अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 76/ मन्त्र 1
ऋषिः - कबन्ध
देवता - सान्तपनाग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - आयुष्य सूक्त
1
य ए॑नं परि॒षीद॑न्ति समा॒दध॑ति॒ चक्ष॑से। सं॒प्रेद्धो॑ अ॒ग्निर्जि॒ह्वाभि॒रुदे॑तु॒ हृद॑या॒दधि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठये । ए॒न॒म् । प॒रि॒ऽसीद॑न्ति । स॒म्ऽआ॒दध॑ति । चक्ष॑से । स॒म्ऽप्रेध्द॑: । अ॒ग्नि: । जि॒ह्वाभि॑: । उत् । ए॒तु॒ । हृद॑यात् । अधि॑ ॥७६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
य एनं परिषीदन्ति समादधति चक्षसे। संप्रेद्धो अग्निर्जिह्वाभिरुदेतु हृदयादधि ॥
स्वर रहित पद पाठये । एनम् । परिऽसीदन्ति । सम्ऽआदधति । चक्षसे । सम्ऽप्रेध्द: । अग्नि: । जिह्वाभि: । उत् । एतु । हृदयात् । अधि ॥७६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आयु बढ़ाने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो पुरुष (चक्षसे) दर्शन के लिये (एनम्) इस [अग्नि] की (परिषीदन्ति) सेवा करते और (समादधति) ध्यान करते हैं। (संप्रेद्धः) [उन करके] अच्छे प्रकार प्रकाशित किया हुआ (अग्निः) अग्नि (जिह्वाभिः) अपनी जिह्वाओं के सहित (हृदयात्) हमारे हृदय से (अधि) अधिकारपूर्वक (उदेतु) उदय होवे ॥१॥
भावार्थ
जो विद्वान् सूर्य, बिजुली आदि अग्नि के गुणों को जानते हैं, उनसे अग्निविद्या प्राप्त करके मनुष्य संसार में फैलावें ॥१॥
टिप्पणी
१−(ये) पुरुषाः (एनम्) अग्निम् (परिषीदन्ति) सेवन्ते (समादधति) समाहितं कुर्वन्ति। ध्यायन्ति (चक्षसे) दर्शनाय (संप्रेद्धः) तैः प्रकर्षेण संदीपितः (अग्निः) सूर्यविद्युदादिरूपः (जिह्वाभिः) स्वज्वालाभिः (उदेतु) उद्गच्छतु (हृदयात्) अस्माकमन्तःकरणात् (अधि) अधिकृत्य ॥
विषय
अग्नि का समिन्धन
पदार्थ
१. (ये) = जो (एनम्) = इस परमात्मरूप अग्नि के (परिषीदन्ति) = उपासन के लिए आसीन होते हैं तथा (चक्षसे) = आत्मदर्शन के लिए (समादधति) = इन्द्रियों को समाहित करते हैं, उस समय (हृदयात् अधि) = हृदयदेश (संप्रेद्धः) = दीप्त हुआ-हुआ (अग्नि: जिहाभिः उदेतु) = यह परमात्मरूप अग्नि उपासकों की जिहवाओं से उदित हो-उपासकों की जिलाओं से प्रभु के नामों का उच्चारण हो।
भावार्थ
प्रभु-दर्शन के लिए हम प्रभु की उपासना करें, इन्द्रियों को विषयों से हटाकर उन्हें समाहित करें, वाणी से प्रभु के नामों का उच्चारण करें।
भाषार्थ
(ये) जो (एनम्) इस [क्षत्रिय मन्त्र ३, ४] के (परिषोदन्ति) चारों ओर बैठते हैं, और (चक्षसे) [अग्नि के] दर्शन के लिये (समादधति) समाहितचित्त होते हैं, उनकी (जिह्वाभि:) जिह्वाओं अर्थात् वाक्यों या भाषणों द्वारा (संप्रेद्धः) सम्यक् प्रदीप्त हुई (अग्निः) क्षात्राग्ति (हृदयात् अधि) क्षत्रिय के हृदय से (उदेतु) उद्गत हो, उठे।
टिप्पणी
[सूक्त के चारों मन्त्रों के वर्णन कविता में हैं और छायावादानुरूप हैं। जिह्वाभिः= जिह्वा वाङ्नाम (निघं० १।११)। शत्रुओं द्वारा किये गये आक्रमण को सह्य न जानते हुए, क्षत्रिय के हृदय से जो क्षात्राग्नि उद्गत होती है उसके दर्शन के लिये क्षत्रिय के चारों ओर बैठे सैनिकों के उत्साह जनक भाषणों द्वारा यह क्षात्राग्नि सम्यक प्रदीप्त होकर क्षत्रिय के हृदय से उठती है और प्रजाजन इस अग्नि का दर्शन ध्यानपूर्वक करते हैं।]
विषय
ब्राह्मणरूप सांतपन अग्नि का वर्णन।
भावार्थ
ब्राह्मणरूप अग्नि का वर्णन करते हैं। (ये) जो लोग (एनम्) इस ब्राह्मणरूप सांतपन अग्नि के (परि षीदन्ति) चारों ओर बैठते हैं और उससे उपदेश लेते हैं और (चक्षसे) सम्यग् दर्शन के लिये (सम् आदधति) उस ब्राह्मण का उत्तम रीति से आधान करते हैं, उसकी प्रतिष्ठा करते हैं। साक्षात् (अग्निः) अग्नि = आग जिस प्रकार अपनी ज्वालाओं से प्रकाशित होता है उसी प्रकार वह भी (सं-प्र-इद्धः) उत्तम रीति से उत्कृष्ट ज्ञान से प्रकाशित होकर (हृदयाद् अधि) अपने शुद्ध अन्तःकरण से निकलने वाली (जिह्वाभिः) ज्ञानमय वाणियों से (उत् एतु) उदित हो, प्रकट हो, सबको ज्ञान का उपदेश करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कबन्ध ऋषिः। सांतपनोऽग्निर्देवता। १, २, ४, अनुष्टुभः। ३ ककुम्मती अनुष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Armour of Fire
Meaning
Agni, well lighted within, rises in flames and shines in and over their hearts who light the sacred fire of divinity with love and faith, sit round it and meditate for the light divine.
Subject
Santapana - Agnih
Translation
Those who sit around him and who pile up fuel to see him - ` may the fire-divine blazing with flames, rise up from their. heart.
Translation
Those who sit round this santapanagni, the fire of sacraments establish it for the attainment of Knowledge. Let this fire thoroughly inflamed with all its tongues rise from the bottom of heart.
Translation
Those persons who sit round this austere Brahmin and get instructions from him, look upon him with respect. Just as fire is kindled with its flames, so this austere Brahmin kindled with his excellent knowledge should preach to all wisdom that proceeds from his pure heart in the form of words full of learning.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(ये) पुरुषाः (एनम्) अग्निम् (परिषीदन्ति) सेवन्ते (समादधति) समाहितं कुर्वन्ति। ध्यायन्ति (चक्षसे) दर्शनाय (संप्रेद्धः) तैः प्रकर्षेण संदीपितः (अग्निः) सूर्यविद्युदादिरूपः (जिह्वाभिः) स्वज्वालाभिः (उदेतु) उद्गच्छतु (हृदयात्) अस्माकमन्तःकरणात् (अधि) अधिकृत्य ॥
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