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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 106 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 106/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - जातवेदाः, वरुणः छन्दः - बृहतीगर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - अमृतत्व सूक्त
    1

    यदस्मृ॑ति चकृ॒म किं चि॑दग्न उपारि॒म चर॑णे जातवेदः। ततः॑ पाहि॒ त्वं नः॑ प्रचेतः शु॒भे सखि॑भ्यो अमृत॒त्वम॑स्तु नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अस्मृ॑ति । च॒कृ॒म । किम् । चि॒त् । अ॒ग्ने॒ । उ॒प॒ऽआ॒रि॒म । चर॑णे । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । तत॑: । पा॒हि॒ । त्वम् । न॒: । प्र॒ऽचे॒त॒: । शु॒भे । सखि॑ऽभ्य: । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । अ॒स्तु॒ । न॒: ॥१११.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदस्मृति चकृम किं चिदग्न उपारिम चरणे जातवेदः। ततः पाहि त्वं नः प्रचेतः शुभे सखिभ्यो अमृतत्वमस्तु नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अस्मृति । चकृम । किम् । चित् । अग्ने । उपऽआरिम । चरणे । जातऽवेद: । तत: । पाहि । त्वम् । न: । प्रऽचेत: । शुभे । सखिऽभ्य: । अमृतऽत्वम् । अस्तु । न: ॥१११.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 106; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अमरपन पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमेश्वर ! (यत् किं चित्) जो कुछ भी [दुष्कर्म] (अस्मृति) विस्मरण [भूल, आगे पीछे के विना विचार] से (चकृम) हमने किया है, (जातवेदः) हे उत्पन्न पदार्थों के जाननेवाले ! [अपने] (चरणे) आचरण में (उपारिम) हमने अपराध किया है। (प्रचेतः) हे महाविद्वान् ! (ततः) उससे (त्वम्) तू (नः) हमें (पाहि) बचा, (नः) हम [तेरे] (सखिभ्यः) सखाओं को (शुभे) कल्याण के लिये (अमृतत्वम्) अमरपन (अस्तु) होवे ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों से यदि आगा-पीछा विना विचारे अपराध हो जावे, उसका प्रायश्चित करके और आगे को अपराध त्याग कर शुभकर्म करके कीर्त्तिमान् होवें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(यत्) दुष्कर्म (अस्मृति) यथा तथा। स्मरणरहितं पूर्वोत्तरकर्मफलानुसन्धानरहितम् (चकृम) वयं कृतवन्तः (किंचित्) किमपि (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमेश्वर (उप-आरिम) ऋ हिंसायाम्-लिट्। वयमपराद्धवन्तः (चरणे) आचरणे (जातवेदः) हे जातानां वेदितः (ततः) तस्मात् (पाहि) रक्ष (त्वम्) (नः) अस्मान् (प्रचेतः) हे प्रकृष्टज्ञान (शुभे) कल्याणाय (सखिभ्यः) तव प्रियभूतेभ्यः (अमृतत्वम्) अमरत्वम्। दुःखराहित्यम् (अस्तु) (नः) अस्मभ्यम् ॥

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    विषय

    दोषनिराकरण व अमृतत्व प्राप्ति

    पदार्थ

    १.हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (यत् किञ्चित्) = जो कुछ (अस्मृति) = कर्त्तव्य के स्मरण न होने के कारण (चकृम) = हम गलती कर बैठते है, अथवा हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! जो कुछ चरणे (उपारिम) = आचरण में दोष कर बैठते हैं, (ततः) = उस गलती से हे (प्रचेत:) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले प्रभो! (त्वं नः पाहि) = आप हमें बचाइए। २. इसप्रकार दोषों के दूर होने पर (शुभे) = शुभ कार्यों के होने पर (न:) = हम (सखिभ्यः) =  सखाओं के लिए-परस्पर मित्रभाव को प्राप्स हम लोगों के लिए (अमृतत्वम् अस्तु) = अमृतत्व प्राप्त हो, नीरोगता प्राप्त हो।

    भावार्थ

    हम अस्मरण के कारण यदि कुछ ग़लती कर जाएँ अथवा आचरण में दोषवाले हो जाएँ तो वे सर्वज्ञ प्रकाशमय प्रभु हमें उस गलती से बचाएँ। शुभ मार्ग पर चलते हुए हम अमृतत्व को प्राप्त करें।

    ज्ञानाग्नि में अपने को परिपक्व करके निष्पाप जीवनवाला 'भृगु' [भ्रस्ज पाके] अगले दो सूक्तों का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे ज्ञानाग्निसम्पन्न परमेश्वर ! तथा (जातवेदः) हे प्रतिउत्पन्न पदार्थ में विद्यमान परमेश्वर ! (अस्मृति) विस्मृति के कारण (यत् किंचित्) जो कुछ (चकृम) हम से कर्म हो गया है, (चरणे) तथा आचार-व्यवहार में (उपारिम) जो त्रुटि हुई है, (ततः) उससे (प्रचेतः) हे प्रज्ञानी !! (त्वम्) तू (नः) हमारी (पाहि) रक्षा कर (शुभे) ताकि शुभकर्मों में विद्यमान (नः) हम (सखिभ्यः) सखाओं के लिये (अमृतत्वम्, अस्तु) मोक्ष हो।

    टिप्पणी

    [सखिभ्यः= हम जो तेरे सखा हैं, हे परमेश्वर ! । गुरुकुल शिक्षा समाप्ति काल में परमेश्वर से स्नातकों द्वारा प्रार्थना]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Immortality

    Meaning

    O Jataveda Agni, omniscient Lord of wisdom, leading light of life, whatever in our life and conduct, we might do unconsciously in violation of the holy values of life by omission or by commission, pray save us from that, protect us against that, so it may be the divine gift of immortality for our good, for us and for our friends.

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    Subject

    Jateveda : Varuna

    Translation

    O adorable Lord, what we have in forgetfulness; O knower of all, what fault we have. committed in our conduct, from that, O well-discerning Lord, may you save us. May there be life eternal in good actions for us, your favoured friends.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.111.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    O Self-refulgent God! Thou art all-knowledge and the revealer of the Vedic speech. Please keep me away from whatever ill I deem to commit unknowingly and whatever arror I desire to play or I will play in my behavior. May there be immortality for us who are Thy friends.

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    Translation

    Each thoughtless ill that we have done, O God, all error in our conduct, O Omniscient God!, therefore do thou, O sapient God, preserve us. May we thy friends, for bliss, have life eternal.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(यत्) दुष्कर्म (अस्मृति) यथा तथा। स्मरणरहितं पूर्वोत्तरकर्मफलानुसन्धानरहितम् (चकृम) वयं कृतवन्तः (किंचित्) किमपि (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमेश्वर (उप-आरिम) ऋ हिंसायाम्-लिट्। वयमपराद्धवन्तः (चरणे) आचरणे (जातवेदः) हे जातानां वेदितः (ततः) तस्मात् (पाहि) रक्ष (त्वम्) (नः) अस्मान् (प्रचेतः) हे प्रकृष्टज्ञान (शुभे) कल्याणाय (सखिभ्यः) तव प्रियभूतेभ्यः (अमृतत्वम्) अमरत्वम्। दुःखराहित्यम् (अस्तु) (नः) अस्मभ्यम् ॥

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