अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 100/ मन्त्र 1
ऋषिः - यमः
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दुःस्वप्न नाशन
1
प॒र्याव॑र्ते दुः॒ष्वप्न्या॑त्पा॒पात्स्वप्न्या॒दभू॑त्याः। ब्रह्मा॒हमन्त॑रं कृण्वे॒ परा॒ स्वप्न॑मुखाः॒ शुचः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप॒रि॒ऽआव॑र्ते । दु॒:ऽस्वप्न्या॑त् । पा॒पात् । स्वप्न्या॑त् । अभू॑त्या: । ब्रह्म॑ । अ॒हम् । अन्त॑रम् । कृ॒ण्वे॒ । परा॒ । स्वप्न॑ऽमुखा: । शुच॑: ॥१०५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
पर्यावर्ते दुःष्वप्न्यात्पापात्स्वप्न्यादभूत्याः। ब्रह्माहमन्तरं कृण्वे परा स्वप्नमुखाः शुचः ॥
स्वर रहित पद पाठपरिऽआवर्ते । दु:ऽस्वप्न्यात् । पापात् । स्वप्न्यात् । अभूत्या: । ब्रह्म । अहम् । अन्तरम् । कृण्वे । परा । स्वप्नऽमुखा: । शुच: ॥१०५.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
कुविचार के हटाने का उपदेश।
पदार्थ
(दुःष्वप्न्यात्) बुरी निद्रा में उठे हुए और (स्वप्न्यात्) स्वप्न में उठे हुए (पापात्) पाप से [प्राप्त] (अभूत्याः) अनैश्वर्यता [निर्धनता] से (पर्यावर्ते) मैं अलग हटता हूँ। (अहम्) मैं (ब्रह्म) ब्रह्म [ईश्वर] को [अपने] (अन्तरम्) भीतर, और (स्वप्नमुखाः) स्वप्न के कारण से होनेवाले (शुचः) शोकों को (परा) दूर (कृण्वे) करता हूँ ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य परमात्मा में लवलीन होकर मन को ऐसा वश में करे कि स्वप्न में भी कुवासनायें न उठें ॥१॥
टिप्पणी
१−(पर्यावर्ते) पृथग् भवामि (दुःष्वप्न्यात्) अ० ४।९।६। दुर् दुष्टेषु स्वप्नेषु भवात् (पापात्) अ० २।१२।५। पालकात् (स्वप्न्यात्) स्वप्नप्रभवात् (अभूत्याः) अनैश्वर्यत्वात्। निर्धनत्वात् (ब्रह्म) ईश्वरम् (अहम्) मनुष्यः (अन्तरम्) मध्ये। आत्मनि (कृण्वे) करोमि (परा) दूरे (स्वप्नमुखाः) स्वप्नप्रधानाः (शुचः) शोकान् ॥
विषय
दुःष्वप्न्य पाप से दूर
पदार्थ
१. (दु:ध्वन्यात् पापात्) = अशुभ स्वप्नों के कारणभूत पाप से मैं (पर्यावर्ते) = प्रतिनिवृत्त होता हूँ। उस (अभूत्या:) = अनैश्वर्य, दरिद्रता से भी दूर होता हूँ जोकि (स्वप्न्यात्) = इसप्रकार के स्वप्नों का कारण बनती हुई निद्रासुख को विहत करती है। २. (अहम्) = मैं (ब्रह्म) = ज्ञान को (अन्तरम्) = व्यवधायक दुःस्वप्न-निवारक (कृण्वे) = करता हूँ। यह ब्रह्म मेरा कवच बनता है और मैं दुःष्वप्न्य पापों से आक्रान्त नहीं होता। इस ब्रह्मरूप व्यवधायक से (स्वप्नमुखाः शुचः) = दुःस्वजनिबन्धन शोक (परा) [भवन्तु] = मुझसे दूर हों। मैं ज्ञान से सुरक्षित हुआ इन शोकों से आक्रान्त न हो।
भावार्थ
हम ज्ञान को अपना कवच बनाकर, पापों व दरिद्रता से दूर होकर, अशुभ स्वप्न जनित शोकों को अपने से दूर रखें।
भाषार्थ
(दुष्वप्न्यात् पापात्) बुरे स्वप्न से पैदा हुए (पापात्) पाप से, (स्वप्न्यात्) तथा स्वप्न से पैदा हुई (अभूत्याः) अभूति से, भूति अर्थात् सम्पद् के विनाश से (पर्यावर्ते) मैं प्रतिनिवृत्त होता हूं, एतदर्थ (अहम्) मैं (ब्रह्म) ब्रह्मप्रतिपादक मन्त्रों को (अन्तरम्१) व्यवधायक (कृण्वे) करता हूं, (स्वप्नमुखाः) इस से स्वप्न द्वारा प्राप्त (शुचः) शोक-सन्ताप (परा) मुझ से पराभूत हो गए हैं।
टिप्पणी
[सोने से पूर्व शिवसंकल्प मन्त्रपाठ द्वारा, या ब्रह्म से प्रार्थना करके "आप की कृपा से, मुझे दुःखदायक स्वप्न न हों" सोया जाय, तो दुष्वप्न नहीं होते। यह अनुभूत है]। ✓१. अथवा "ब्रह्म को मैं आभ्यन्तर रक्षक करता हूं। यथा "ब्रह्म वर्म ममान्तरम्" (अथर्व० १।१९।४), ब्रह्म मेरी आभ्यन्तर वर्म अर्थात् कवच है, मन का कवच है। वर्म=बुरे विचारों को निवारण करने वाला, उनसे रक्षा करने वाला, कवच।]
इंग्लिश (4)
Subject
Bad Dreams
Meaning
I turn away from evil thoughts and dreams, keep off thoughts and dreams of want and misery. Within, I concentrate on Brahma, Vedic thought and presence of Divinity, and I keep off phantoms and illusions of suffering and sorrow.
Subject
Against evil dreams
Translation
I draw you back from evil dream, vicious dream, and misery. I make knowledge a preventive defence, and the sorrows rising from dreams turn away. .
Comments / Notes
MANTRA NO 7.105.1AS PER THE BOOK
Translation
I always turn away from evil dream, from sin committed in dream and from calamities of dream. I make Brahman, God or the Vedic prayer my internal friend and hence (through it the) torturing phantasies of the dream.
Translation
I turn away from evil dream, from dream of sin, from indigence. I make the prayer mine inmost friend, and thus suppress dreamy phantasies.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(पर्यावर्ते) पृथग् भवामि (दुःष्वप्न्यात्) अ० ४।९।६। दुर् दुष्टेषु स्वप्नेषु भवात् (पापात्) अ० २।१२।५। पालकात् (स्वप्न्यात्) स्वप्नप्रभवात् (अभूत्याः) अनैश्वर्यत्वात्। निर्धनत्वात् (ब्रह्म) ईश्वरम् (अहम्) मनुष्यः (अन्तरम्) मध्ये। आत्मनि (कृण्वे) करोमि (परा) दूरे (स्वप्नमुखाः) स्वप्नप्रधानाः (शुचः) शोकान् ॥
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