अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 105/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दिव्यवचन सूक्त
1
अ॑प॒क्राम॒न्पौरु॑षेयाद्वृणा॒नो दैव्यं॒ वचः॑। प्रणी॑तीर॒भ्याव॑र्तस्व॒ विश्वे॑भिः॒ सखि॑भिः स॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प॒ऽक्राम॑न् । पौरु॑षेयात् । वृ॒णा॒न: । दैव्य॑म् । वच॑: । प्रऽनी॑ती: । अ॒भि॒ऽआव॑र्तस्व । विश्वे॑भि: । सखि॑ऽभि: । स॒ह ॥११०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अपक्रामन्पौरुषेयाद्वृणानो दैव्यं वचः। प्रणीतीरभ्यावर्तस्व विश्वेभिः सखिभिः सह ॥
स्वर रहित पद पाठअपऽक्रामन् । पौरुषेयात् । वृणान: । दैव्यम् । वच: । प्रऽनीती: । अभिऽआवर्तस्व । विश्वेभि: । सखिऽभि: । सह ॥११०.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (6)
विषय
पवित्र जीवन का उपदेश।
पदार्थ
[हे विद्वान् !] (पौरुषेयात्) पुरुषवध से (अपक्रामन्) हटता हुआ, (दैव्यम्) दिव्य [परमेश्वरीय] (वचः) वचन (वृणानः) मानता हुआ तू (विश्वेभिः) सब (सखिभिः सह) सखाओं [साथियों] सहित (प्रणीतीः) उत्तमनीतियों [ब्रह्मचर्य स्वाध्याय आदि मर्य्यादाओं] का (अभ्यावर्तस्व) सब ओर से वर्ताव कर ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य सर्वहितकारी वेदमार्गों पर चलकर और दूसरों को चलाकर पवित्र जीवन करके आनन्दित होवें ॥१॥
टिप्पणी
१−(अपक्रामन्) अपगच्छन् (पौरुषेयात्) पुरुषाद् वधविकारसमूहे तेन कृतेषु। वा० पा० ५।१।१०। इति पुरुष−ढञ्, ढस्य एय्। पुरुषवधात् (वृणानः) स्वीकुर्वन् (दैव्यम्) देव-यञ्। देवात् परमेश्वरादागतम् (वचः) वाक्यं वेदलक्षणम् (प्रणीतीः) प्रकृष्टा नीतीः। ब्रह्मचर्य्यस्वाध्यायादिमर्य्यादाः (अभ्यावर्तस्व) अभितः प्रवर्तय ॥
विषय
दैव्य, न कि पौरुषेय
पदार्थ
१. (पौरुषेयात्) = [पुरुषकृतात] सामान्य पुरुषों से बनाये गये वचनों [ग्रन्थों] से (अपक्रामन्) = दूर हटता हुआ, (दैव्यं वचः वृणानः) = उस देव-सम्बन्धी इस वेदवचन का वरण करता हुआ, मनुष्यकृत ग्रन्थों के स्थान में देवकृत वाणियों को अपनाता हुआ, (विश्वेभिः सखिभिः सह) = सब समान ख्यानवाले, मिलकर ज्ञान प्राप्त करनेवाले, साथियों के साथ (प्रणीती:) = प्रकृष्ट नीति-मार्गों का-वेदोपदिष्ट न्याय्य मार्गों का (अभ्यावर्तस्व) = आभिमुख्येन अनुसरण कर।
भावार्थ
पुरुषकृत ग्रन्थों के स्थान पर देवकृत वाणियों का हम अध्ययन करें। अपने सब साथियों के साथ न्याय्य मार्गों का ही अनुसरण करें।
पदार्थ
शब्दार्थ = हे विद्वान् पुरुष ! ( पौरुषेयात् ) = पुरुष वध से ( अपक्रामन् ) = हटता हुआ ( दैव्यम् वचः ) = परमेश्वर के वचन को ( वृणान: ) = मानता हुआ तू ( विश्वेभिः सखिभिः सह ) = सब साथी मित्रों के सहित ( प्रणीतीः ) = उत्तम नीतियों का ( अभ्यावर्तस्व ) = सब ओर से बर्ताव कर ।
भावार्थ
भावार्थ = मोक्षार्थी पुरुष को चाहिये की ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, सत्सङ्ग, ईश्वरभक्ति पूर्वक प्रणवादिकों का जप करता हुआ और अपने सब इष्ट मित्रों को इस मार्ग से चलाता हुआ आनन्द का भागी बने। कभी किसी पुरुष के मारने का संकल्प ही न करे, प्रत्युत उनको प्रभु का भक्त और वेदानुयायी बना कर उन से प्यार करनेवाला हो।
भाषार्थ
हे ब्रह्मचारिन् ! (पौरुषेयात्) सर्वसाधारण पुरुषों के कर्मों से (अपक्रामन्) हटता हुआ, और (दैव्यम्) दिव्य (वचः) वेदवाणी का (वृणानः) वरण करता हुआ, (विश्वेभिः सखिभिः सखा) सब ब्रह्मचारी सखाओं के साथ (प्रणीतीः) प्रणय अर्थात् प्रेमपूर्वक (अभ्यावर्तस्व) वर्ताव किया कर। [प्रविष्ट= ब्रह्मचारी के उपनयन काल में उसे उपदेश दिया है, (कौशिक) सूत्र १५।१६)]।
विषय
वेद को अपनाओ
शब्दार्थ
हे जीवात्मन् ! तू ( पौरुषेयाद्) मनुष्य-सम्बन्धी वचनों या कल्पनाओं से (अपकामन्) दूर रहते हुए (दैव्यं वचः) परमेश्वर की पवित्र वेदवाणी को (वृणान:) स्वीकार करते हुए अपने (विश्वेभिः) समस्त ( सखिभिः सह ) मित्रों के साथ ( प्रणीतिः) वेद-प्रतिपादित, न्यायानुकूल, धर्मपथ पर, वेद के आदेश, उपदेश और शिक्षाओं पर (अभि आवर्तस्व) आचरण कर ।
भावार्थ
१. मनुष्यों को चाहिए कि वे साधारण लोगों की धर्म सम्बन्धी तथा अन्य कल्पनाओं से दूर रहें । २. मनुष्य सम्बन्धी कल्पनाओं से दूर रहकर प्रभुप्रदत्त वेदवाणी को ही स्वीकार करना चाहिए । ३. अपने सभी मित्रों, बन्धु-बान्धवों के साथ वेद मार्ग पर ही चलना चाहिए, वेद-प्रतिपादित, न्यायानुकूल कार्यों को ही करना चाहिए । महर्षि मनु ने मानो इसी मन्त्र का अनुवाद करते हुए कहा है~ एकोऽपि वेदविद्धर्म यं व्यवस्येद् द्विजोत्तमः । स विज्ञेयः परो धर्मो नाज्ञानामुदितोऽयुतैः ॥ (मनु० १२ | ११३ ) वेद को जानने वाला अकेला भी संन्यासी जिस धर्म की व्यवस्था करे वही श्रेष्ठ धर्म है भौर अज्ञानी मूर्खजन सहस्रों मिलकर भी जो व्यवस्था करें उसे कभी नहीं मानना चाहिये ।
विषय
वेद के शासनों पर आचरण करो।
भावार्थ
(पौरुषेयाद्) पुरुषों या सामान्य लोगों की स्तुति और निन्दाओं की कथाओं से (अपक्रामन्) परे रहते हुए हे ज्ञानवान् साधक ! तू (दैव्यं) देव, परमेश्वर की (वचः) पवित्र वाणी वेद को (वृणानः) सबसे उत्कृष्ट रूप में स्वीकार कर अपने (विश्वेभिः) समस्त (सखिभिः) मित्रों सहित (प्रणीतीः) वेद के प्रतिपादित, उत्तम न्यायानुकुल मार्गों और सत् शिक्षाओं पर और वेद के आदेशों पर (अभि-आवर्त्तस्व) आचरण कर। गुरु उपनयन और समावर्त्तन के अवसरों पर अपने शिष्यों को इस मन्त्र का उपदेश किया करते थे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता आत्मा देवता। अनुष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Dedication to the Word
Meaning
Off the mark of average humanity, opting for dedication to the Divine Word of the Veda, O man of sagely mind established in Varuna Brhaspati, hold on constantly to the wisdom, vision and noble values of holy life along with all your friends of like mind over the world. This is the commitment of the Brahmana for life time time.
Subject
Mantroktah (As on the vérse)
Translation
Moving away from the normal activities of men, making a choice to master the speech of the enlightened ones, conduct yourself according to the good guidances with all your friends.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.110.1AS PER THE BOOK
Translation
Leaving behind or aside the speech of man and making the Divine speech (the Veda) as your choice translate into action the dictates and policies thereof with your all friends and fellow men.
Translation
O learned yogi, unmindful of the praise or censure of humanity, choose the Word of God. Follow the instructions of the Veda, with all your associates.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अपक्रामन्) अपगच्छन् (पौरुषेयात्) पुरुषाद् वधविकारसमूहे तेन कृतेषु। वा० पा० ५।१।१०। इति पुरुष−ढञ्, ढस्य एय्। पुरुषवधात् (वृणानः) स्वीकुर्वन् (दैव्यम्) देव-यञ्। देवात् परमेश्वरादागतम् (वचः) वाक्यं वेदलक्षणम् (प्रणीतीः) प्रकृष्टा नीतीः। ब्रह्मचर्य्यस्वाध्यायादिमर्य्यादाः (अभ्यावर्तस्व) अभितः प्रवर्तय ॥
बंगाली (1)
পদার্থ
অপক্রামন্পৌরুষেয়াদ্বৃণানো দৈব্যং বচঃ ।
প্রণীতীরভ্যাবর্তস্ব বিশ্বেভিঃ সখিভিঃ সহ
(অথর্ব ৭।১০৫।১)
পদার্থঃ হে বিদ্বান! (পৌরুষেয়াৎ) তুমি অন্য ব্যক্তিদের বধ করা থেকে (অপক্রামন্) দূরে থাক। (দৈব্যম্ বচঃ) পরমেশ্বরের বচনকে (বৃণানঃ) মেনে (বিশ্বেভিঃ সখিভিঃ সহ) সকল সাথী ও মিত্রদের সাথে (প্রণীতীঃ) উত্তম নীতির (অভ্যাবর্তস্ব) প্রচার সব দিকে করো ।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ মোক্ষার্থী পুরুষের উচিত যে, তাঁরা ব্রহ্মচর্য, স্বাধ্যায়, সৎসঙ্গ, ঈশ্বরভক্তি পূর্বক প্রণবাদির জপ করবেন এবং নিজের সকল ইষ্ট মিত্রদের এই বৈদিক মার্গে চলার জন্য অনুপ্রাণিত করবেন। কখনও কোনো মনুষ্যকে হত্যার সংকল্প না করে উল্টো তাদের ঈশ্বরের ভক্ত এবং বেদানুরাগী বানিয়ে তাদের ঈশ্বরের প্রিয় হিসেবে তৈরি করার চেষ্টা করতে হবে ।৯৮।
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