अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 1
यस्ते॑ पृ॒थु स्त॑नयि॒त्नुर्य ऋ॒ष्वो दैवः॑ के॒तुर्विश्व॑मा॒भूष॑ती॒दम्। मा नो॑ वधीर्वि॒द्युता॑ देव स॒स्यं मोत व॑धी र॒श्मिभिः॒ सूर्य॑स्य ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ते॒ । पृ॒थु: । स्त॒न॒यि॒त्नु: । य: । ऋ॒ष्व: । दैव॑: । के॒तु: । विश्व॑म् । आ॒ऽभूष॑ति । इ॒दम् । मा । न॒: । व॒धी॒: । वि॒ऽद्युता॑ । दे॒व॒: । स॒स्यम् । मा । उ॒त । व॒धी॒: । र॒श्मिऽभि॑: । सूर्य॑स्य ॥१२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते पृथु स्तनयित्नुर्य ऋष्वो दैवः केतुर्विश्वमाभूषतीदम्। मा नो वधीर्विद्युता देव सस्यं मोत वधी रश्मिभिः सूर्यस्य ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ते । पृथु: । स्तनयित्नु: । य: । ऋष्व: । दैव: । केतु: । विश्वम् । आऽभूषति । इदम् । मा । न: । वधी: । विऽद्युता । देव: । सस्यम् । मा । उत । वधी: । रश्मिऽभि: । सूर्यस्य ॥१२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अन्न की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(देव) हे जलदाता मेघ ! (यः) जो (ते) तेरा (पृथुः) विस्तीर्ण और (यः) जो (ऋष्वः) इधर-उधर चलनेवाला वा बड़ा, (दैवः) आकाश में रहनेवाला, (केतुः) जतानेवाला झण्डा रूप (स्तनयित्नुः) गर्जन (इदम् विश्वम्) इस सब स्थान में (आभूषति) व्यापता है। (नः) हमारे (सस्यम्) धान्य को (विद्युता) चमचमाती बिजुली से (मा वधीः) मत नाश कर, और (सूर्यस्य) सूर्य की (रश्मिभिः) किरणों से (उत) भी (मा वधीः) मत सुखा ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि दैवी विपत्तियों का विचार रख कर पहिले से अन्न आदि के संचय से रक्षा का उपाय कर लेवें ॥१॥
टिप्पणी
१−(यः) (ते) तव (पृथुः) विस्तीर्णः (स्तनयित्नुः) अ० ४।१५।११। मेघध्वनिः) (ऋष्वः) अशूप्रुषिलटि। उ० १।१५१। ऋष गतौ दर्शने च-क्वन्। इतस्ततो गन्ता। महान्-निघ० ३।३। (दैवः) दिव्-अण्। दिवि आकाशे भवः (केतुः) अ० ६।१०३। ज्ञापकः। ध्वजरूपः (विश्वम्) सर्वं स्थानम् (आभूषति) भूष अलङ्कारे। व्याप्नोति (नः) अस्माकम् (मा वधीः) मा हिंसीः (विद्युता) अशन्या (देव) हे जलप्रद मेघ (सस्यम्) माछाशसिभ्यो यः। उ० ४।१०९। इति षस स्वप्ने-य। धान्यम् (उत) अपि (मा वधीः) मा शोषय (रश्मिभिः) किरणैः (सूर्यस्य) सवितुः ॥
विषय
पर्जन्य
पदार्थ
१. (देव) = हे द्योतनशील पर्जन्य! (ते) = तेरा (यः) = जो (पृथुः) = विस्तीर्ण (स्तनयित्नु) = गर्जनरूप शब्द करता हुआ अशनि-विद्युत् है, (यः ऋष्व:) = जो [ऋत् गतौ togo अथवा to kill] इधर-उधर गतिवाला व संहार करनेवाला है, वह (दैवः केतुः) = देव प्रभु की महिमा का प्रज्ञापक है, (इदं विश्वं आभूषति) = इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त होता है, विद्युत् की सत्ता सर्वत्र है। २. हे देव! उस (विद्युता) = अशनि से (न:) = हमारे (सस्य) = अन्न को (मा वधी:) = मत नष्ट कर (उत) = और (सूर्यस्य रश्मिभिः) = सूर्य की सन्तापकर किरणों में (मा वधी:) = हमारे अन्न को शुष्क मत होने दे।
भावार्थ
हमारे खेतों में बोये हुए शालि आदि धान्य अतिवृष्टि व अनावृष्टि से नष्ट न हो जाएँ। विद्युत्-पतन व सूर्यसन्ताप उन्हें नष्ट करके हमारे विनाश का कारण न बनें।
भाषार्थ
(यः) जो (ते) तेरा (पृथुः) अन्तरिक्ष में विस्तृत (स्तनयित्नुः) गर्जता मेघ है, (यः) जोकि (ऋष्व:) महाविस्तारी, (देवः) द्योतमान (केतुः) उत्पन्न होने वाले कृष्यन्न का ज्ञापक है, और (इदम् विश्वम्, आभूषति) इस सब भूमण्डल को भूषित करता है [अन्न प्रदान द्वारा] (देव) हे [पूषा] देवः (विद्युता) विद्युत्पात द्वारा (नः) हमारे (सस्यम्) कृष्यन्न को (मा) न (वधीः) नष्ट कर (उत) तथा (सूर्यस्य रश्मिभिः) सूर्य की रश्मियों द्वारा (मा वधीः) न नष्ट कर।
टिप्पणी
[दैवः= देवः; स्वार्थे अण्। ऋष्वः महत् नाम (निघं० ३।३)। केतुः = किती संज्ञाने। विद्युत् प्रपात द्वारा तथा सूर्य की प्रतप्त रश्मियों द्वारा कृषि नष्ट हो जाती है। मन्त्र में प्रकरण प्राप्त पूषा का सम्बोधन अभिप्रेत है। दैवः=देवः = "दानाद्वा, दीपनाद्वा, द्योतनाद्वा, द्युस्थानो भवतीति वा" (निरुक्त ७।४।१५)]।
विषय
सरस्वती की उपासना।
भावार्थ
हे सरस्वति ! (यः) जो (ते) तेरा (पृथुः) अति विस्तृत (स्तनयित्नुः) गर्जनशील और जो (ऋष्वः) हिंसा-जनक आघातकारी (दैवः) प्रकाशमान (केतुः) ध्वजा के समान विद्युत् और सूर्य (इदम्) इस समस्त (विश्वम्) संसार को (आ-भूषति) सुशोभित करता है, हे देव ! तू उस (विद्युता) विशेष दीप्तियुक्त विद्युत्-वज्र से (नः) हमें (मा वधीः) मत मार। (उत) और उससे (सस्यं मा वधीः) हमारे खेत के धान को भी मत मार और इसी प्रकार (सूर्यस्य रश्मिभिः) सूर्य की तीव्र किरणों से भी हमें न मार और हमारे धान्यों, खेतियों को न मार। पुरुषों को ‘सन्स्ट्रोक’ न हो और खेती सूख न जाय।
टिप्पणी
यत् स्फूर्जयन् वाचमिव वदन् दहति तदस्य अग्नेः सारस्वतं रूपम्॥ ऐ० ३। ४।। सरस्वतीति तद् द्वितीयं वज्ररूपम्॥ कौ० १२। २१। मेघ का गर्जन और विद्युद्विलास यह भी अग्नि का ‘सारस्वत रूप’ है सरस्वती वज्र का द्वितीय रूप है। राष्ट्र पक्ष में राजा, राजदण्ड, राजव्यवस्था कानून आदि सरस्वती-वज्र के प्रतिनिधि हैं।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शौनक ऋषिः। सरस्वती देवता। पर्जन्य इति सायणः। त्रिष्टुप। एकर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Cloud and Rain-gift
Meaning
O mother shower of nature’s bounty, Sarasvati, this reverberating thunder that is yours, the divine cloud of rain that adorns the world like a banner of royalty is yours. Pray let it not destroy us with lightning. O divine cloud, pray let not our crops of grain be parched and destroyed by the hot rays of the sun.
Subject
Sarasvati
Translation
That wide-spread and thundering, that smiting divine ensign of yours, which makes all the things beautiful - O Lord, may you not kill our crop with lightning, nor kill (it) with the rays of the sun.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.12.1AS PER THE BOOK
Translation
Let not this Deva, the cloud kill our growing crop with the burning rays of sun and let it not strike the crop with that lightning which is far-spreading, grand, is like a high celestial signal, thundering and which comes to all this world.
Translation
O watery cloud, that high celestial signal sent by thee in the shape of far-spread thunder pervades all this word. Strike not, our growing corn with lightning, nor destroy it with the burning rays of the Sun!
Footnote
Agriculturists should protect their crops from abundance or lack of rain. Intense heat and intense rains are both harmful to the crops.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यः) (ते) तव (पृथुः) विस्तीर्णः (स्तनयित्नुः) अ० ४।१५।११। मेघध्वनिः) (ऋष्वः) अशूप्रुषिलटि। उ० १।१५१। ऋष गतौ दर्शने च-क्वन्। इतस्ततो गन्ता। महान्-निघ० ३।३। (दैवः) दिव्-अण्। दिवि आकाशे भवः (केतुः) अ० ६।१०३। ज्ञापकः। ध्वजरूपः (विश्वम्) सर्वं स्थानम् (आभूषति) भूष अलङ्कारे। व्याप्नोति (नः) अस्माकम् (मा वधीः) मा हिंसीः (विद्युता) अशन्या (देव) हे जलप्रद मेघ (सस्यम्) माछाशसिभ्यो यः। उ० ४।१०९। इति षस स्वप्ने-य। धान्यम् (उत) अपि (मा वधीः) मा शोषय (रश्मिभिः) किरणैः (सूर्यस्य) सवितुः ॥
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