अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 91/ मन्त्र 1
ऋषिः - भृग्वङ्गिरा
देवता - यक्षमनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्षमनाशन सूक्त
1
इ॒मं यव॑मष्टायो॒गैः ष॑ड्यो॒गेभि॑रचर्कृषुः। तेना॑ ते त॒न्वो॒ रपो॑ऽपा॒चीन॒मप॑ व्यये ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । यव॑म् । अ॒ष्टा॒ऽयो॒गै: । ष॒ट्ऽयो॒गेभि॑: । अ॒च॒र्कृ॒षु॒: । तेन॑ । ते॒ । त॒न्व᳡: । रप॑:। अ॒पा॒चीन॑म् । अप॑ । व्य॒ये॒ ॥९१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं यवमष्टायोगैः षड्योगेभिरचर्कृषुः। तेना ते तन्वो रपोऽपाचीनमप व्यये ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । यवम् । अष्टाऽयोगै: । षट्ऽयोगेभि: । अचर्कृषु: । तेन । ते । तन्व: । रप:। अपाचीनम् । अप । व्यये ॥९१.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मिक दोष नाश करने का उपदेश।
पदार्थ
(इमम्) इस [सर्वव्यापी] (यवम्) संयोग-वियोग करनेवाले परमेश्वर को (अष्ठायोगैः) आठ प्रकार के [यम नियम आदि] योगों से और (षड्योगेभिः) छह प्रकार के [पढ़ना-पढ़ाना आदि ब्राह्मणों के कर्मों से (अचर्कृषुः) उन [महात्माओं] ने कर्षण अर्थात् परिश्रम से प्राप्त किया है। (तेन) उसी [कर्म] से (ते) तेरे (तन्वः) शरीर के (रपः) पाप को (अपाचीनम्) विपरीत गति करके (अप व्यये) मैं हटाता हूँ ॥१॥
भावार्थ
जिस प्रकार से महर्षियों ने योगसाधन और ब्राह्मण कर्म से ईश्वर को प्राप्त किया है, इसी प्रकार विद्वान् मनुष्य ईश्वरप्राप्ति से आत्मदोष त्यागकर आनन्दित होवें ॥१॥ आठ प्रकार के योगाङ्ग यह हैं−यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि ॥ योगदर्शने २।२९। अर्थात् १−यम, २−नियम, ३−आसन, ४−प्राणायाम, ५−प्रत्याहार, अर्थात् जितेन्द्रियता, ६−धारणा, ७−ध्यान और ८−समाधि, यह आठ योग के अङ्ग हैं ॥ ब्राह्मणों के छह कर्म यह हैं−अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा। दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥ मनुः १।८८। १−पढ़ना, २−पढ़ाना, ३−यज्ञ करना, ४−यज्ञ कराना, ५−दान देना और ६−दान लेना यह छह कर्म [प्रभु ने] ब्राह्मणों के बताये हैं ॥
टिप्पणी
१−(इमम्) दृश्यमानं सर्वव्यापिनम् (यवम्) यु मिश्रणामिश्रणयोः−अप्। यवः, मिश्रणामिश्रणकर्ता इति दयानन्दभाष्ये यजुः० ५।२६। संयोजकवियोजकं परमात्मानम् (अष्टायोगैः) यमनियमाद्यष्टयोगाङ्गैः−योगदर्शने २।२९। (षड्योगेभिः) अध्यापनाध्ययनादिब्राह्मणषट्कर्मभिः−मनुस्मृति १।८८। (अचर्कृषुः) कृष विलेखने स्वार्थे ण्यन्ताल्लुङि चङि रूपम्। कर्षणेन श्रमेण प्राप्तवन्तः (तेन) कर्षणकर्मणा (ते) तव (तन्वः) शरीरस्य (रपः) अ० ४।१३।२। दोषम् (अपाचीनम्) विभाषाञ्चेरदिक् स्त्रियाम्। पा० ५।४।८। इति अपाच्−स्वार्थे ख, खस्य ईनादेशः। अपगतम्। अपाङ्मुखम् (अप व्यये) व्यय गतौ विषसमुत्सर्गे च। अपगमयामि ॥
विषय
अष्टायोगैः षड्योगैः
पदार्थ
१. (इयं यवम्) = इस जौ को (अष्टायोगै:) = आठ जोड़ीवाले बैलों से अथवा (षड्योगेभिः) = छह जोडीवाले बैलों से की जानेवाली कृषि से (अचर्कषुः) = उत्पन्न करते हैं। इसप्रकार की कृषि में बैलों को कम कष्ट होता है। वे प्रसन्नता से कर्षण में सहायक होंगे तो उत्पन्न होनेवाला यव भी अधिक गुणकारी होगा। २. (तेन) = उस यव [जौ] से (ते तन्वः रपः) तेरे शरीर के रोगबीज को (अपाचीनम् अप व्यये) = निम्न गति से दूर करते हैं। यव मलशोधन करता हुआ रोग को दूर करनेवाला होता है।
भावार्थ
जिस भूमि में बैलों को पीड़ित न करते हुए अन्न उत्पन्न किया जाता है वह जी मलों का शोधन करता हुआ रोगों को दूर करता है।
भाषार्थ
(इमम्) इस (यवम्) जौं को, (अष्टायोगै:) अष्टवर्ग के योगों के साथ (षड्योगेभि:) तथा षड्-औषधों के योगों के साथ (अचर्कृषुः) कृषि द्वारा पैदा किया है। (तेन) इस दोनों योगों से युक्त यव द्वारा, हे रुग्ण ! हे रोगिन् (ते तन्वः) तेरे शरीर के (रपः) पाप तथा तज्जन्य रोग को (अपाचीनम्) हटने वाला करके (अपव्यये) मैं पृथक् कर देता हूं।
टिप्पणी
[मन्त्र में "यव" द्वारा भोज्यान्न का उत्पादन, तथा "योगै:" पदों द्वारा अष्टाङ्गवर्ग का, तथा अत्यावश्यक षडङ्ग-वर्ग की औषधों का उत्पादन, कृषि द्वारा कहा है। यव और व्रीहि दोनों भोज्यान्न होते हुए, औषधरूप भी हैं। यथा "शिवौ ते स्तां व्रीहियवाववलासावदोमधौ। एतौ यक्ष्मं विवाधेते एतौ मुञ्चतो अंहसः" (अथर्व० ८।२।१८)। मन्त्र में व्रीहि और यव शिवौ, अवलासौ, मधुर, यक्ष्मनाशक, यक्ष्मोत्पादक पाप से मुक्त करने वाले कहा है। अबलासौ= अवल (बलाभाव) + असौ (असु क्षेपणे, द्विवचन)]। तथा अध्यात्मदृष्टि से क्षेत्र है शरीर। यथा "इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते" (गीता १३।१)। इस क्षेत्र में भी कृषि कर्म हो रहा है, कर्मबीज बोए जाते हैं। प्राणायाम तथा श्वासप्रश्वास मानो हल जोते जा रहे हैं। यमनियमादि ८ योगाङ्ग बैल हैं, तथा ५ ज्ञानेन्द्रियां और छठा मन ये षट् भी बैल हैं। इसीलिये इन छ: के विषयों को गोचर कहते हैं जिन में कि गौएं विचरती हैं। गौ= बेल। भोजन तो योगी को भी चाहिये, जिस का कथन "यव" शब्द द्वारा हुआ है। "यव" सात्विक और पौष्टिक तथा पापहारी अन्न जो कि तनू के अंहस का नाशक है। अंहस् को मन्त्र में "रप:" कहा है। "रपः रिप्रमिति पापनामनी" (निरुक्त ४।३।२१)। इस प्रकार सात्त्विक भोजन, प्राणायाम तथा शुद्ध वायु श्वासप्रश्वास तनू के शोधक हैं]।
विषय
भवरोग-विनाश के उपाय।
भावार्थ
भव-रोग के विनाश का उपाय बतलाते हैं। (इमम्) इस (यवम्) शरीर इन्द्रिय आदि संघात को मिलाये रखने वाले आत्मा को (अष्टायोगैः) यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि, इन आठ प्रकार के योगाङ्गो द्वारा और (षड् यौगैः) शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और मुमुक्षुत्व इन छः के योग, सम्पत्ति से (अचर्कृषुः) कर्षण करते हैं अर्थात् आत्मभूमि का शोधन करते हैं। (तेन) इस योगाभ्यास से (ते) तेरे (तन्वः) आत्मा और शरीर के (रपः) पाप और रोग (अपाचीनम्) दूर (अप व्यये) करने का उपदेश करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिराः ऋषिः। बहवो देवताः। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cure by Apah, ‘waters / karma’
Meaning
The sages have developed and matured this barley plant of life by sixfold practice of eightfold yoga. By that very curative practice and treatment, I reduce and drain out the afflictions of your body, mind and soul. (This mantra, in fact this sukta, is interpreted as the hymn of water cure. But this mantra also suggests, that it deals with cure of the self by karma, because ‘apah’ means not only waters but also karma. And the words ‘ashtayoga’ and ‘shadyoga’ suggest that the mantra deals with ‘ashtanga’ yoga and six karmas of every human being as in Patanjali’s Yoga Sutras and Manusmrti, 1, 88-90. Reference may also be made to eight-sixes of Shvetashvatara Upanishad 1, 4.)
Subject
Eradication of Yaksma or disease
Translation
This barley, they have treated with a mixture of eight remedies (asta yogaih), with a mixture of six remedies (sadayogebhih). With this, I expel the disease from your body downwards.
Translation
The men who prepare medicines prepare this barley by eight or by six methods (in various preparations) and with this I, the physician drive away the disease of body.
Translation
We purify this soul with eight limbs of yoga, and six accomplishments of tranquility, self-restraint, abstention from sexual enjoyment, forbearance faith, and desire for salvation. With the practice of yoga, I drive far away the sin of thy soul, and the disease of thy body.
Footnote
Intelligent persons should first try to uproot the causes of the disease, secondly they should try to stop its appearance, thirdly they should stop its development, fourthly they should remove it through the proper use of medicine. Disease should be checked in all its four stages. Eight: (1) Yamas (2) Niyamas (3) Āsana (4) Prānāyāma (5) Pratyahār (6) Dharma (7) Dhyāna (8) Smādhi. Pt. Khem Karan Das Trivedi interprets yava as God and six accomplishments as six duties of a Brahman, i.e., to learn, to teach, to perform Yajña, to oficiate at a Yajña, to give alms, to receive aIms. Griffith translates Ashta Yoga, as ploughed by eight oxen, and Shata Yoga, as ploughed by six oxen.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(इमम्) दृश्यमानं सर्वव्यापिनम् (यवम्) यु मिश्रणामिश्रणयोः−अप्। यवः, मिश्रणामिश्रणकर्ता इति दयानन्दभाष्ये यजुः० ५।२६। संयोजकवियोजकं परमात्मानम् (अष्टायोगैः) यमनियमाद्यष्टयोगाङ्गैः−योगदर्शने २।२९। (षड्योगेभिः) अध्यापनाध्ययनादिब्राह्मणषट्कर्मभिः−मनुस्मृति १।८८। (अचर्कृषुः) कृष विलेखने स्वार्थे ण्यन्ताल्लुङि चङि रूपम्। कर्षणेन श्रमेण प्राप्तवन्तः (तेन) कर्षणकर्मणा (ते) तव (तन्वः) शरीरस्य (रपः) अ० ४।१३।२। दोषम् (अपाचीनम्) विभाषाञ्चेरदिक् स्त्रियाम्। पा० ५।४।८। इति अपाच्−स्वार्थे ख, खस्य ईनादेशः। अपगतम्। अपाङ्मुखम् (अप व्यये) व्यय गतौ विषसमुत्सर्गे च। अपगमयामि ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal