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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    3

    यो॒स्मान्ब्र॑ह्मणस्प॒तेऽदे॑वो अभि॒मन्य॑ते। सर्वं॒ तं र॑न्धयासि मे॒ यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒स्मान् । ब्र॒ह्म॒ण॒: । प॒ते॒ । अदे॑व: । अ॒भि॒ऽमन्य॑ते । सर्व॑म् । तम् । र॒न्ध॒या॒सि॒। मे॒ । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    योस्मान्ब्रह्मणस्पतेऽदेवो अभिमन्यते। सर्वं तं रन्धयासि मे यजमानाय सुन्वते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अस्मान् । ब्रह्मण: । पते । अदेव: । अभिऽमन्यते । सर्वम् । तम् । रन्धयासि। मे । यजमानाय । सुन्वते ॥६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रु के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (ब्रह्मणः पते) हे ब्रह्माण्ड के रक्षक ! (यः) जो (अदेवः) नास्तिक वा कुव्यवहारी पुरुष (अस्मान्) हम से (अभिमन्यते) अभिमान करता है। (तम्) उस (सर्वम्) सब को (सुन्वते) तत्त्वमन्थन करनेवाले, (यजमानाय) विद्वानों का आदर करनेवाले (मे) मेरे लिये (रन्धयासि) वश में कर ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर का ध्यान करता हुआ विवेकपूर्वक यथावत् परीक्षा करके विघ्नों का नाश करे ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(यः) (अस्मान्) धार्मिकान् प्रति (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्डस्य जगतः (पते) रक्षक परमात्मन् (अदेवः) नास्तिकः कुव्यवहारी वा (अभिमन्यते) अभिमानं करोति (सर्वम्) निःशेषम् (तम्) अदेवम् (रन्धयासि) रध्यतिर्वशगमने−निरु० १०।४०। रध हिंसासंराद्ध्योः−ण्यन्ताल्लेटि, आडागमः। रधिजभोरचि। पा० ७।१।६१। इति नुम्। वशीकुर्याः (मे) मह्यम् (यजमानाय) देवपूजकाय। संयोजकवियोजकाय (सुन्वते) अ० ४।३०।६। तत्त्वमन्थनं कुर्वते ॥

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    विषय

    यजमानाय सुन्वते

    पदार्थ

    १. हे (ब्रह्मणस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो। (य:) = जो (अदेव:) =  अदेववृत्ति का पुरुष-अयज्ञ शोल पुरुष (अस्मान् अभिमन्यते) = हमें नीचे करने की इच्छा करता है, (तं सर्वम्) = उन सब शत्रुओं को (यजमानाय) = यज्ञशील (सुन्वते) = सोम का सम्पादन करनेवाले (मे) = मेरे लिए (रन्धयासि) = वशीभूत कीजिए।

    भावार्थ

    हे ज्ञान के स्वामिन् प्रभो! हम यज्ञशील व सोम का रक्षण करनेवाले हों। हम अदेवृत्ति के व्यक्तियों के वशीभूत न हो जाएँ।

     

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    भाषार्थ

    (ब्रह्मणस्पते) हे वेदविद्या के विद्वन् (यः ) जो ( देवः ) परमेश्वर: देव को न मानने वाला अर्थात् नास्तिक, (अस्मान्) हमारे प्रति (अभि मन्यते) [शक्तिमान् होने का] अभिमान करता है (तम्, सर्वम् ) उस सब को, (सुन्वते) भक्तिरस वाले, ( यजमानाय) देवपूजा, सङ्गति करने वाले तथा दानी (मे) मेरे लिये (रन्धयासि) तू वश में कर दे।

    टिप्पणी

    [अस्मान् =हम प्रजाजन। मे =प्रजाजनों के राजा। सुन्वते = देखो (६।२।३) । रन्धयासि =रधिः वशगमने (निरुक्त १०।४।३९ ) यजमानाय = यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु (भ्वादिः)]।

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    विषय

    दुष्टों के दमन की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे (ब्रह्मणः पते) ब्रह्म वेद के स्वामिन् ! (यः) जो (अदेवः) स्वतः देव अर्थात् विद्वान् न होकर (अस्मान्) हमें (अभि मन्यते) अपमानित करता है। (तं सर्वम्) उन सबको (सुन्वते) सोम सवन करने वाले (मे) मुझ (यजमानाय) यजमान, देवोपासक के (रन्ध्रयासि) वश कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। ब्रह्मणस्पतिर्देवता, सोमश्च। १-३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Elimination of Enemies

    Meaning

    Brahmanaspati, lord of expansive universe and the Vedic Word, whoever the man, the negationist, who insults us out of arrogance, subdue him wholly for our sake and for the yajamana who prepares the soma and does homage to you on the vedi.

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    Subject

    Brahmanaspati

    Translation

    O lord of knowledge divine, whosoever an undivine person plans to harm us, may you subjugate every such person to one, the sacrificer, the offerer of devotional bliss.

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    Translation

    O master of Vedic speech! please bring to our control the impious ones who ever plot against us, the performer of yajna and producer of Soma for that.

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    Translation

    Lord of the universe, place the man who disgraces us, under my control, who performs the yajna with Soma juice!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(यः) (अस्मान्) धार्मिकान् प्रति (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्डस्य जगतः (पते) रक्षक परमात्मन् (अदेवः) नास्तिकः कुव्यवहारी वा (अभिमन्यते) अभिमानं करोति (सर्वम्) निःशेषम् (तम्) अदेवम् (रन्धयासि) रध्यतिर्वशगमने−निरु० १०।४०। रध हिंसासंराद्ध्योः−ण्यन्ताल्लेटि, आडागमः। रधिजभोरचि। पा० ७।१।६१। इति नुम्। वशीकुर्याः (मे) मह्यम् (यजमानाय) देवपूजकाय। संयोजकवियोजकाय (सुन्वते) अ० ४।३०।६। तत्त्वमन्थनं कुर्वते ॥

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