अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 98/ मन्त्र 1
इन्द्रो॑ जयाति॒ न परा॑ जयाता अधिरा॒जो राज॑सु राजयातै। च॒र्कृत्य॒ ईड्यो॒ वन्द्य॑श्चोप॒सद्यो॑ नमस्यो भवे॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । ज॒या॒ति॒ । न । परा॑ । ज॒या॒तै॒ । अ॒धि॒ऽरा॒ज: । राज॑ऽसु । रा॒ज॒या॒तै॒ । च॒र्कृत्य॑: । ईड्य॑: । वन्द्य॑ । च॒ । उ॒प॒ऽसद्य॑: । न॒म॒स्य᳡: । भ॒व॒ । इ॒ह ॥९८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो जयाति न परा जयाता अधिराजो राजसु राजयातै। चर्कृत्य ईड्यो वन्द्यश्चोपसद्यो नमस्यो भवेह ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । जयाति । न । परा । जयातै । अधिऽराज: । राजऽसु । राजयातै । चर्कृत्य: । ईड्य: । वन्द्य । च । उपऽसद्य: । नमस्य: । भव । इह ॥९८.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रः) सम्पूर्ण ऐश्वर्यवाला परमात्मा [हमें] (जयाति) विजय करावे, और (न पराजयातै) कभी न हरावे, (अधिराजः) महाराजाधिराज जगदीश्वर [हमें] (राजयातै) राजा बनाये रक्खे। [हे महाराजेश्वर !] (चर्कृत्यः) अत्यन्त करने योग्य कर्मों में चतुर, (ईड्यः) प्रशंसनीय, (वन्द्यः) वन्दनायोग्य, (उपसद्यः) शरण लेने योग्य (च) और (नमस्यः) नमस्कारयोग्य तू (इह) यहाँ [हमारे बीच] (भव) वर्तमान हो ॥१॥
भावार्थ
सब मनुष्य राजा और प्रजा एक सर्वनियन्ता सर्वाधीश परमपिता जगदीश्वर को महाराजाधिराज जान कर धर्म से परस्पर पालन में प्रवृत्त रहें ॥१॥ मन्त्र १, २ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, राजप्रजाधर्म विषय, पृष्ठ २२१ में व्याख्यात है ॥
टिप्पणी
१−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (जयाति) लेटि रूपं णिजर्थः। विजापयेत् स्वसेवकान् (न परा जयातै) मा पराजयं प्रापयेत् (अधिराजः) राजाहःसखिभ्यष्टच्। पा० ५।४।९१। इति राजशब्दात्−टच्, टेर्लोपश्च। सर्वेषां राज्ञामधिपतिः (राजसु) चक्रवर्तिराजसु माण्डलिकेषु च (राजयातै) णिचि लेटि रूपम्। राजयेत्। राज्ञः कुर्यात् (चर्कृत्यः) यङलुगन्तात्करोतेः−क्त, ततः साध्वर्थे यत्। चर्कृतेषु, अतिशयेन कर्तव्येषु कर्मसु साधुः कुशलः (ईड्यः) स्तुत्यः (वन्द्यः) वन्दनीयः (उपसद्यः) उपसदनीयः शरणयोग्यः (नमस्यः) नमस्करणीयः। माननीयः (भव) वर्तस्व (इह) अत्र। अस्मासु ॥
विषय
'चकृत्य, ईड्य, उपसद्य, नमस्य' राजा
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = शत्रुओं को विद्रावण करनेवाला जितेन्द्रिय राजा (जयाति) = विजयी होता है, (न पराजयाता) = कभी पराजित नहीं होता। (राजसु अधिराज:) = सब राजाओं में मुख्य होता हुआ यह (राजयातै) = दीप्त होता है। २. वह तू (चर्कत्य:) = शत्रुओं का अतिशयेन छेदन करनेवाला, (ईडयः) = स्तुत्य, (वन्धः) = वन्दनीय (च) = और (उपसद्य:) = सबसे सेवनीय, समीप जाने योग्य व (नमस्य:) = नमस्कार के योग्य (इह) = यहाँ (भव) = हो।
भावार्थ
राजा जितेन्द्रिय होता हुआ शत्रुओं को जीतनेवाला हो। यह शत्रुछेदन करता हुआ आदरणीय होता है। प्रजाओं के लिए यह उपसद्य व नमस्य हो।
भाषार्थ
(इन्द्रः) सम्राट् (जयाति) विजयी हो या विजयी होता है (परा जयातै न) पराजित न हो, या पराजित नहीं होता, (अधिराज:) वह राजाधिराज (राजसु) राजाओं पर (राजयातै) राज्य करे या करता है। (चर्कृत्यः) वह अतिशय शत्रुछेदक है, (ईडयः) स्तुत्य है, (वन्द्यः) अभिवादन योग्य है, (उपसद्यः) सेवनीय है, (इह) इस साम्राज्य में वह तु (नमस्यः) नमस्कार योग्य (भव) हो, बना रहे।
टिप्पणी
[मन्त्र के वर्णन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन्द्र मनुष्य है, न कि चेतन अधिदेवता। "अस्मिन् संग्रामे अस्य राज्ञः साहाय्यार्थम् आगत इन्द्रः, तदात्मको वा अयं राजा जयाति" (सायण)। इस प्रकार विकल्प में सायण ने भी इन्द्र पद द्वारा मानुष राजा माना है, जोकि "इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७) की भावना के अनुकूल है]।
विषय
इन्द्र बनो
शब्दार्थ
(इन्द्रः) इन्द्र आत्मशक्ति से सम्पन्न मनुष्य (जयाति) विजय प्राप्त करता है (न परा जयातै) उसकी कभी भी पराजय नहीं होती (राजसु) राजाओं में (अधिराज:) वह अधिराज बनकर (राजयातै) चमकता और दमकता है। अपने जीवन में उस इन्द्र का शासन स्थापित करके ऐ मानव ! तू भी (इह) इस संसार में (चर्कृत्य:) अपने विरोधियों को परास्त कर दे, आदर्श, श्रेष्ठ एवं शुभ कर्म कर । तू (ईड्य:) सबके लिए स्तुत्य (वन्द्य:) वन्दनीय (उपसद्य:) पास बैठने योग्य,अशरणों की शरण (च) और (नमस्य:) आदरणीय (भव) हो, बन ।
भावार्थ
इन्द्र का, आत्मवान् व्यक्ति का सर्वत्र विजय होता है । वह जहाँ भी जाता है विजयश्री उसके गले में विजयमाला डालने के लिए खड़ी रहती है । आत्मवान व्यक्ति का पराजय नहीं होता । राजाओं में वह अधिराज बनकर सबसे ऊपर स्थित होता है । प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में इन्द्र का शासन स्थापित करना चाहिए। ऐसा करने से वह - १. अपने शत्रुओं को दबाने में समर्थ होगा और शुभ तथा अनुकरणीय कर्म करने योग्य बनेगा । २. ऐसा व्यक्ति लोगों की प्रशंसा का पात्र बन जाता है। वह सभी के लिए वन्दनीय हो जाता है। लोग उसके पास बैठकर उसे अपना दुःख-दर्द सुनाते हैं इस प्रकार वह अशरणों की शरण बन जाता है । ऐसा व्यक्ति सभी के लिए आदरणीय होता है ।
विषय
विजयशील राजा का वर्णन।
भावार्थ
(इन्द्रः) वह पुरुष, इन्द्र है जो (जयाति) विजय करता है, (न पराजयातै) और कभी पराजित नहीं होता, और (राजसु) जो राजाओं में (अधिराजः) सब के ऊपर महाराज होकर (राजयातै) शोभा देता है। (इह) इस राष्ट्र में हे इन्द्र ! तू (चर्कृत्यः) सब अपने विरोधियों के दलों को बराबर काटता है, इसी कारण तू (ईड्यः) सबके स्तुति योग्य, (वन्द्यः) सब के नमस्कार करने योग्य, (उप-सद्यः) अपनी दुःख-कथा कहने के लिये प्राप्त करने योग्य, शरण्यः और (नमस्यः) झुक कर आदर करने योग्य (भव) होता है। परमात्मा पक्ष में स्पष्ट है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १,२ त्रिष्टुभौ, ३ बृहतीगर्भा पंक्तिः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra, the Victor
Meaning
It is Indra, the brave, omnipotent, that wins, never defeated, and makes us win, ever without defeat. And he shines on top, sole ruler over leaders, admirable, adorable, worthy of worship, love and reverence and total submission and surrender. O lord omnipotent, be with us, here itself, never for away.
Subject
Indrah
Translation
The resplendent one wins; he is never defeated; he shines as the overlord among kings. May you, O destroyer of enemy, be worthy of praise, homage, approach, and reverence here.
Translation
The Almighty God overpowers all the forces but He is never overpowered by anyone. He as the paramount sovereign among all the ruling forces rules his worldly subjects. O Lord! here be Thou praised supplicated, revered, attained and worshipped.
Translation
Let the king be victor, never to be vanquished. Let him reign among the kings as sovran ruler. Here be thou meet for praise and Supplication, to be revered and waited on and worshipped.
Footnote
Here means in the battle, or in the state. The verse is applicable to God as well.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (जयाति) लेटि रूपं णिजर्थः। विजापयेत् स्वसेवकान् (न परा जयातै) मा पराजयं प्रापयेत् (अधिराजः) राजाहःसखिभ्यष्टच्। पा० ५।४।९१। इति राजशब्दात्−टच्, टेर्लोपश्च। सर्वेषां राज्ञामधिपतिः (राजसु) चक्रवर्तिराजसु माण्डलिकेषु च (राजयातै) णिचि लेटि रूपम्। राजयेत्। राज्ञः कुर्यात् (चर्कृत्यः) यङलुगन्तात्करोतेः−क्त, ततः साध्वर्थे यत्। चर्कृतेषु, अतिशयेन कर्तव्येषु कर्मसु साधुः कुशलः (ईड्यः) स्तुत्यः (वन्द्यः) वन्दनीयः (उपसद्यः) उपसदनीयः शरणयोग्यः (नमस्यः) नमस्करणीयः। माननीयः (भव) वर्तस्व (इह) अत्र। अस्मासु ॥
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