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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 77 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 77/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कबन्ध देवता - जातवेदा अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्रतिष्ठापन सूक्त
    1

    अस्था॒द् द्यौरस्था॑त्पृथि॒व्यस्था॒द्विश्व॑मि॒दं जग॑त्। आ॒स्थाने॒ पर्व॑ता अस्थु॒ स्थाम्न्यश्वाँ॑ अतिष्ठिपम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्था॑त् । द्यौ: । अस्था॑त् । पृ॒थि॒वी । अस्था॑त् । विश्व॑म् । इ॒दम् । जग॑त् । आ॒ऽस्थाने॑ । पर्व॑ता: । अ॒स्थु॒: । स्थाम्नि॑ । अश्वा॑न् । अ॒ति॒ष्ठि॒प॒म् ॥७७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्थाद् द्यौरस्थात्पृथिव्यस्थाद्विश्वमिदं जगत्। आस्थाने पर्वता अस्थु स्थाम्न्यश्वाँ अतिष्ठिपम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्थात् । द्यौ: । अस्थात् । पृथिवी । अस्थात् । विश्वम् । इदम् । जगत् । आऽस्थाने । पर्वता: । अस्थु: । स्थाम्नि । अश्वान् । अतिष्ठिपम् ॥७७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 77; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    संपदा पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (द्यौः) सूर्य लोक (अस्थात्) ठहरा हुआ है, (पृथिवी) पृथिवी (अस्थात्) ठहरी हुई है, (इदम्) यह (विश्वम्) सब (जगत्) जगत् (अस्थात्) ठहरा हुआ है। (पर्वताः) सब पर्वत (आस्थाने) विश्रामस्थान में (अस्थु) ठहरे हुए हैं। (अश्वान्) घोड़ों को (स्थाम्नि) स्थान पर (अतिष्ठिपम्) मैंने खड़ा कर दिया है ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे मनुष्य घोड़े आदि पशुओं को रसरी से बाँधता है, वैसे ही सूर्य आदि लोक परमेश्वरनियम से परस्पर आकर्षण द्वारा स्थित हैं, वैसे ही मनुष्यों को धार्मिक कर्मों के लिये सदा कटिबद्ध रहना चाहिये ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अस्थात्) तिष्ठति स्म (द्यौः) सूर्यलोकः (अस्थात्) (पृथिवी) (अस्थात्) (विश्वम्) सर्वम् (इदम्) दृश्यमानम् (जगत्) (आस्थाने) विश्रामस्थाने (पर्वताः) शैलाः (अस्थुः) स्थिता अभवन् (स्थाम्नि) आतो मनिन्क्वनिब्०। पा० ३।२।७४। इति ष्ठा−मनिन्। स्थितिस्थाने (अश्वान्) तुरङ्गान् (अतिष्ठिपम्) तिष्ठतेर्ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम्। स्थापितवानस्मि ॥

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    विषय

    मर्यादा में स्थिति

    पदार्थ

    १. (यौः अस्थात्) = उस नियन्ता प्रभु की आज्ञा से धुलोक अपने स्थान में स्थित है, पृथिवी अस्थात्-पृथिवी भी अपने स्थान में स्थित है। इस द्यावापृथिवी के मध्य में वर्तमान इदं विश्वं जगत्-यह सारा जगत् अस्थात्-अपने-अपने स्थान में स्थित है। पर्वता:-पर्वत भी आस्थाने-ईश्वर के कल्पित स्थान में अस्थुः-स्थित हैं। २. मैं भी अश्वान्-इन इन्द्रियाश्वों को स्थाम्नि-[fixity, stability] स्थिरता में अतिष्ठिपम्-स्थापित करता हैं, इन्द्रियाश्वों को भटकने से रोककर कर्तव्यकर्मों में स्थापित करता हूँ।

    भावार्थ

    सारा संसार अपनी-अपनी मर्यादा में गति कर रहा है। हम भी इन्द्रियाश्वों को भटकने से रोककर कर्तव्यकों में स्थापित करें।

     

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    भाषार्थ

    (द्यौ:) द्युलोक (अस्थात्) स्वस्थान में स्थित है, (पृथिवी अस्थात्) पृथिवी स्वस्थान में स्थित है, (इदम्) यत् (जगत्) गतिमान् (विश्वम्) विश्व (अस्थात्) स्वस्थान में स्थित है। (अस्थाने) निज स्थान में (पर्वताः) पर्वत (अस्थुः) स्थित हुए हैं, (स्थाम्नि) स्वस्व स्थान (अश्वान्)१ रश्मियों से व्याप्त तारा-नक्षत्रों को (अतिष्ठिपम्) मैं परमेश्वर ने स्थापित किया है।

    टिप्पणी

    [अश्वान्= अशूङ व्याप्तौ (स्वादिः), रश्मियों द्वारा व्याप्त। वैदिक सिद्धान्तानुसार पृथिवी आदि सब चलायमान हैं, अपने-अपने कक्षावृत्तों में। इन्हीं कक्षावृत्तों में परमेश्वर ने इन्हें स्थित किया हुआ है, स्थापित कर रखा है। ये सब चलायमान हैं-यह दर्शाने के लिये मन्त्र में विश्व को 'जगत्' कहा है, गतिशील कहा है। जगत्२= गम् (गतौ) + यङ्लुक् + अति प्रत्यय।] [१. तथा अश्वः = आदित्यः। यथा "एको अश्वो वहति सप्तनामा" (ऋ० १।१६४।२)। "एकोऽश्वो बहति सप्तनामादित्यः" (निरुक्त ४।४।२७)। २. जगत् = गच्छतीति, गम् धातोः जगादेशः तथा (उणा० २।८५)।]

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    विषय

    ईश्वर से राजा की प्रार्थना।

    भावार्थ

    सर्वनियन्ता ईश्वर की शक्ति से (द्यौः अस्थात्) यह द्यौः आकाश समस्त तारों सहित स्थिर है, (पृथिवी) पृथिवी भी अपने स्थान में स्थिर हैं। (इदम्) यह (विश्वम्) समस्त (जगत्) जगत् भी (अस्थात्) स्थित, व्यवस्थित है। अपने अपने (आ स्थाने) स्थान में (पर्वताः अस्थुः) पर्वत भी स्थिर हैं, इसी प्रकार मैं अपने (अश्वान्) अश्वों के समान गमनशील व्यापक, विषयों तक पहुंचने वाले प्राणों को भी (स्थाम्नि) इस स्थिर देह में (अतिष्ठिपम्) व्यवस्थित करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कबन्ध ऋषिः। जातवेदो देवता। १-३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Unassailable Stability

    Meaning

    The sun is stable in its own place. The earth is stable in its own place. This entire dynamic universe is stable in its own state. The mountains abide in their own places. I have stabilised my ‘horses’, i.e., senses and mind and pranic energies, in their own places and functions.

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    Subject

    Jatavedal

    Translation

    The sky stands firm (asthad): the earth stands firm; all this living world stands firm. The mountains stand firm in their proper place. I have made the swift-moving senses stand still in their stall

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    Translation

    This heavenly region stands firm, this earth stands firm and firm stands the whole of the universal world. I firmly put my vital airs and limbs in my body,

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    Translation

    As ordered by God, firm stands the heaven, firm stands the earth, firm stands this universal world, firm stands the mountains in their place, so do I make the breaths stand firmly in the body.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अस्थात्) तिष्ठति स्म (द्यौः) सूर्यलोकः (अस्थात्) (पृथिवी) (अस्थात्) (विश्वम्) सर्वम् (इदम्) दृश्यमानम् (जगत्) (आस्थाने) विश्रामस्थाने (पर्वताः) शैलाः (अस्थुः) स्थिता अभवन् (स्थाम्नि) आतो मनिन्क्वनिब्०। पा० ३।२।७४। इति ष्ठा−मनिन्। स्थितिस्थाने (अश्वान्) तुरङ्गान् (अतिष्ठिपम्) तिष्ठतेर्ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम्। स्थापितवानस्मि ॥

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