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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शन्ताति देवता - आपः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - एनोनाशन सूक्त
    1

    वा॒योः पू॒तः प॒वित्रे॑ण प्र॒त्यङ्सोमो॒ अति॑ द्रु॒तः। इन्द्र॑स्य॒ युजः॒ सखा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒यो: । पू॒त: । प॒वित्रे॑ण । प्र॒त्यङ् । सोम॑: । अति॑ । द्रु॒त: । इन्द्र॑स्य । युज्य॑:। सखा॑ ॥५१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वायोः पूतः पवित्रेण प्रत्यङ्सोमो अति द्रुतः। इन्द्रस्य युजः सखा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वायो: । पूत: । पवित्रेण । प्रत्यङ् । सोम: । अति । द्रुत: । इन्द्रस्य । युज्य:। सखा ॥५१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    द्रोह के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (वायोः) सर्वव्यापक परमेश्वर के [बताये हुए] (पवित्रेण) शुद्ध आचरण से (पूतः) शुद्ध किया हुआ, (प्रत्यङ्) प्रत्यक्ष पूजनीय, (अति) अति (द्रुत) शीघ्रगामी (सोमः) ऐश्वर्यवान् वा अच्छे गुणवाला पुरुष (इन्द्रस्य) परमेश्वर का (युज्यः) योगी (सखा) सखा होता है ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि वेदविहित कर्मों को अति शीघ्र करके परमेश्वर के मित्र बन के सदा सुखी रहें ॥१॥ (वायु) शब्द परमेश्वरवाचक है−देखो [तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः] य० ३२।१। ब्रह्म [वायुः] सर्वव्यापक और ब्रह्म ही आनन्ददाता है ॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−अ० १।३१ ॥

    टिप्पणी

    १−वायोः सर्वव्यापकस्य परमेश्वरस्य विज्ञापितेन−तद् यथा [तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः] य० ३२।१। (पूत) शोधितः (पवित्रेण) शुद्धेन धर्म्माचरणेन (प्रत्यङ्) प्रत्यक्षमञ्चितः पूजितः (सोमः) ऐश्वर्यवान् सोमगुणसम्पन्नो वा (अति) अत्यन्तम् (द्रुतः) शीघ्रगामी (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (युज्यः) समाहितः। योगी (सखा) मित्रम् ॥

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    विषय

    सोम

    पदार्थ

    १. (वायो:) = [वातः प्राणो भूत्वा०] प्राणसाधना द्वारा (पूतः) = पवित्र हुआ-हुआ तथा (पवित्रेण) = [नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते] ज्ञान के द्वारा-ज्ञान साधना-निरन्तर स्वाध्याय द्वारा (प्रत्यङ्) = [प्रतिमुखम् अञ्चन्] वापस शरीर में गतिवाला होता हुआ (सोमः) = शरीर में उत्पन्न रेत:कण (अतिद्रुतः) = नाभिदेश को लाँघकर ऊर्ध्व गतिवाला होता है। सोम-रक्षण के प्रमुख साधन हैं-प्राणायाम और स्वाध्याय। २. यह सुरक्षित सोम (इन्द्रस्य) = इस जितेन्द्रिय पुरुष का (युज्यः सखा) = परमात्म-प्राप्ति का साधनभूत मित्र है। सोम-रक्षण द्वारा बुद्धि की तीव्रता होकर प्रभु का दर्शन होता है।

     

    भावार्थ

    सोम के रक्षण व ऊर्ध्वगमन के लिए हम प्राणसाधना व स्वाध्याय में प्रवृत्त हों। जितेन्द्रिय बनकर हम सोम का रक्षण करेंगे तो यह हमारी बुद्धि को सूक्ष्म बनाकर हमें प्रभु दर्शन के योग्य बनाएगा।

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    भाषार्थ

    (वायोः, पवित्रेण) वायुरूपी पवित्रता के साधन द्वारा (पूतः) पवित्र हुआ, (अति द्रुतः) अतिद्रवित (सोमः) वीर्य (प्रत्यङ) प्रत्येक अङ्ग में गति करता है। यह (इन्द्रस्य) जीवात्मा का (युज्यः) साथ जुता (सखा) मित्र है। प्रत्यङ्= प्रति (प्रत्येक अङ्ग में) + अञ्चु गतौ।

    टिप्पणी

    ["वायोः पवित्रेण" में षष्ठी विभक्ति विकल्प में है। यथा "शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः" ( योग १।९)। सोमः= सु [षु] प्रसवे (भ्वादिः) + मन् (प्रत्यय, उणा० १।१४०)। अत: सुमन्= Semen (वीर्य ) देखो (अथर्व० १४।१।३-५) मत्कृत भाष्य। सोम= (वीर्य) का सम्बन्ध वायु के साथ है यथा "वायु: सोमस्य रक्षिता" (अथव० १४।१॥४); प्राणायाम सम्बन्धी वायु सोम (वीर्य) की रक्षा करती है। रक्त में सुरक्षित हुआ सोम अतिद्रवित हुआ रक्त में विलीन रहता है, और रक्त के साथ प्रत्येक अङ्ग में गति करता है। स्थूल रूप में प्रकट हुआ सोम शरीर से प्रच्युत हो जाता है, शरीर में ठहर नहीं सकता। इन्द्र है जीवात्मा। यथा "इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गम्" (अष्टा० ५।२।९३)। शरीर रथ में सोम, इन्द्र [जीवात्मा] के साथ जुता हुआ, शरीर रथ का संचालन करता है। वीर्य के अभाव में शरीर रथ का संचालन नहीं हो सकता। युज्य: का अर्थ है जुता हुआ. न कि "योग्य"। अन्यथा मन्त्र में "योग्य:" पद ही पठित होता। "सखा" द्वारा शरीर के सम्यक्तया संचालन में "सोम और इन्द्र" में पारस्परिक सहयोग और सामनस्य सूचित किया है]।

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    विषय

    पवित्र होकर उन्नत होने की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (प्रत्यङ्) भीतरी शुद्ध आत्मा (सोमः) सोम, जीव (वायोः) सर्वव्यापक, सर्वप्रेरक प्रभु के (पवित्रेण) परस पावन स्वरूप के ध्यान से (पूतः) पवित्र होकर (अति-द्रुतः) संसार के दुःखों को अतिक्रमण करके शीघ्र ही मुक्त हो जाता है। वही तब (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यशील प्रभु का (युज्यः) योग समाधि में मिलनेवाला (सखा) उसका परम मित्र बन जाता है। कश्चिद् धीरः प्रत्यग् आत्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्। इति। कठ उप० ४। ९॥

    टिप्पणी

    (द्वि) ‘अतिस्रुतः’ इति यजु०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंतातिर्ऋषिः। १ सोमः २ आपः, ३ वरुणश्च देवताः। १ गायत्री, २ त्रिष्टुप, ३ जगती। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Purity and Power

    Meaning

    Soma, purified and reinforced by the pure energy of Vayu, becomes doubly refined and purified, immediate favourite of Indra. (Similarly a man of peace and pure at heart, refined by the divine presence and purity of all vibrant God, becomes doubly pure and fortified against negativity and evil, and he becomes a favourite friend of Divinity.)

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    Subject

    Somah

    Translation

    Purified with Vayu’s purifier, Soma has run over opposite (pratyat), Indra’s favourite associate. (Vayu = lord of movement; Indra = resplendent Lord; Soma = Lord of Bliss) (Also Yv. XIX.3)

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    Translation

    Soma, the man of intuition purified with the purifying knowledge of God feeling perturbed, turning to inner world from the outer one becomes the ascetic friend of inner soul.

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    Translation

    The pure internal soul, cleansed through the ennobling contemplation of God, soon attains to salvation, and becomes His friend through yogic samadhi.

    Footnote

    Samadhi: Deep concentration.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−वायोः सर्वव्यापकस्य परमेश्वरस्य विज्ञापितेन−तद् यथा [तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः] य० ३२।१। (पूत) शोधितः (पवित्रेण) शुद्धेन धर्म्माचरणेन (प्रत्यङ्) प्रत्यक्षमञ्चितः पूजितः (सोमः) ऐश्वर्यवान् सोमगुणसम्पन्नो वा (अति) अत्यन्तम् (द्रुतः) शीघ्रगामी (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (युज्यः) समाहितः। योगी (सखा) मित्रम् ॥

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