अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 102/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रजापतिः
देवता - द्यावापृथिवी, अन्तरिक्षम्, मृत्युः
छन्दः - विराट्पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - आत्मन अहिंसन सूक्त
1
न॑म॒स्कृत्य॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म॒न्तरि॑क्षाय मृ॒त्यवे॑। मे॒क्षाम्यू॒र्ध्वस्तिष्ठ॒न्मा मा॑ हिंसिषुरीश्व॒राः ॥
स्वर सहित पद पाठन॒म॒:ऽकृत्य॑ । द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म् । अ॒न्तरि॑क्षाय । मृ॒त्यवे॑ । मे॒क्षामि॑ । ऊ॒र्ध्व: । तिष्ठ॑न् । मा । मा॒ । हिं॒सि॒षु॒: । ई॒श्व॒रा: ॥१०७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्कृत्य द्यावापृथिवीभ्यामन्तरिक्षाय मृत्यवे। मेक्षाम्यूर्ध्वस्तिष्ठन्मा मा हिंसिषुरीश्वराः ॥
स्वर रहित पद पाठनम:ऽकृत्य । द्यावापृथिवीभ्याम् । अन्तरिक्षाय । मृत्यवे । मेक्षामि । ऊर्ध्व: । तिष्ठन् । मा । मा । हिंसिषु: । ईश्वरा: ॥१०७.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ऊँचे पद पाने का उपदेश।
पदार्थ
(द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्यलोक और पृथिवीलोक को और (अन्तरिक्षाय) अन्तरिक्षलोक को (नमस्कृत्य) नमस्कार करके (मृत्यवे) मृत्यु नाश करने के लिये (ऊर्ध्वः) ऊपर (तिष्ठन्) ठहरता हुआ (मोक्षामि) मैं चलता हूँ, (ईश्वराः) [कोई] बलवान् (मा) मुझको (मा हिंसिषुः) न हानि करे ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य ऊपर, नीचे और मध्य विचार कर और संसार के सब पदार्थों से उपकार लेकर उच्चपद प्राप्त करें ॥१॥ इति नवमोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
१−(नमस्कृत्य) सत्कृत्य। उपकृत्य (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्यभूलोकाभ्याम् (अन्तरिक्षाय) मध्यलोकाय (मृत्यवे) अ० ५।३०।१२। मृत्युं नाशयितुम् (मोक्षामि) म्यक्षति, मियक्षति, गतिकर्मा-निघ० २।१४। छान्दसं रूपम्। मियक्षामि। गच्छामि (ऊर्ध्वः) उच्चः (तिष्ठन्) स्थितिं कुर्वन् (मा) माम् (मा हिंसिषुः) मा नाशयन्तु (ईश्वराः) केऽपि बलवन्तः ॥
विषय
'अग्नि, वायु, आदित्य व यम' को नमस्कार
पदार्थ
१. (द्यावापृथिवीभ्याम् नमस्कृत्य) = द्यावापृथिवी के लिए नमस्कार करके (अन्तरिक्षाय मृत्यवे) = अन्तरिक्ष व मृत्यु के लिए नमस्कार करके (ऊर्ध्व: तिष्ठन्) = ऊपर स्थित होता हुआ, अर्थात् विषय-वासनाओं में न फंसता हुआ (मेक्षामि) = गति करता हूँ [मियक्षतिर्गतिकर्मा-नि०२।२४]। 'द्यावा' मस्तिष्क है, 'पृथिवी' शरीर है। इन्हें दीप्त व दृढ़ बनाने के लिए मैं प्रभु के प्रति नमस्कारवाला होता हूँ। 'अन्तरिक्ष' हदय है। इसे पवित्र बनाने के लिए भी मैं प्रभु के प्रति नतमस्तक होता है, साथ ही मृत्यु का स्मरण भी करता हूँ। मृत्यु का स्मरण मुझे वासनाओं में फैंसने से बचाता है। मैं इन वासनाओं से ऊपर उठ जाता हूँ। २. मेरी तो यही प्रार्थना है कि (मा) = मुझे (ईश्वराः मा हिंसिष:) = आदित्य, अग्नि, वायु व यम [मृत्युदेव] हिंसित न करें। मैं अहिंसित होता हुआ चिरकाल तक इस लोक में अवस्थित रहूँ। ये देव मुझे दीर्घायुष्य प्राप्त कराएँ।
भावार्थ
हम मस्तिष्क, शरीर व हृदय को दीस, दृढ़ व पवित्र बनाने के लिए मृत्युरूप भगवान् का स्मरण करें। यह स्मरण हमें वासनाओं से ऊपर स्थित करे। हम वासनाओं में न फैंसते हुए 'अग्नि, वायु, आदित्य' देवों की अनुकूलता से दीर्घजीवी हों।
वासनाओं से ऊपर उठकर यह व्यक्ति उन्नति-पथ पर बढ़ता है। उन्नत होता हुआ 'ब्रह्मा' बनता हैं। यह 'ब्रह्मा' अगले दो सूक्तों का ऋषि है -
भाषार्थ
(द्यावापृथिवीभ्याम्, अन्तरिक्षाय, मृत्यवे) द्युलोक और पृथिवीलोक तथा अन्तरिक्षलोक के स्वामी मृत्युनामक परमेश्वर के लिये (नमस्कृत्य) नमः करके, (ऊर्ध्वः तिष्ठन्) उठ खड़ा होकर, (मोक्षामि) मैं जो चलता हूं [दैनिक कार्यों के करने के लिये] तब (ईश्वराः) भूलोक की अधीश्वर शक्तियां (मा) मेरी (मा हिंसिषुः) हिंसा न करें, मुझे किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचाएं।
टिप्पणी
[मन्त्र में द्यावा आदि प्रयोग लाक्षणिक हैं। इन द्वारा इन में व्यापक और इनका अधिष्ठाता परमेश्वर अभिप्रेत है, जैसे कि "मञ्चाः क्रोशन्ति" में मञ्च द्वारा मञ्चस्थ पुरुष अभिप्रेत होते हैं। वेद और बुद्धि के अनुसार जड़ पदार्थों को नमस्कार अनुपपन्न है। पौराणिक विद्वान् भी तो द्योः आदि जड़ पदार्थों को नमस्कार नहीं मानते, और वे इन आदि के अधिष्ठाता चेतन देवों के प्रति ही नमस्कार मानते हैं। मृत्यवे द्वारा परमेश्वर ही अभिप्रेत है, यह परमेश्वर का नाम है। यथा “स एव मृत्युः सोऽमृतं सो अभ्वं स रक्षः" (अथर्व काण्ड १३। अनुवाक चतुर्थ, पर्याय तृतीय के मन्त्र ४ (अनुवाक के मन्त्र २५) में परमेश्वर को "मृत्यु" कहा है। मेक्षामि- यह पद "मख या मखि गतौ" (भ्वादिः) का रूप प्रतीत होता है। अथर्ववेद के आङ्गलभाषा के अनुवादक ह्विटनी ने 'ऊर्ध्वः तिष्ठन् मेक्षामि' का अर्थ किया है "I will urinate standing arect” अर्थात् मैं खड़ा होकर मूत्र करूंगा। इस अर्थ में “मेक्षामि" पद को ह्विटनी ने "मिह सेचने" का भविष्यत्-कालिक रूप माना है। वेदानुयायी हिन्दुओं में खड़ होकर मूत्र करने की प्रथा नहीं। वर्तमान में पैण्ट-धारी लोगों में यह प्रथा अंग्रेजी प्रथा से आई है। सायण ने निम्नलिखित अर्थ किया है "तिष्ठन आसोनोऽहम् ऊर्ध्वः ऊर्ध्ववत् ऊर्ध्वमुखो मैष्यामि। ऊर्ध्वलोकं मा गमिष्यामीत्यर्थः। यद्वा नमस्कारेण ऊर्ध्वो मा गमिष्यामि किं तु तिष्ठन् इह लोके चिरकालावस्थायी भवामीति शेषः"। सायण ने मेक्षामि के स्थान में मैष्यामि पाठ माना है]।
विषय
विचार पूर्वक उन्नति का संकल्प।
भावार्थ
(द्यावापृथिवीभ्याम्) द्यु और पृथिवी अर्थात् माता और पिता को (नमः-स्कृत्य) नमस्कार करके और (अन्तरिक्षाय) अन्तर्यामी परमेश्वर और (मृत्यवे) सब के संहारक परमेश्वर को (नमस्कृत्य) नमस्कार करके (ऊर्ध्वः) ऊँचे, सीधा (तिष्ठन्) खड़ा होकर (मेक्षामि) चलूँ। (ईश्वराः) ये मेरे ईश्वर, मेरे स्वामी (मा) मेरा (मा हिंसिषुः) विनाश न करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्ऋषिः। द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं मृत्युश्च देवताः। विराट् पुरस्ताद् वृहती। एकर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Living High
Meaning
Having done homage to heaven and earth, and to the middle regions, and having acknowledged the fact of death as inevitable counterpart of life, now standing high, I watch the world and go forward. Let no powers of earthly nature hurt and violate me.
Subject
Dyava - Prthivi Pair
Translation
Bowing in reverence to heaven and earth, to midspace and to death, standing erect I will carry myself high up. May the lords (of the universe) do not harm to me.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.107.1AS PER THE BOOK
Translation
I offering my obeisance to father and mother and God who is the annihilator of the universe (makshyami) work out my plan standing over all difficulties and reverses. Let not the able men inflict any injury to me.
Translation
Having worshipped father, mother, the Omnipresent, All-Destroying God, I lead a life of high character. Let not these lords of mine harm me.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(नमस्कृत्य) सत्कृत्य। उपकृत्य (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्यभूलोकाभ्याम् (अन्तरिक्षाय) मध्यलोकाय (मृत्यवे) अ० ५।३०।१२। मृत्युं नाशयितुम् (मोक्षामि) म्यक्षति, मियक्षति, गतिकर्मा-निघ० २।१४। छान्दसं रूपम्। मियक्षामि। गच्छामि (ऊर्ध्वः) उच्चः (तिष्ठन्) स्थितिं कुर्वन् (मा) माम् (मा हिंसिषुः) मा नाशयन्तु (ईश्वराः) केऽपि बलवन्तः ॥
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