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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 54/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अग्नीषोमौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अमित्रदम्भन सूक्त
    3

    इ॒दं तद्यु॒ज उत्त॑र॒मिन्द्रं॑ शुम्भा॒म्यष्ट॑ये। अ॒स्य क्ष॒त्रं श्रियं॑ म॒हीं वृ॒ष्टिरि॑व वर्धया॒ तृण॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । तत् । यु॒जे । उत्ऽत॑रम् । इन्द्र॑म् । शु॒म्भा॒मि॒ । अष्ट॑ये । अ॒स्य । क्ष॒त्रम् । श्रिय॑म् । म॒हीम् । वृ॒ष्टि:ऽइ॑व । व॒र्ध॒य॒ । तृण॑म् ॥५४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं तद्युज उत्तरमिन्द्रं शुम्भाम्यष्टये। अस्य क्षत्रं श्रियं महीं वृष्टिरिव वर्धया तृणम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । तत् । युजे । उत्ऽतरम् । इन्द्रम् । शुम्भामि । अष्टये । अस्य । क्षत्रम् । श्रियम् । महीम् । वृष्टि:ऽइव । वर्धय । तृणम् ॥५४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 54; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राज्य की रक्षा के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रम्) सम्पूर्ण ऐश्वर्यवाले राजा को (अष्टये) इष्टप्राप्ति के लिये (शुम्भामि) सुशोभित करता हूँ, [जिस से] (युजे) उसके मित्र के लिये (इदम्) यह और (तत्) वह (उत्तरम्) अधिक ऊँचा पद होवे। [हे जगदीश्वर !] (अस्य) इस पुरुष के (क्षत्रम्) राज्य और (महीम्) बड़ी (श्रियम्) सम्पत्ति को (वर्धय) बढ़ा, (वृष्टिः इव) जैसे बरसा (तृणम्) घास को ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य को योग्य है कि परमेश्वर के अनुग्रह से धर्म आचरण करता हुआ सर्वत्र अपने राज्य की वृद्धि करे ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(इदम्) समीपस्थम् (तत्) दूरस्थम् (युजे) युजे−क्विप् मित्राय (उत्तरम्) उच्चतरं पदं भवतु (इन्द्रम्) राजानम् (शुम्भामि) शुम्भ शोभायाम्, णिजर्थः। शोभयामि (अष्टये) अशू व्याप्तौ−क्तिन्। इष्टप्राप्तये (अस्य) पुरुषस्य (क्षत्रम्) राज्यम् (श्रियम्) सम्पत्तिम् (महीम्) महतीम् (वृष्टिः) वर्षणम् (इव) यथा (वर्धय) समर्धय (तृणम्) घासम् ॥

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    विषय

    क्षत्रं, श्रियं, महीम्

    पदार्थ

    १. (इदम्) = इस (तत् उत्तरम्) = उस उत्कृष्ट कर्म को (युजे) = अपने साथ जोड़ता है. श्रेष्ठ कर्मों को ही करनेवाला बनता हूँ। 'यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म'-यज्ञादि उत्तम कर्मों को ही अपनाता है। उस (इन्द्रम्) = सर्वशक्तिमान् परमैश्वर्यशाली प्रभु को (अष्टये) = अभिमत फल की प्राप्ति के लिए (शुम्भामि) = अपने में अलङ्कृत करता हूँ। २. हे प्रभो! आप (अस्य) = इस अपने उपासक के (क्षत्रम्) = बल को, (श्रियम्) = श्री को तथा (महीम्) = पूजा की वृत्ति को [मह पूजायाम्] इसप्रकार (वर्धय) = बढ़ाइए, (इव) = जैसेकि (वृष्टिः) = वर्षा (तृणम्) = तृण को बढ़ाती है।

    भावार्थ

    हम उत्तम कर्मों में व्यापृत हों और प्रभु का स्मरण करें। प्रभु हमारे बल, धन व उपासन के भाव को बढ़ाएँ।

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    भाषार्थ

    (उत्तरम्) सर्वोत्कृष्ट (इन्द्रम्)१ इस पुरुष को सम्राट् रूप में (इदम्, तत्) यह मैं२ (युजे) अर्थात् साम्राज्य-शकट की धुरा में युक्त३ करता हूं, जोतता हूं, (अष्टये) फल की प्राप्ति के लिये (शुम्भामि) इसे माला आदि द्वारा मैं सुशोभित करता हूं। हे परमेश्वर ! (अस्य) इसके (क्षत्रम्) क्षतों से त्राण करने के बल को तथा (महीम्) महती (श्रियम्) सम्पत्ति को (वर्धय) तू बढ़ा, (इव) जैसे (वृष्टि:) वर्षा (तृणम्) घास को बढ़ाती है।

    टिप्पणी

    [उत्कृष्ट-पुरुष को सम्राट् बनाने के लिये पुरोहित२ का कथन मन्त्र में हुआ है। "इदम्, तत्" ये दो पद वाक्यालंकार रूप में हैं। अष्टये =अस् गतिदीप्त्यादानेषु, अष् इत्येके; फलादान अर्थ अभिप्रेत है। अशूङू व्याप्तौ (सायण)]। [१. इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा (यजु० ८।३७)। २. सम्राट या साम्राज्य का पुरोहित। ३. राज्याभिषेक की विधि द्वारा (यजु० १०।१-३४)। ]

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    विषय

    राजा की नियुक्ति और कर्तव्य।

    भावार्थ

    (वृष्टिः तृणम् इव) जिस प्रकार वर्षा तृण = घास को बढ़ाती है उसी प्रकार हे इन्द्र राजन् ! (अस्य) इस राष्ट्र के (क्षत्रम्) क्षात्र बल को और (महीम्) बड़ी भारी (श्रियम्) श्री, लक्ष्मी को बढ़ावे। (इदम्) इसी प्रयोजन से (तत्) उस उत्तम पद पर (उत्तरम्) मनुष्यसमाज से उत्कृष्ट (इन्द्रम्) इन्द्र, राजा को (युजे) राज्यकार्य सें नियुक्त करता हूँ और (अष्टये) उत्तम फलों को प्राप्त करने और उत्तम रूप से राष्ट्र पर वश प्राप्त करने के लिये (इन्द्रम्) राजा को (शुम्भाभि) अलंकृत करता हूँ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अग्नीषोमौ देवते। अनुष्टभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Protection and Progress of Rashtra

    Meaning

    I join this and that, the ruler and the higher Rashtra, the socio-governing order, and I refine and anoint the ruler for higher attainments for the Order. O Lord Omnipotent of this cosmic order, I pray, raise his ruling order, his glory, and the splendour of the Order, as rain augments the growth of grass.

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    Subject

    Agni - Soma Pair

    Translation

    I unite this work with a better one. I adore the resplendent Lord for fulfillment of desires. (O resplendent Lord), may you increase the authority, and great splendour of this sacrificer, as the rain helps the growth of grass

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    Translation

    I decorate the king to attain extensive good, so that his friend may attain high state. O God! increase the lofty fame and dominion of the king like the rain which increases the growth of grass.

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    Translation

    Just as rain increases the grass, so shouldst thou, O king, increase the military strength and immense wealth of this country. For this purpose, I appoint the exalted king in this office, and adorn him so that he may carryout the administration efficiently.

    Footnote

    I: Priest.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(इदम्) समीपस्थम् (तत्) दूरस्थम् (युजे) युजे−क्विप् मित्राय (उत्तरम्) उच्चतरं पदं भवतु (इन्द्रम्) राजानम् (शुम्भामि) शुम्भ शोभायाम्, णिजर्थः। शोभयामि (अष्टये) अशू व्याप्तौ−क्तिन्। इष्टप्राप्तये (अस्य) पुरुषस्य (क्षत्रम्) राज्यम् (श्रियम्) सम्पत्तिम् (महीम्) महतीम् (वृष्टिः) वर्षणम् (इव) यथा (वर्धय) समर्धय (तृणम्) घासम् ॥

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