ननाशक जन्तु को (हतम्) मारो, (शिरः) उनके शिर को (छिन्तम्) मार कर टुकड़े टुकड़े कर डालो जिससे उनका प्राण नष्ट हो जाय और वह जीता न रह जाय बल्कि उनकी (पृष्टीः) पीठ की पसलियां (अपि) भी (शृणीतम्) तोड़ डालो और हो सके तो (मुखम् अपि नह्यतम्) उसके मुख भी बांध दो जिससे (यवान्) वे यवों को (न इत्) नहीं (अदान्) खा सकें। इस प्रकार (धान्याय) धान्य के लिये (अभयं कृणुत) अभय कर दो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अभयकामोऽथर्वा ऋषिः। अश्विनौ देवते। १ विराड् जगती। २-३ पथ्या पंक्तिः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Grain Protection

    Meaning

    O farming men and women, Ashvins, drive off the crop destroyer, the burrowing mouse and other crop damagers, break their head, break their back. See that they do not destroy the barley crop. Shut their mouth, and thus eliminate the fear of damage to the crop.

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    Subject

    Asvin - Pair

    Translation

    O Asvin-pair, please kill the tarda or borer; destroy the samanka, the rat, destroy the akhu (mouse); I cut off their heads and crush their ribs, so that they do not eat the yava (barley); let our com (dhanya) grow, free from danger.

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    Translation

    O pleasant man and women! kill injurious rat, boring beast and cut off their heads and crush their ribs. Bind fast their mouths to enable them so that they do not eat the barley and thus make safety for the crop.

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    Translation

    Ye husband and wife, the growers and protectors of corn, destroy the crow, the swine, the rat, cut off their heads and crush their ribs. Bind fast their mouths; let them not cat our barley; so guard, Ye twain, the growing corn from danger.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(हतम्) हन्तेर्लोट्। युवां नाशयतम् (तर्दम्) तर्द हिंसायाम्−अच्। हिंसकं काकादिकम् (समङ्कम्), अकि लक्षणे−अच्। भूमौ अङ्कनशीलं शूकरादिकम् (आखुम्) आड्परयोः खनिशॄभ्यां डिच्च। उ० १।३३। इति आङ्+खनु अवदारणे−उ, स च डित्। खननशीलमूषकादिकम् (अश्विना) अ० २।२९।६। अश्विनौ। हे कर्मसु व्यापनशीलौ स्त्रीपुरुषौ (छिन्तम्) भिन्तम् (शिरः) ललाटम् (अपि) (पृष्टीः) अ० २।७।५। पार्श्वास्थीनि (शृणीतम्) हिंस्तं चुर्णीकुरुतम् (यवान्) यवाद्यन्नानि (न इत्) नैव (अदान्) अद भक्षणे−लेट्। भक्षयेयुः (अपि) (नह्यतम्) बध्नीतम् (मुखम्) (अथ) अनन्तरम् (अभयम्) भयराहित्यं कुशलम् (कृणुतम्) कुरुतम् (धान्याय) अन्नवर्धनाय ॥

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