अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 72/ मन्त्र 1
यथा॑सि॒तः प्र॒थय॑ते॒ वशाँ॒ अनु॒ वपूं॑षि कृ॒ण्वन्नसु॑रस्य मा॒यया॑। ए॒वा ते॒ शेपः॒ सह॑सा॒यम॒र्कोऽङ्गे॒नाङ्गं॒ संस॑मकं कृणोतु ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । अ॒सि॒त: । प्र॒थय॑ते। वशा॑न् । अनु॑ । वपूं॑षि । कृ॒ण्वन् । असु॑रस्य । मा॒यया॑ । ए॒व । ते॒ । शेप॑: । सह॑सा ।अ॒यम् । अ॒र्क:। अङ्गे॑न । अङ्ग॑म् । सम्ऽस॑मकम् । कृ॒णो॒तु॒॥७२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यथासितः प्रथयते वशाँ अनु वपूंषि कृण्वन्नसुरस्य मायया। एवा ते शेपः सहसायमर्कोऽङ्गेनाङ्गं संसमकं कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । असित: । प्रथयते। वशान् । अनु । वपूंषि । कृण्वन् । असुरस्य । मायया । एव । ते । शेप: । सहसा ।अयम् । अर्क:। अङ्गेन । अङ्गम् । सम्ऽसमकम् । कृणोतु॥७२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राज्य बढ़ाने का उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जिस प्रकार से (असितः) बन्धनरहित, स्वतन्त्र परमात्मा (वशान् अनु) अपने वशवर्त्ती प्राणियों के लिये (असुरस्य) बुद्धिमान् की (मायया) बुद्धि से (वपूंषि) अनेक शरीरों को (कृण्वन्) बनाता हुआ (प्रथयते) विस्तार करता है। (एव) वैसे ही (अयम्) यह (अर्कः) मन्त्र [विचार] (ते) तेरे (शेपः) सामर्थ्य को (सहसा) सहनशक्ति के साथ और (अङ्गम्) अङ्ग को (अङ्गेन) अङ्ग के साथ (संसमकम्) भली-भाँति संयुक्त (कृणोतु) करे ॥१॥
भावार्थ
जैसे परमेश्वर ने अपनी बुद्धिमत्ता से जगत् को रचकर महा उपकार किया है, वैसे ही मनुष्य वेदों के विचार से अपनी शक्ति बढ़ा कर बढ़ती करें ॥१॥
टिप्पणी
१−(यथा) येन प्रकारेण (असितः) अबद्धः। मुक्तस्वभावः परमेश्वरः (प्रथयते) विस्तारं करोति (वशान्) वशवर्त्तिनो जीवान् (अनु) अनुलक्ष्य (वपूंषि) शरीराणि (कृण्वन्) रचयन् (असुरस्य) अ० १।१०।१। असुरिति प्रज्ञानाम−निरु० १०।३४। रो मत्वर्थीयः। प्रज्ञावतः पुरुषस्य (मायया) अ० २।२९।६। प्रज्ञया−निघ० २।९। (एव) एवम् (ते) तव (शेपः) अ० ४।३७।७। शीङ् शयने−प। शेते, शरीरे वर्तते। सामर्थ्यम् (सहसा) षह मर्षणे−असुन्। सहनशक्त्या (अयम्) प्रसिद्धः (अर्कः) अ० ३।३।२। अर्च पूजायाम्−क। अर्को मन्त्रो भवति यदनेनार्चन्ति−निरु० ५।४। विचारः। वेदविवेकः (अङ्गेन) शरीरावयवेन (अङ्गम्) शरीरावयवम् (संसमकम्) अञ्चु गतौ याचने च−अच्। न्यङ्क्वादीनां च। पा० ७।३।५३। इति कुत्वम्। सम्यक् संगतम् (कृणोतु) करोतु ॥
विषय
असितः, शेपः, अर्कः
पदार्थ
१. (यथा) = जैसे (असित:) = विषयों में अबद्ध राजा (वशान् अनु) = जितना-जितना अपनी इन्द्रियों को वश में करता है, उतना-उतना (प्रथयते) = अपने राज्य को विस्तृत करता है। यह राजा (अ-सुरस्य) = [प्रज्ञा-नि०३.९] प्रज्ञा के पुञ्ज प्रभु की (मायया) = प्रज्ञा से (वंपषी कृण्वन्) = अपने शरीरों का निर्माण करता है। अपने स्थूल, सूक्ष्म व कारणशरीरों को ठीक करता हुआ यह राजा अपने राष्ट्र को भी विस्तृत करता है। २. (एव) = इसप्रकार हे राष्ट्र! (ते शेप:) = तेरा निर्माण करनेवाला (अर्क:) = प्रभु का उपासक यह राजा (सहसा) = शक्ति के द्वारा (अङ्गन अङ्गम्) = राष्ट्र के एक अङ्गको दूसरे अङ्ग से (सं सम् अकम्) = मिलकर गति करनेवाला (कृणोतु) = करे। राष्ट्र के सब विभागों में परस्पर समन्वय [co-ordination] होना आवश्यक ही है।
भावार्थ
राजा विषयों से अबद्ध [असित्] हो, अपनी इन्द्रियों को वश में करता हुआ राष्ट्र का निर्माण करनेवाला हो [शेपः], प्रभुपूजा की वृत्तिवाला हो [अर्क:]। अपने शरीर को स्वस्थ बनाता हुआ राज्य के सब अङ्गों में समन्वय करनेवाला हो।
भाषार्थ
(यथा) जैसे (असुरस्य) प्राणप्रदाता परमेश्वर की (मायया) प्रज्ञा द्वारा, (असितः) बन्धन रहित अर्थात् सीमा रहित आकाश (प्रथयते) प्रथित होता है, विस्तृत होता है, और (वशान् अनु) कामनानुसार (वपूंषि) नानाविध शरीरों का (कृण्वन्) वह परमेश्वर पैदा करता है, (एवा) इसी प्रकार (सहसा) साहस द्वारा (ते) हे राजन् ! तेरा (शेपः) राज्य, (अयम् अर्कः) जो कि इस सूर्य की तरह ज्ञान प्रकाश से प्रकाशित हुआ है [प्रथयते] फैलता है, यह तेरा राज्य (अङ्गेन अङ्गम्१) राज्य के प्रत्येक अंग के साथ अन्य अंग को (सम्, सम्, अकम्) परस्वर संगत अर्थात् मेलयुक्त (कृणोतु) करे।
टिप्पणी
[असुरस्य= असुः प्रज्ञानाम (निघन० ३।९) +र (रा दाने अदादि:)। असितः= अ +षिञ् बन्धने (स्वादिः) + क्तः। वशान् = वश कान्तौ, कान्तिः इच्छा कामना। शेप: =पसः = राष्ट्रम् यथा "विड़ वै गभो राष्ट्रं पसः" (श० ब्रा० १३।२।९।६) । कृण्वन् "भवति"]। [१. यथा "विशो मेऽङ्गानि सर्वत (यजु० २०॥८), अर्थात् राष्ट्र में सर्वत्र फैली भिन्न-भिन्न प्रजाएं मेरे अङ्गरूप हैं। ये शरीर के अङ्गों की तरह परस्पर मिली रहें।]
विषय
प्रजनन अंगों की पूर्ण वृद्धि।
भावार्थ
(यथा) जिस प्रकार (असितः) बन्धनरहित आत्मा (असुरस्य) असुर, मन की (मायया) माया = निर्माण शक्ति या बुद्धि से (वपूंषि कृण्वन्) अपने देहों को रचता हुआ (वशान् अनु) अपने वश हुए अंगों को या प्राणों को देह में (प्रथयते) विस्तृत करता है, फैलाता है, प्रेरित करता है (एव) उसी प्रकार (अंगेन अङ्गम्) जिस प्रकार एक अंग से दूसरे अंग को समता प्राप्त है (अयम्) यह (अर्कः) आत्मा पुरुष (ते) तेरे (शेपः) ज्ञान सामर्थ्य या प्रजननाङ्ग को (सहसा) बल से (सं समकम्) ठीक ठीक अनुपात में (कृणोतु करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। शेपोऽर्को देवता। १ जगती। २ अनुष्टुप्। ३ भुरिगनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Manliness
Meaning
Just as the Lord Creator of boundless will and freedom creates, designs, builds and expands the bodies of creatures by the immanent will and intelligence of nature, so may the divine natural process shape and build your organs strong and virile in proportion to the strength of all other parts of the body.
Subject
Sepah- Arka (herb)
Translation
As a black snake (cobra) expands himself at will, making various forms by: the tricks of the snake-charmer (asura), even so may this arka herb make your male organ corresponding to the female organ by its strength.
Translation
[N.B. In this hymn the verses describe some facts concerned with house-hold life and sexual science. It has been instructed to men that everyone should observe the law of nature and celibacy to keep his organ in proper form. By misuse of the organ it becomes out of form and control. Example has been given of animals and birds to give lesson to men that they should keep their organ of progeny accordant with their statures as these animals etc. have their organs according to the stature of body.] God who is free from all sort of bondage making the bodies for all the creatures under His control creates their statures with the wisdom of His omniscience as proportionate as it could be, so He makes the genital organ endowed with vigor of yours endowed with vigor, O man! in proportion to the stature of the one limb with other limb.
Translation
Just as the Unfettered God, for the sake of living beings under Him, with the intellect of an intellectual, creating innumerable bodies, expands the universe, so does this Vedic discernment add to thy strength and unite limb with limb.
Footnote
Just as God has rendered unique service to humanity by creating the universe through His wisdom, so should men through Vedic knowledge enhance their strength and develop their bodies.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यथा) येन प्रकारेण (असितः) अबद्धः। मुक्तस्वभावः परमेश्वरः (प्रथयते) विस्तारं करोति (वशान्) वशवर्त्तिनो जीवान् (अनु) अनुलक्ष्य (वपूंषि) शरीराणि (कृण्वन्) रचयन् (असुरस्य) अ० १।१०।१। असुरिति प्रज्ञानाम−निरु० १०।३४। रो मत्वर्थीयः। प्रज्ञावतः पुरुषस्य (मायया) अ० २।२९।६। प्रज्ञया−निघ० २।९। (एव) एवम् (ते) तव (शेपः) अ० ४।३७।७। शीङ् शयने−प। शेते, शरीरे वर्तते। सामर्थ्यम् (सहसा) षह मर्षणे−असुन्। सहनशक्त्या (अयम्) प्रसिद्धः (अर्कः) अ० ३।३।२। अर्च पूजायाम्−क। अर्को मन्त्रो भवति यदनेनार्चन्ति−निरु० ५।४। विचारः। वेदविवेकः (अङ्गेन) शरीरावयवेन (अङ्गम्) शरीरावयवम् (संसमकम्) अञ्चु गतौ याचने च−अच्। न्यङ्क्वादीनां च। पा० ७।३।५३। इति कुत्वम्। सम्यक् संगतम् (कृणोतु) करोतु ॥
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