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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 111 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 111/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - वृषभः छन्दः - पराबृहती त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त
    1

    इन्द्र॑स्य कु॒क्षिर॑सि सोम॒धान॑ आ॒त्मा दे॒वाना॑मु॒त मानु॑षाणाम्। इ॒ह प्र॒जा ज॑नय॒ यास्त॑ आ॒सु या अ॒न्यत्रे॒ह तास्ते॑ रमन्ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य । कु॒क्षि: । अ॒सि॒ । सो॒म॒ऽधान॑: । आ॒त्मा । दे॒वाना॑म् । उ॒त । मानु॑षाणाम्। इ॒ह । प्र॒ऽजा: । ज॒न॒य॒ । या: । ते॒ । आ॒सु । या: । अ॒न्यत्र॑ । इ॒ह । ता: । ते॒ । र॒म॒न्ता॒म् ॥११६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य कुक्षिरसि सोमधान आत्मा देवानामुत मानुषाणाम्। इह प्रजा जनय यास्त आसु या अन्यत्रेह तास्ते रमन्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य । कुक्षि: । असि । सोमऽधान: । आत्मा । देवानाम् । उत । मानुषाणाम्। इह । प्रऽजा: । जनय । या: । ते । आसु । या: । अन्यत्र । इह । ता: । ते । रमन्ताम् ॥११६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 111; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ईश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे ईश्वर !] तू (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य का (कुक्षिः) कोख रूप, (सोमधानः) अमृत का आधार, (देवानाम्) दिव्य लोकों [सूर्य, पृथिवी आदि] का, (उत) और (मानुषाणाम्) मनुष्यों का (आत्मा) आत्मा [अन्तर्यामी] (असि) है। (इह) यहाँ पर (प्रजाः) प्रजाओं को (जनय) उत्पन्न कर, (याः) जो (ते) तेरे लिये [तेरी आज्ञाकारी] (आसु) इन [प्रजाओं] में, और (याः) जो (अन्यत्र) दूसरे स्थान में [हों] (इह) यहाँ पर (ताः) वे सब (ते) तेरे लिये (रमन्ताम्) विहार करें ॥१॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग प्रयत्न करें कि सब मनुष्य निकट और दूर स्थान में ईश्वर की आज्ञा मानते रहें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(इन्द्रस्य) परमैश्वर्यस्य (कुक्षिः) अ० २।५।४। कुक्षिरूपः (सोमधानः) अमृताधारः (आत्मा) अन्तर्यामी (देवानाम्) सूर्यपृथिव्यादिदिव्यलोकानाम् (उत) अपि (मानुषाणाम्) मनुष्याणाम् (इह) (प्रजाः) मनुष्यादिरूपाः (जनय) उत्पादय (याः) प्रजाः (ते) तुभ्यम्। तवाज्ञापालनाय (आसु) प्रजासु (याः) (अन्यत्र) अन्यस्मिन् देशे (इह) अत्र (ताः) प्रजाः (ते) तुभ्यम् (रमन्ताम्) विहरन्तु ॥

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    विषय

    सोमधानः कुक्षिः

    पदार्थ

    १. अपने जठर को ही सम्बोधित करता हुआ यह 'ब्रह्मा' कहता है कि तू (इन्द्रस्य) = एक जितेन्द्रिय पुरुष का (कुक्षिः असि) = जठर [उदर] है, इसीलिए तू (सोमधान:) = सोम का आधार है, तुझमें सोम सुरक्षितरूप में रहता है। अथवा तू सौम्य [वानस्पतिक] भोजनों को ही अपने में स्थापित करनेवाला है, कभी मांसाहार नहीं करता। तू (देवानां उत मानुषाणाम्) = देवों का तथा विचारशील पुरुषों का (आत्मा) = शरीर है। तुझमें दिव्य गुणों व मानवता का निवास है। मांसाहार मनुष्य को दिव्य गुणों व मानवता से दूर ले-जाता है। २. प्रभु कहते हैं कि हे सोम का रक्षण करनेवाले पुरुष! (इह) = यहाँ गृहस्थ में (प्रजा: जनय) = सन्तानों को जन्म दे। (याः) = जो (ते) = तेरी प्रजाएँ (आसु) = इन्हीं जन्मभूमियों में निवास करती हैं, (याः अन्यत्र) = और जो अन्यत्र दूर देशों में हैं, (ता:) = वे (ते) = तेरी प्रजाएँ (इह) = इस जीवन में (रमन्ताम्) = सुखी हों।

    भावार्थ

    हम जितेन्द्रिय बनकर सोम का रक्षण करें और सौम्य भोजनों को ही खाएँ। इसप्रकार हम दिव्य गुणों व मानवता को अपने में स्थान दें। इस जीवन में उत्तम सन्तानों को जन्म दें। ये सन्तान यहाँ हों या कहीं दूर-वे आनन्द में रहें।

    सोम का रक्षण करता हुआ पाप का निवारण करनेवाला 'वरुण' अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर ! (इन्द्रस्य) सूर्य का (कुक्षिः) गर्भाशयरूप (असि) तू है, (सोमधानः) चन्द्रमा का तू निधान है। (देवानाम्) देवकोटि के (उत) तथा (मानुषाणाम्) साधारणकोटि के मनुष्यों की तू (आत्मा) आत्मा है, उन में प्रेरणाएं देता है। (इह) इस भूलोक में (प्रजाः) प्रकृष्ट सन्तानें (जनय) पैदा कर अर्थात् (आसु) इन स्त्रियों में (याः) जो कि (ते) तेरी हैं, तेरी उपासिका हैं, (ते) तेरी प्रजाएं (याः) जो (अन्यत्र) अन्य लोकान्तरों में हैं, और (इह) इस भूलोक में हैं, (ताः) वे सब (रमन्ताम्) तुम में रमण करें।

    टिप्पणी

    [इन्द्रस्य कुक्षिः= यथा यत्राधि सुरऽउदितो विभाति" (यजु० ३२।७), अर्थात् जिस परमेश्वर में सूर्य उदित हुआ दीप्त होता है। "यत्राधि" द्वारा परमेश्वर को सूर्य का आश्रय माना है, जहां से कि सूर्य उदित होता है, पैदा होता है। व्याख्येय मन्त्र का देवता है “वृषभ" अर्थात् वर्षाकारी मेघवत्, सुखवर्षी परमेश्वर]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Sustainer Supreme

    Meaning

    O Vrshabha, omnipotent generator and energiser of existence, you are the seed and treasure-hold of Indra, glory and majesty of the universe, sole reservoir of the soma joy of life, soul and power of the divinities such as sun and moon, and the innermost conscience and spirit of humanity, they are your children here on earth, and those that are elsewhere in other worlds, may they too, your own, be happy.

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    Subject

    Vrsabhah (Bull)

    Translation

    You are the womb for the resplendent one, holder of semen (Soma), the soul of the enlightened ones as well as of the human -beings. May you generate offsprings here, in these females, that are yours. Those females, that are elsewhere, may come here rest and revel with you (later on).

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.116.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    O God! Thou art the upholder of this universe and art the belly (the all-sustaining force) of Indra, the electricity and energy playing its part in the universe. Thou art the universal spirit working as the soul of the physical forces and living force like men etc. Thou creates Thine worldly subject which are present in one locality and those others amongst these subjects which are in other locality. All these subjects, enjoy blessedness in Thee.

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    Translation

    O young man, thou art God’s treasure for procreation. Thou art the custodian of semen. Thou art the soul of sages and ordinary mortals. Staying in domestic life create children, who, living amongst thy relatives, or in foreign countries, all thy subjects, should lead a happy life.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(इन्द्रस्य) परमैश्वर्यस्य (कुक्षिः) अ० २।५।४। कुक्षिरूपः (सोमधानः) अमृताधारः (आत्मा) अन्तर्यामी (देवानाम्) सूर्यपृथिव्यादिदिव्यलोकानाम् (उत) अपि (मानुषाणाम्) मनुष्याणाम् (इह) (प्रजाः) मनुष्यादिरूपाः (जनय) उत्पादय (याः) प्रजाः (ते) तुभ्यम्। तवाज्ञापालनाय (आसु) प्रजासु (याः) (अन्यत्र) अन्यस्मिन् देशे (इह) अत्र (ताः) प्रजाः (ते) तुभ्यम् (रमन्ताम्) विहरन्तु ॥

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