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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भागलि देवता - सूर्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भैषज्य सूक्त
    1

    उत्सूर्यो॑ दि॒व ए॑ति पु॒रो रक्षां॑सि नि॒जूर्व॑न्। आ॑दि॒त्यः पर्व॑तेभ्यो वि॒श्वदृ॑ष्टो अदृष्ट॒हा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । सूर्य॑: । दि॒व: । ए॒ति॒ । पु॒र: । रक्षां॑सि । नि॒ऽजूर्व॑न् । आ॒दि॒त्य: । पर्व॑तेभ्य: । वि॒श्वऽदृ॑ष्ट: । अ॒दृ॒ष्ट॒ऽहा ॥५२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्सूर्यो दिव एति पुरो रक्षांसि निजूर्वन्। आदित्यः पर्वतेभ्यो विश्वदृष्टो अदृष्टहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । सूर्य: । दिव: । एति । पुर: । रक्षांसि । निऽजूर्वन् । आदित्य: । पर्वतेभ्य: । विश्वऽदृष्ट: । अदृष्टऽहा ॥५२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा के दोष के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (आदित्यः) सब ओर प्रकाशवाला, (विश्वदृष्टः) सबों करके देखा गया और (अदृष्टहा) न दीखते हुए पदार्थों में गतिवाला (सूर्यः) सूर्य (दिवः) अन्तरिक्ष के बीच (रक्षांसि) राक्षसों [अन्धकार आदि उपद्रवों] को (निजूर्वन्) सर्वथा नाश करता हुआ (पर्वतेभ्यः) मेघों वा पहाड़ों से (पुरः) सन्मुख (उत् एति) उदय होता है ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य अन्धकार हटा कर प्रकाश करता है, वैसे ही विद्वान् लोग अविद्या मिटा कर विद्या का प्रकाश करते हैं ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० १।१९१।८, ९ ॥

    टिप्पणी

    १−(उत्) उद्नत्य (सूर्यः) लोकस्य प्रेरको दिनकरः (दिवः) अन्तरिक्षस्य मध्यात् (एति) गच्छति (पुरः) अग्रे (रक्षांसि) अ० १।२१।३। रक्षो रक्षितव्यमस्मात्−निरु० ४।१८। अन्धकारादीन् उपद्रवान् (निजूर्वन्) जुर्वी हिंसायाम्−शतृ। नितरां नाशयन् (आदित्यः) अ० १।९।१। आदीप्यमानः (पर्वतेभ्यः) मेघेभ्यः शैलेभ्यो वा (विश्वदृष्टः) विश्वेन दृष्टः (अदृष्टहा) अ० ५।२३।६। अदृष्टान् अन्धकारयुक्तान् पदार्थान् हन्ति गच्छतीति यः सः ॥

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    विषय

    सूर्य:

    पदार्थ

    १. (सूर्यः) = सबको कर्मों में प्रेरक यह सूर्य (पुर:) = सामने-पूर्व दिशा में (रक्षांसि) = हमारे शरीर में उपद्रव करनेवाले रोगकृमियों को (निजूर्वन्) = नितरां हिंसित करता हुआ (दिव: उत् एति) = अन्तरिक्ष प्रदेश से उदित होता है। २. वह (आदित्य:) = भूपृष्ठ से जलों का आदान करनेवाला सूर्य (पर्वतेभ्यः) = मेघों के लिए उदित होता है। जलों को वाष्पीभूत करके ऊपर ले-जाता हुआ यह सूर्य मेषों की उत्पत्ति का कारण बनता है। यह (विश्वदृष्टः) = सब प्राणियों से देखा जाता है, और (अदृष्टहा) = अदृष्ट रोगकृमियों का भी विनाशक है।

    भावार्थ

    उदय होता हुआ सूर्य रोगकृमियों का संहार करता है। यह मेघों के निर्माण में कारण बनता है।

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    भाषार्थ

    (रक्षांसि) अन्धकार, चोर, रोगजनक कीटाणुओं आदि की (निजूर्वत्) नितरां हिंसा करता हुआ (सूर्यः) सर्व प्रेरक सूर्य ( पुरः ) पूर्व दिशा में (दिवः) द्युलोक के प्रकाशित प्रदेश से ( उत् एति ) उदित होता है। (आदित्यः) वह आदित्य (विश्वदृष्टः) सब द्वारा दृष्टिगोचर हुआ है, और (पर्वतेभ्यः) पर्वतों से उदित होता है, और (अदृष्टहा) अदृष्ट क्रिमियों का हनन करता है।

    टिप्पणी

    [सूर्य पर्वतीय प्रदेशों में पर्वतों से, तथा तद्भिन्न प्रदेशों में प्रकाशित द्युभागों से उदित होता है। उदित होने से पूर्व सौरप्रभा से पूर्व का भाग प्रकाशित हो जाता है। सूर्य की उदय काल की, तथा सायंकाल की, लाल रश्मियां रोग कीटाणुओं [क्रिमियों] का हनन करती हैं (अथर्व० २॥३२।१)। अदृष्टहा (अथर्व० २॥३१॥२)। निजूर्वत्= जुर्वी हिंसायाम् (सायण) ]।

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    विषय

    तमोविजय और ऊर्ध्वगति।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (सूर्यः) सूर्य (दिवः) द्युलोक, विशाल आकाश में (पुरः रक्षांसि निजूर्वन्) अपने आगे आये सब विघ्नकारी अन्धकारों और मेघों का नाश करता हुआ (उद् एति) उदित होता है उसी प्रकार यह जीव (सूर्यः) सब इन्द्रियों और शरीर का प्रेरक, विज्ञानवान् होकर (पुरः रक्षांसि निजूर्वन्) अपने आगे आये समस्त विघ्नकर तामस भावों, राजसी विचारों, काम क्रोध आदि आचरणों को जो उसे आगे नहीं बढ़ने देते, उन्हें जीर्ण शीर्ण, छिन्न-भिन्न करता हुआ (दिवः उत् एति) उस तेजोमय ब्रह्म के प्रति उत्तम पद को चला जाता है। और वही (आदित्यः) सब प्राणशक्तियों को अपने भीतर लेने वाला वशी, जितेन्द्रिय, ज्ञानी, सूर्य के समान (अदृष्टहा) उस अ-प्रत्यक्ष परलोक में भी गति करनेवाला होकर (विश्व-दृष्टः) विश्व-सर्वव्यापक प्रभु से दया दृष्टि से देखा जाकर (पर्वतेभ्यः) आवरणकारी मेघों के समान आवरणों से भी (उत् एति) ऊपर चला जाता है। सूर्यपक्ष में—(विश्व-दृष्टः अदृष्टहा सूर्यः पर्वतेभ्यः उद् एति) समस्त प्राणियों को प्रत्यक्ष सूर्य अदृष्ट कष्टों का विनाशक होकर मेघों या पर्वतों के पीछे से उदय होता है।

    टिप्पणी

    १, २ एतयोऋग्वेदे अगस्त्य ऋषिः। अबोषधिसूर्या देवताः। ‘उदपप्तदसौ सूर्यः पुरुविश्वा निजूर्वन्’। ‘आदित्यः पर्वतेभ्यो’। इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भागलिर्ऋषिः। मन्त्रोक्ता बहवो देवताः। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Gifts of the Sun

    Meaning

    Up arises the sun from the regions of light in the east from over the mountains and clouds, destroying the negativities of physical and mental world seen and unseen. It is Aditya, self-refulgent, inviolable, activating and receiving vapours of water and vitalities of the earth, visible to all the world without discrimination. (This is the morning scene.)

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    Subject

    Suryah; Sun

    Translation

    From the mountains, the sun, the Aditya (sun of each month) rising up in the sky killing the germs (of wasting diseases) before him - visible t all and killing the invisible (venomous creatures).

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    Translation

    The sun which draws up the waters by its rays, which is seen to all, which is destroyer of invisible germs, mounts upward in the heaven from the clouds and mountains.

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    Translation

    The Sun, removing all sorts of darkness, seen of all, destroying unseen maladies, mounts upward in the front of heaven, from the mountains.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(उत्) उद्नत्य (सूर्यः) लोकस्य प्रेरको दिनकरः (दिवः) अन्तरिक्षस्य मध्यात् (एति) गच्छति (पुरः) अग्रे (रक्षांसि) अ० १।२१।३। रक्षो रक्षितव्यमस्मात्−निरु० ४।१८। अन्धकारादीन् उपद्रवान् (निजूर्वन्) जुर्वी हिंसायाम्−शतृ। नितरां नाशयन् (आदित्यः) अ० १।९।१। आदीप्यमानः (पर्वतेभ्यः) मेघेभ्यः शैलेभ्यो वा (विश्वदृष्टः) विश्वेन दृष्टः (अदृष्टहा) अ० ५।२३।६। अदृष्टान् अन्धकारयुक्तान् पदार्थान् हन्ति गच्छतीति यः सः ॥

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