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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 82 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 82/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भग देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जायाकामना सूक्त
    1

    आ॒गच्छ॑त॒ आग॑तस्य॒ नाम॑ गृह्णाम्याय॒तः। इन्द्र॑स्य वृत्र॒घ्नो व॑न्वे वास॒वस्य॑ श॒तक्र॑तोः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽगच्छ॑त: । आऽग॑तस्य । नाम॑ । गृ॒ह्णा॒मि॒ । आ॒ऽय॒त: । इन्द्र॑स्य । वृ॒त्र॒ऽघ्न: । व॒न्वे॒ । वा॒स॒वस्य॑ । श॒तऽक्र॑तो:॥८२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आगच्छत आगतस्य नाम गृह्णाम्यायतः। इन्द्रस्य वृत्रघ्नो वन्वे वासवस्य शतक्रतोः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽगच्छत: । आऽगतस्य । नाम । गृह्णामि । आऽयत: । इन्द्रस्य । वृत्रऽघ्न: । वन्वे । वासवस्य । शतऽक्रतो:॥८२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 82; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेशः।

    पदार्थ

    (आयतः) अति यत्नशाली वा नियमवान् मैं (आगच्छतः) आते हुए और (आगतस्य) आये हुए पुरुष का (नाम) नाम [कीर्ति] (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ। (वृत्रघ्नः) अन्धकारनाशक, (वासवस्य) बहुत धनवाले और (शतक्रतोः) सैकड़ों कर्मोंवाले (इन्द्रस्य) संपूर्ण ऐश्वर्य्यवाले परमात्मा की (वन्वे) में प्रार्थना करता हूँ ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर से प्रार्थना करके प्रयत्न करें, जिससे उनके आचरण वर्तमान और पूर्वज महात्माओं के समान धार्मिक होवें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(आगच्छतः) इदानीं वर्तमानस्य (आगतस्य) भूतकाले प्राप्तस्य पुरुषस्य (नाम) कीर्तनम् (गृह्णामि) स्वीकरोमि (आयतः) (आङ्+यती) प्रयत्ने−अच्, यद्वा। आङ्+यम नियमने−क्त। अतिप्रयत्नशाली। प्रशस्तनियमवान् (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः परमेश्वरस्य (वृत्रघ्नः) अन्धकारनाशस्य (वन्वे) वनु याचने। अहं याचे (वासवस्य) वसु−अण्। वसु धनम्−निघ० २।१०। वसूनि धनानि सन्ति यस्य तस्य (शतक्रतोः) क्रतुः कर्म−निघ० २।१। बहुकर्मयुक्तस्य ॥

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    विषय

    'इन्द्र वृत्रहा वासव शतक्रतु'

    पदार्थ

    १. (आयत:) = अतिशयेन यत्नवान् [यती प्रयले] अथवा सब इन्द्रियों का नियमन करनेवाला [यमु उपरमे] मैं (आगच्छतः) = समन्तात् गतिवाले व आगतस्य आये हुए-हदयस्थ प्रभु के नाम का (गृह्णामि) = उच्चारण करता हूँ। प्रत्येक गृहस्थ को प्रभु का स्मरण करना ही चाहिए। प्रभु के स्मरण से ही गृहस्थ के भार को उठाने की शक्ति प्राप्त होती है तथा जीवन की पवित्रता बनी रहती है। २. (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली (वृत्रनः) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट करनेवाले (वासवस्य) = सब वसुओं से सम्पन्न, (शतक्रतो:) = सैकड़ों, 'शक्तियों, प्रज्ञानों व कर्मों' वाले प्रभु से (वन्वे) = याचना करता हूँ, इस प्रभु से अभिमत पदार्थों की प्रार्थना करता हूँ। वस्तुत: गृहस्थ में प्रवेश करनेवाले युवक को भी 'इन्द्र, वृत्रहा, वासव व शतक्रतु' बनने का यत्न करना चाहिए। इन्द्र, अर्थात् वह जितेन्द्रिय बने, जितेन्द्रयता ही वर का सर्वमहान् ऐश्वर्य है। यह ज्ञान के द्वारा वासनाओं को विनष्ट करनेवाला हो, सब वसुओं का सम्पादन करे तथा यज्ञमय जीवनवाला हो।

    भावार्थ

    गृहस्थ में प्रवेश करनेवाला युवक प्रभु का स्मरण करे। यह प्रभु स्मरण ही उसके जीवन को पवित्र व सशक्त बनता है। यह जितेन्द्रिय [इन्द्र] बने, ज्ञानी बनकर वासनाओं का विनाश करनेवाला हो [वृत्रहा], गृहस्थ के लिए आवश्यक वसुओं का सम्पादन करे [वासव] तथा यज्ञमय जीवनवाला [शतक्रतु] बने।

     

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    भाषार्थ

    (आयतः) सब प्रकार से प्रयत्नशील, उद्यमी, अथवा संयमी [मैं हूं; विवाहार्थ]। (आगच्छतः) आ रहे, [अपितु] (आगतस्य) आ गए, (वृत्रघ्नः) विवाहमण्डप पर घेरा डालनेवाले विरोधियों का हनन करने वाले, (वासवस्य) प्रजा को वसानेवाले, (शतक्रतोः) प्रजासुखार्थ सैकड़ों यज्ञ करनेवाले (इन्द्रस्य) सम्राट् के (नाम) नाम को (गृह्णामि) मैं घोषित करता हूं, (वन्वे) और उस से याचना करता हूं [विवाह की सफलता के लिये]

    टिप्पणी

    [आयतः= आ+यतो प्रयत्ने (भ्वादिः)+अच्, अथवा आ+यम उपरमे (भ्वादिः) क्त:। सम्राट् भी विवाह में उपस्थित है विघ्नकारियों के हनन के लिये। 'राज्ञः वन्वे' (पैप्प० शाखा)। वन्वे =वन् याचने, तनादित्वात् 'उः' प्रत्ययः]।

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    विषय

    वर-वरण का उपदेश।

    भावार्थ

    विवाह करने वाले वर का स्वागत करने का उपदेश करते हैं। हे विद्वान्, योग्य पुरुषो ! (आ गच्छतः) आते हुए (आ गतस्य) या कन्या को प्राप्त करने के लिये द्वार पर आये हुए वर के (नाम) नाम को (गृह्णामि) मैं लेता हूँ, स्पष्ट रूप से सबके सामने उच्चारण करता हूं जिससे आप लोग सब जान जायँ कि मैं अपनी कन्या का विवाह कितने उत्तम पुरुष से कर रहा हूं। और (आयतः) आये हुए (वृत्रघ्न्नः) विघ्नों के नाशक, (वासवस्य) धन, ऐश्वर्य के स्वामी (शतक्रतोः) सैकड़ों प्रज्ञाओं और कर्मों के साधक, विद्वान्, क्रियाशील (इन्द्रस्य) इन्द्र अर्थात् राजा के समान प्रतिष्ठाशील पुरुष को अपनी कन्या के लिये (वन्वे) वरता हूं, स्वीकार करता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जायाकामो भग ऋषिः। इन्द्रो देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Marriage Match

    Meaning

    The bridegroom that was to come is come, and has now here arrived. In observance of law and custom, I acknowledge and welcome him in truth. And I thank and adore Indra, lord omnipotent, destroyer of darkness and evil, giver of settlement in peace and prosperity, divine harbinger of the fruits of a hundred noble acts of virtue.

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    Subject

    Indra

    Translation

    I call out the name of the resplendent one, the slayer of nescience, the lord of wealth, and performer of a hundred selfless deeds (Satakratu) - who is arriving, has come and is approaching near, I like him.

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    Translation

    I, the desirer of suitable bridegroom for my daughter, pronounce the name of describe the attainment of the bride-groom who is come and who has come and select and accept him for her as the subject declares and accepts the authority of the mighty ruler who is the dispeller of difficulties, the master of the wealth and accomplisher of hundreds of acts and feats.

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    Translation

    I call the name of him who comes, hath come, and still draws nigh to us. I select as husband for my daughter-him, who is imposing like a king, slayer of foes, master of riches and a hundred powers.

    Footnote

    I call-him: I, the father of the girl name my future son-in-law, so that everyone knows how strong and wealthy he is!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(आगच्छतः) इदानीं वर्तमानस्य (आगतस्य) भूतकाले प्राप्तस्य पुरुषस्य (नाम) कीर्तनम् (गृह्णामि) स्वीकरोमि (आयतः) (आङ्+यती) प्रयत्ने−अच्, यद्वा। आङ्+यम नियमने−क्त। अतिप्रयत्नशाली। प्रशस्तनियमवान् (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः परमेश्वरस्य (वृत्रघ्नः) अन्धकारनाशस्य (वन्वे) वनु याचने। अहं याचे (वासवस्य) वसु−अण्। वसु धनम्−निघ० २।१०। वसूनि धनानि सन्ति यस्य तस्य (शतक्रतोः) क्रतुः कर्म−निघ० २।१। बहुकर्मयुक्तस्य ॥

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