अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 61/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - रुद्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विश्वस्रष्टा सूक्त
1
मह्य॒मापो॒ मधु॑म॒देर॑यन्तां॒ मह्यं॒ सूरो॑ अभर॒ज्ज्योति॑षे॒ कम्। मह्यं॑ दे॒वा उ॒त विश्वे॑ तपो॒जा मह्यं॑ दे॒वः स॑वि॒ता व्यचो॑ धात् ॥
स्वर सहित पद पाठमह्य॑म् । आप॑: । मधु॑ऽमत् । आ । ई॒र॒य॒न्ता॒म् । मह्य॑म् । सुर॑: । अ॒भ॒र॒त् । ज्योति॑षे । कम् । मह्य॑म् । दे॒वा: । उ॒त । विश्वे॑ । त॒प॒:ऽजा: । मह्य॑म् । दे॒व: । स॒वि॒ता । व्यच॑: । धा॒त् ॥६१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
मह्यमापो मधुमदेरयन्तां मह्यं सूरो अभरज्ज्योतिषे कम्। मह्यं देवा उत विश्वे तपोजा मह्यं देवः सविता व्यचो धात् ॥
स्वर रहित पद पाठमह्यम् । आप: । मधुऽमत् । आ । ईरयन्ताम् । मह्यम् । सुर: । अभरत् । ज्योतिषे । कम् । मह्यम् । देवा: । उत । विश्वे । तप:ऽजा: । मह्यम् । देव: । सविता । व्यच: । धात् ॥६१.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(मह्यम्) मेरे लिये (आपः) व्यापनशील जल (मधुमत्) मधुरपन से (आ ईरयन्ताम्) आकर बहें, (मह्यम्) मेरे लिये (सूरः) लोकों को चलानेवाले सूर्य ने (ज्योतिषे) ज्योति करने को (कम्) सुख (अभरत्) धारण किया है। (उत) और (मह्यम्) मेरे लिये (तपोजाः) तप से उत्पन्न होनेवाले (विश्वे) सब (देवाः) उत्तम गुण हैं, (मह्यम्) मेरे लिये (देवः) व्यवहार में चतुर (सविता) ऐश्वर्यवान् मनुष्य ने (व्यचः) विस्तार (धात्=अधात्) धारण किया है ॥१॥
भावार्थ
परमेश्वर कहता है कि संसार के सब पदार्थ मेरी आज्ञा में रहकर संसार का उपकार करते हैं ॥१॥
टिप्पणी
१−(मह्यम्) मदर्थम्। ममाज्ञापालनायेत्यर्थः (आपः) व्याप्तिशीला जलधाराः (मधुमत्) यथा तथा माधुर्य्येण (आ) समन्तात् (ईरयन्ताम्) गच्छन्तु (मह्यम्) (सूरः) अ० ४।२।४। लोकप्रेरकः सूर्यः (अभरत्) अधरत् (ज्योतिषे) अ० १।९।१। प्रकाशदानाय (कम्) सुखम्−निघ० ३।६। (मह्यम्) (देवाः) उत्तमगुणाः (उत) अपि च (विश्वे) सब (तपोजाः) तपसः सामर्थ्याज् जाताः (मह्यम्) (देवः) व्यवहारकुशलः (सविता) ऐश्वर्यवान् मनुष्यः (व्यचः) अ० ४।१९।६। व्याप्तिम् (धात्) लुङि रूपम्। अधात्। धृतवान् ॥
विषय
माधुर्य, ज्योति, व्यचस् [व्यापकता, उदारता]
पदार्थ
१. (आप:) = जल (मह्यम्) = मेरे लिए (मधुमत् एरयन्ताम्) = अपने माधुर्योपेत रस को प्राप्त कराएँ तथा (सूरः) = सूर्य (महाम्) = मेरे लिए कम्-सुखकर आत्मीय तेज को (ज्योतिषे) = प्रकाश के लिए (अभरत्) = प्राप्त कराता है। जल व सूर्य मुझमें क्रमश: माधुर्य व ज्योति स्थापित करते हैं, २. (उत्त) = और (तपोजा:) = तप से शक्तियों का प्रादुर्भाव करनेवाले (विश्वेदेवाः) = सब देव [विद्वान्] (मह्यम्) = मेरे लिए (व्यच:) = व्यापन-विस्तार व उदारता को (धात्) = धारण करें। वह (सविता देव:) सबका प्रेरक, दिव्य गुणों का पुञ्ज प्रभु भी (महाम्) = मेरे लिए उदारता को धारण करानेवाला हो।
भावार्थ
स्वाभाविक सरल जीवन बिताते हुए हम जलों से माधुर्य तथा सूर्य से ज्योति प्राप्त करें। 'माता-पिता, आचार्य व प्रभु' मुझे उदार-विशाल हृदय बनाएँ।
भाषार्थ
(मह्यम्) मेरे१ लिये (आप:) [नदियों के] जल, (मधुमत्) मधुर-जल (एरयन्ताम्) प्रेरित करें, प्रवाहित करें; मह्यम्, ज्योतिषे) मुझ ज्योतिः स्वरूप के लिये (सूरः) सूर्य (कम्) सुखप्रद [रश्मि समूह] को (अभरत्) धारण किये हुए है। (मह्यम्) मेरे लिये हैं (देवा:) देव२ (उत) तथा (विश्वे) सब (तपोजाः) ताप से उत्पन्न [नक्षत्र-तारागण]; (मह्यम्) मेरे लिये (देवः सविता) द्युतिमान् सविता ने (व्यचः) विस्तार (धात्) स्थापित किया है।
टिप्पणी
[मन्त्र में “मह्यम्" द्वारा परमेश्वर ने अपने-आप को सूचित किया है। वही अथर्वा है, "यर्वतिः चरतिकर्मा तत्प्रतिषधः" (निरुक्त ११।२।१९)। परमेश्वर अथर्वा है, निश्चल है, कूटस्थ है। अथर्वा, मानुष-ऋषि नहीं। "ज्योतिष" अथवा सौर मण्डल के प्रकाश के लिये। सविता है प्रत्यग्र उदित सूर्य जब कि आकाश तो चमक जाता है, परन्तु पृथिवी पर अभी अन्धकार शेष रहता है (निरुक्त १२।२।१४)। सविता के उदय होने से पूर्व अन्धकार था, दूर की वस्तु दीखती न थी। सविता के उदय होने पर दूर-दूर की वस्तुएं दीखने लगीं, यह अभिप्राय है "व्यचो धात्" का]। [१. मेरी प्रसन्नता के लिये, या मेरी आशा के पालन के लिये; आज्ञाभंग होने पर हम सूर्यादिदेव दण्डित न हो जाय इस भय से, यथा "भवादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः। भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धाविति पंञ्चमः। २. अथवा देवाः विद्वांसः, तपोजाः तपस्विनः]
विषय
ईश्वर का स्वतः विभूति-परिदर्शन।
भावार्थ
(आपः) सब लोक या समस्त प्रजाएं या जल (मह्यम्) मेरे निमित्त (मधुमत्) मधुरता अमृतयुक्त रस को (आ-ईरयन्ताम्) प्राप्त करावें अथवा (आपः) आश पुरुष मेरे निमित्त (मधुमत्) ब्रह्ममय ज्ञान का उपदेश करें। और (सूरः) सबका उत्पादक, प्रेरक सूर्य या परमात्मा और विद्वान् (मह्यम्) मेरे निमित्त (ज्योतिषे) सर्व पदार्थों के प्रकाशित करने के लिये अपनी ज्योति को (अभरत् कम्) निश्चय से धारण करें। (उत) और (विश्व) समस्त (तपोजाः) तप से उत्पन्न होने वाले तपस्वी (देवाः) विद्वान् पुरुष और (सविता) सूर्य के समान (देवः) विद्वान् आचार्य (मह्यम्) मुझे (व्यचः) सर्वव्यापक, ब्रह्मज्ञान या विशेष ज्ञातव्य ज्ञान का (ध्रात्) प्रदान करे या धारण करावे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। त्रिष्टुभः २-३ भुरिजौ। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Lord Supreme
Meaning
For me, to my purpose and self-fulfilment, for my self-manifestation, let the dynamics of Nature flow, bearing the honey sweets of existence. For me does the sun bear and bring the joy of life and light for the world to see. For me do all divinities of the world born of cosmic will through tapas, the crucibles of evolution, act in unison, and for me does Savita, cosmic creativity, create, hold and sustain the expansive universe. (For Tapas, divine heat and desire of Lord Supreme, Parameshvara, see Rgveda 10, 190, and Shatapatha 6, 1, 3, 1: The flow of existence starts with tapas, will of the Surpeme Purusha.)
Subject
Rudrah
Translation
May the waters, full of sweetness, flow for me; may the sun bring pleasant light to illumine (to enlighten) me; may all the enlightened ones, (born of) practising austerities, and also the divine impeller Lord, grant me what is desirable for me.
Translation
God says—the waters flow with sweet and pleasure to give my clue, the sun fills up the space with light to give the clue of my Power, all the physical forces, and all the energies due to heat operate in the world to prove my existence and the mighty air upholds the enormous bodies of the space to make one realize my glory.
Translation
In obedience to My order, the sweet waters flow. In obedience to My order, the sun has filled all directions with rays. In obedience to My order, all austere learned persons and a brilliant teacher expand their knowledge.
Footnote
My: God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(मह्यम्) मदर्थम्। ममाज्ञापालनायेत्यर्थः (आपः) व्याप्तिशीला जलधाराः (मधुमत्) यथा तथा माधुर्य्येण (आ) समन्तात् (ईरयन्ताम्) गच्छन्तु (मह्यम्) (सूरः) अ० ४।२।४। लोकप्रेरकः सूर्यः (अभरत्) अधरत् (ज्योतिषे) अ० १।९।१। प्रकाशदानाय (कम्) सुखम्−निघ० ३।६। (मह्यम्) (देवाः) उत्तमगुणाः (उत) अपि च (विश्वे) सब (तपोजाः) तपसः सामर्थ्याज् जाताः (मह्यम्) (देवः) व्यवहारकुशलः (सविता) ऐश्वर्यवान् मनुष्यः (व्यचः) अ० ४।१९।६। व्याप्तिम् (धात्) लुङि रूपम्। अधात्। धृतवान् ॥
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