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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - इन्द्रः, द्यावापृथिवी, सविता छन्दः - जगती सूक्तम् - यशः प्राप्ति सूक्त
    1

    य॒शसं॒ मेन्द्रो॑ म॒घवा॑न्कृणोतु य॒शसं॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे इ॒मे। य॒शसं॑ मा दे॒वः स॑वि॒ता कृ॑णोतु प्रि॒यो दा॒तुर्दक्षि॑णाया इ॒ह स्या॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒शस॑म् । मा॒ । इन्द्र॑: । म॒घऽवा॑न् । कृ॒णो॒तु॒ । य॒शस॑म् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । उ॒भे इति॑ । इ॒मे इति॑ । य॒शस॑म् । मा॒ । दे॒व:। स॒वि॒ता । कृ॒णो॒तु॒ । प्रि॒य: । दा॒तु: । दक्षि॑णाया: । इ॒ह । स्या॒म् ॥५८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यशसं मेन्द्रो मघवान्कृणोतु यशसं द्यावापृथिवी उभे इमे। यशसं मा देवः सविता कृणोतु प्रियो दातुर्दक्षिणाया इह स्याम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यशसम् । मा । इन्द्र: । मघऽवान् । कृणोतु । यशसम् । द्यावापृथिवी इति । उभे इति । इमे इति । यशसम् । मा । देव:। सविता । कृणोतु । प्रिय: । दातु: । दक्षिणाया: । इह । स्याम् ॥५८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 58; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    यश पाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (मघवान्) बड़ा धनी (इन्द्रः) परमेश्वर (मा) मुझे (यशसम्) यशस्वी (कृणोतु) करे, (इमे) यह (उभे) दोनों (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी लोक (यशसम्) कीर्तिमान् [करें]। (देवः) व्यवहारकुशल (सविता) विद्याप्रेरक आचार्य (मा) मुझे (यशसम्) यशस्वी (कृणोतु) करे (दक्षिणायाः) दक्षिणा वा प्रतिष्ठा के (दातुः) देनेवाले राजा का (प्रियः) प्रिय (इह) यहाँ पर (स्याम्) मैं रहूँ ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर की महिमा विचार कर पराक्रमपूर्वक संसार के सब पदार्थों से उपकार लेकर और सर्वप्रिय होकर कीर्ति प्राप्त करे ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(यशसम्) अर्शआदित्वाद्−अच्। यशस्विनम्। कीर्तियुक्तम् (मा) माम् (इन्द्रः) परमेश्वरः (मघवान्) मघं धनम्−निघ० २।१०। मतुप्। महाधनी (कृणोतु) करोतु (यशसम्) (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (उभे) (इमे) दृश्यमाने (यशसम्) (मा) (देवः) व्यवहारकुशलः (सविता) विद्याप्रेरक आचार्यः (प्रियः) प्रीतिकरः (दातुः) दानशीलस्य राज्ञः (दक्षिणायाः) दानस्य। प्रतिष्ठायाः (इह) अत्र लोके (स्याम्) भवेयम् ॥

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    विषय

    यशस्वी जीवन

    पदार्थ

    १. (मा) = मुझे (मघवान् इन्द्रः) = ऐश्वर्यशाली सर्वशक्तिमान् प्रभु (यशसं कृणोत) = यशस्वी बनाए। मैं भी ऐश्वर्य व शक्ति से सम्पन्न बनकर यश प्राप्त करे। (इमे उभे) = ये दोनों (द्यावापृथिवी) = धुलोक व पृथिवीलोक (यशसम्) = मुझे यशस्वी बनाएँ। मेरा मस्तिष्करूप द्युलोक ज्ञानसूर्य से दीप्त हो और शरीररूप पृथिवीलोक दृढ़ हो। ये ज्ञानीदीप्ति व शक्ति मुझे यशस्वी बनाएँ। २. (मा) = मुझे (सविता देव:) = प्रेरक व दिव्य गुणों का पुञ्ज प्रभु (यशसं कृणोतु) = यशस्वी करे। मैं प्रभु-प्रेरणा को सुननेवाला बनूं और दिव्य गुणों का अपने में वर्धन करूँ। इसप्रकार ही तो मेरा जीवन यशस्वी बनेगा। मैं (इह) = इस जीवन में (दक्षिणायाः दातु) = सब दक्षिणाओं के देनेवाले उस प्रभु का (प्रियः स्याम्) = प्रिय बनें।

    भावार्थ

    हम 'धन, शक्ति, ज्ञान व शरीर की दृढ़ता' को धारण करते हुए यशस्वी बनें। प्रभु-प्रेरणा को सुनते हुए दिव्य गुणों को धारण करें और उस सर्वप्रद प्रभु के प्रिय बनें।

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    भाषार्थ

    (मघवान्) धनवान् (इन्द्रः) सम्राट (मा) मुझे (यशसम्) यशस्वी (कृणोतु) करे, (इमे उभे) ये दोनों (द्यावापृथिवो) द्युलोक और पृथिवी (यशसम्) यशस्वी करें। (सविता देवः) उत्पादक पितृदेव (मा) मुझे (यशसम्) यशस्वी (कृणोतु) करे ताकि (इह) इस जीवन में (दक्षिणायाः) दक्षिणा के (दातु:) देने वाले का (प्रियः) प्रिय (स्याम्) मैं होऊं।

    टिप्पणी

    [सम्राट् मुझे ऐसे पद पर आरूढ़ करे जिस से मेरा यश बढ़े, मैं ऐसे शुभकर्म करूं जिस से दोनों लोकों में मेरा यश फैले, मेरा पितृदेव मुझे सुशिक्षित करे, जिस से मैं यशस्वी हो जाऊं, और सब के दाता परमेश्वर का मैं प्रिय हो जाऊं। सविता= षु प्रसवे। यशसः= यशः + अच्। अर्श आद्यच् (अष्टा० ५।२।२७)]।

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    विषय

    यश की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् परमेश्वर (मघवान्) सब विभूतियों का स्वामी है, वह (मा) मुझे (यशसं कृणोतु) यशस्वी बनावे। (उभे द्यावापृथिवी) दोनों सूर्य और पृथिवी, ज़मीन और आस्मान (मा यशसं कृणोतु) मुझे यशस्वी बनावें। (देवः सविता) सबका प्रेरक सूर्य देव भी (मा यशसं कृणोतु) मुझे यशस्वी बनावे। और (अहम्) मैं (दक्षिणायाः) दान दक्षिणा और अन्न के (दातुः) देनेवाले पुरुष का (प्रियः स्याम्) प्रिय होकर रहूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यशस्कामोऽथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवता। १ जगती, २ प्रस्तारपंक्तिः। ३ अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Honour of Life

    Meaning

    May Indra, lord of glory, bless me with honour and glory, and so may both these earth and heaven, make me glorious. May Savita, lord of light and life, bless with honour and glory. May I be the dear favourite of the giver of glory here on earth itself.

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    Subject

    As in the Verses

    Translation

    May the bounteous resplendent Lord make. me glorious; glorious both the heaven and earth. May the impeller Lord make me glorious. May 1 become the pleasing donor of gifts.

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    Translation

    May the learned man who is the performer of yajna make me glorious, may the twain of heaven and earth make me adorned with fame, may the mighty sun make me eminent and may I gain the favor of that who gives reward.

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    Translation

    May the Opulent God give me name and glory, May Heaven and Earth this couple, make me famous. May my teacher, the giver of knowledge, make me honored. Here may the king who gives the guerdon love me.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(यशसम्) अर्शआदित्वाद्−अच्। यशस्विनम्। कीर्तियुक्तम् (मा) माम् (इन्द्रः) परमेश्वरः (मघवान्) मघं धनम्−निघ० २।१०। मतुप्। महाधनी (कृणोतु) करोतु (यशसम्) (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (उभे) (इमे) दृश्यमाने (यशसम्) (मा) (देवः) व्यवहारकुशलः (सविता) विद्याप्रेरक आचार्यः (प्रियः) प्रीतिकरः (दातुः) दानशीलस्य राज्ञः (दक्षिणायाः) दानस्य। प्रतिष्ठायाः (इह) अत्र लोके (स्याम्) भवेयम् ॥

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