अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 79/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - संस्फानम्
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - ऊर्जा प्राप्ति सूक्त
1
अ॒यं नो॒ नभ॑स॒स्पतिः॑ सं॒स्फानो॑ अ॒भि र॑क्षतु। अस॑मातिं गृ॒हेषु॑ नः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । न॒: । नभ॑स: । पति॑: । स॒म्ऽस्फान॑: । अ॒भि । र॒क्ष॒तु॒ । अस॑मातिम् । गृ॒हेषु॑ । न॒: ॥७९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं नो नभसस्पतिः संस्फानो अभि रक्षतु। असमातिं गृहेषु नः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । न: । नभस: । पति: । सम्ऽस्फान: । अभि । रक्षतु । असमातिम् । गृहेषु । न: ॥७९.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सर्वसम्पत्ति पाने का उपदेश।
पदार्थ
(अयम्) यह (नभसः) सूर्यलोक का (पतिः) स्वामी परमेश्वर (संस्फानः) यथावत् बढ़ता हुआ (नः) हमारे लिये (नः) हमारे (गृहेषु) घरों में (असमातिम्) असामान्य [विशेष] लक्ष्मी वा बुद्धि (अभि) सब ओर से (रक्षतु) रक्खे ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य सूर्य आदि लोकों के स्वामी परमात्मा की महिमा विचारते हुए विद्या आदि शुभ गुणों की प्राप्ति से असाधारण धन और बुद्धि पाकर आनन्द भोगें ॥१॥
टिप्पणी
१−(अयम्) सर्वव्यापकः (नः) अस्मदर्थम् (नभसः) अ० ४।१५।३। णह बन्धने−असुन्। हस्य भः। नभ आदित्यो भवति−निरु० २।१४। सूर्यस्य (पतिः) पालयिता परमेश्वरः (संस्फानः) स्फायी वृद्धौ−क्त, छान्दसं रूपम्। सम्यक् स्फीतः प्रवृद्धः (अभि) सर्वतः (रक्षतु) पातु (असमातिम्) असेस्तिः। उ० ४।१८०। माङ् माने−ति, यद्वा, मनु अवबोधने−क्तिन्, दीर्घश्च समानस्य सः। असमानां विशेषां मां लक्ष्मीं मतिं बुद्धिं वा (गृहेषु) गेहेषु (नः) अस्माकम् ॥
विषय
यज्ञ व अन्नोत्पत्ति
पदार्थ
१. (अयम्) = यह (न:) = हमारा हविर्धानों [पूजागृहों] में परिदृश्यमान यज्ञाग्नि हवि द्वारा (नभसः पति:) = धुलोक का पालन करनेवाला है-('अग्रौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । संस्फान:') = पर्जन्यों द्वारा वृष्टि कराके धान्यराशि का वर्धयिता यह अग्नि हमारा (अभिरक्षतु) = वर्धन करनेवाला हो। यह स्वास्थ्य भी दे और सौमनस्य भी प्राप्त कराए। २. यह (यज्ञाग्नि न:) = हमारे (गृहेषु) = घरों में (असमातिम्) = [माति: मानं तया सह समातिः, न समाति:] परिच्छेदरहित धान्य आदि को करे।
भावार्थ
सभी घरों में यज्ञाग्नि प्रज्वलित हो। यह यज्ञाग्नि मेघों को जन्म देती हुई वृष्टि के द्वारा खूब ही अन्न प्राप्त कराए।
भाषार्थ
(अयम्) यह (नभसस्पतिः) मेघ का पति (संस्फान:) सम्यक् वृद्धि करनेवाला परमेश्वर (न:) हमारी (अभिरक्षतु) पूर्णतया रक्षा करे और (न:) हमारे (गृहेषु) घरों में (असमातिम्) मापरहित धान्य की रक्षा करे।
टिप्पणी
[मेघ के वर्णन से तदुत्पादित धान्य की असमाति अभिप्रेत है। असमाति का अर्थ है मापराहित्य अर्थात् प्रभुत्व। अ+स१+माति:, माप= मापराहित्य। संस्फाना= सम् + स्फायी वृद्धौ (भ्वादिः)]। [१. समातिः= समातिः माप सहित। असमातिः मापरहित।]
विषय
प्रचुर अन्न की प्रार्थना।
भावार्थ
(अयम्) यह ही प्रत्यक्ष सूर्य, मेघ या वायु (सं-स्फानः) अन्न को बढ़ाने वाला (नभसः) अन्तरिक्ष या वर्ष के प्रथम मास श्रावण का पति, पालक है। वह (नः) हमारी (अभि रक्षतु) सब प्रकार से रक्षा करे। और (नः) हमारे (गृहेषु) घरों में (असमातिम्) इतनी अन्न आदि की समृद्धि प्रदान करे जो समा भी न सके।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। संस्फानो देयता। १-२ गायत्र्यौ, ३ त्रिपदा प्राजापत्या जगती। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Protection
Meaning
May the lord of expansive space waxing with the expansive universe protect us and promote wealth and wisdom of exceptional order in our homes.
Subject
Sarjsphinam
Translation
May this lord of clouds, grower of foodrgrains, protect well the unmeasurable wealth in our homés
Translation
Let this sun, of air or cloud which are the master-force of the sky protect us and preserve unequalled co-wealth in our homes.
Translation
May God, the Invigorating Lord of the sun protect us. May there be unusually immense riches in our homes.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अयम्) सर्वव्यापकः (नः) अस्मदर्थम् (नभसः) अ० ४।१५।३। णह बन्धने−असुन्। हस्य भः। नभ आदित्यो भवति−निरु० २।१४। सूर्यस्य (पतिः) पालयिता परमेश्वरः (संस्फानः) स्फायी वृद्धौ−क्त, छान्दसं रूपम्। सम्यक् स्फीतः प्रवृद्धः (अभि) सर्वतः (रक्षतु) पातु (असमातिम्) असेस्तिः। उ० ४।१८०। माङ् माने−ति, यद्वा, मनु अवबोधने−क्तिन्, दीर्घश्च समानस्य सः। असमानां विशेषां मां लक्ष्मीं मतिं बुद्धिं वा (गृहेषु) गेहेषु (नः) अस्माकम् ॥
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