अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 112/ मन्त्र 1
ऋषिः - वरुणः
देवता - आपः, वरुणः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - पापनाशन सूक्त
1
शुम्भ॑नी॒ द्यावा॑पृथि॒वी अन्ति॑सुम्ने॒ महि॑व्रते। आपः॑ स॒प्त सु॑स्रुवुर्दे॒वीस्ता नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठशुम्भ॑नी॒ इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अन्ति॑सुम्ने॒ इत्यन्ति॑ऽसुम्ने । महि॑व्रते॒ इति॑ महि॑ऽव्रते । आप॑: । स॒प्त । सु॒स्रु॒वु॒: । दे॒वी: । ता: । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥११७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
शुम्भनी द्यावापृथिवी अन्तिसुम्ने महिव्रते। आपः सप्त सुस्रुवुर्देवीस्ता नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठशुम्भनी इति । द्यावापृथिवी इति । अन्तिसुम्ने इत्यन्तिऽसुम्ने । महिव्रते इति महिऽव्रते । आप: । सप्त । सुस्रुवु: । देवी: । ता: । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥११७.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
इन्द्रियों के जय का उपदेश।
पदार्थ
(शुम्भनी) शोभायमान (द्यावपृथिवी) सूर्य और पृथिवी लोक (अन्तिसुम्ने) [अपनी] गतियों से सुख देनेवाले और (महिव्रते) बड़े व्रत [नियम] वाले हैं। (देवीः) उत्तम गुणवाली (सप्त) सात (आपः) व्यापनशील इन्द्रियाँ [दो कान, दो नथने, दो आँखें और एक मुख] (सुस्रुवुः) [हमें] प्राप्त हुई हैं, (ताः) वे (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चन्तु) छुड़ावें ॥१॥
भावार्थ
जैसे सूर्य और पृथिवी लोक ईश्वरनियम से अपनी-अपनी गति पर चल कर वृष्टि अन्न आदि से उपकार करते हैं, वैसे ही मनुष्य इन्द्रियों को नियम में रखकर अपराधों से बचें ॥१॥ (सप्त आपः) पदों का मिलान करो (सप्त सिन्धवः) पदों से-अ० ४।६।२ ॥
टिप्पणी
१−(शुम्भनी) शुम्भ शोभायाम्-ल्युट्। शुम्भन्यौ शोभायमाने (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (अन्तिसुम्ने) वसेस्तिः। उ० ४।१८०। अम गतौ−ति। सुम्नं सुखम्-निघ० ३।६। स्वगतिभिः सुखकारिण्यौ (महिव्रते) अत्यन्तनियमयुक्ते (आपः) व्यापनशीलानीन्द्रियाणि। शीर्षण्यानि कर्णनासिकाचक्षुर्द्वयमुखानि। सिन्धवः-अ० ४।६।२। (सप्त) अ० ४।६।२। सप्तसंख्याकाः (सुस्रुवुः) स्रु गतौ-लिट्। अस्मान् प्रापुः (देवीः) दिव्यगुणाः (ताः) आपः (नः) अस्मान् (मुञ्चन्तु) मोचयन्तु (अंहसः) कष्टात् ॥
विषय
शम्भनी द्यावापृथिवी
पदार्थ
१. (शुम्भनी) = शोभादायक (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर (अन्तिसुन्मे) = [अम् गती, सुनं सुखम्] गति के द्वारा सुख देनेवाले हैं अथवा आन्तरिक [अन्ति-समीप] सुख उत्पन्न करनेवाले हैं और (महिव्रते) = महनीय व्रतोंवाले हैं। २. यहाँ-इस शरीर में (सप्त आप: सुस्त्रुवुः) = सात ज्ञानजल की धाराएँ बह रही हैं। 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' ये सात शीर्षण्य प्राण 'सप्तर्षि कहलाते हैं। इनसे सात ज्ञानजल की धाराओं का प्रवाह शरीर में निरन्तर चलता है, (ता:) = वे द्यावापृथिवी तथा सात ज्ञान-जल धाराएँ (न:) = हमें (अंहसः मुञ्चन्तु) = पाप से मुक्त करें।
भावार्थ
मस्तिष्क की दीप्ति, शरीर का स्वास्थ्य तथा सात ज्ञान-जल धाराएँ हमें अशुभ वृत्तियों से बचाती हैं।
भाषार्थ
(द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी (शुम्भनी) शोभा युक्त हैं, (अन्ति सुम्ने) अति सुखदायी हैं, अथवा अन्तिक अर्थात् उन के समीप पहुंचने पर वे सुखदायी होते हैं, (महिव्रते) वे महाव्रती हैं। (सप्त) तथा ७ प्राण, (देवीः आपः) दिव्य जलों की तरह, (सुस्रुवुः) स्रवित हुए हैं। (ताः) उन जलों के सदृश ७ स्राव (नः) हमें (अंहसः) पाप से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें।
टिप्पणी
[मन्त्र में प्रातः काल के त्वरित-भ्रमण का कथन हुआ है। प्रातः काल में उषा के प्रकाश में द्यौ और पृथिवी शोभायमान होते हैं। ये दोनों अपने अपने महाव्रतों में सदा रहते हैं, व्रतभंग नहीं करते। ७ प्राण हैं, प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान तथा पायु का नियमपूर्वक स्राव और उपस्थ द्वारा मूत्र का स्राव। जलों का स्रवण होना, उनका स्वाभाविक धर्म है। “अंहस्" का अभिप्राय है स्रावों के ठीक प्रकार से स्रवित न होने से उत्पन्न कष्ट।
विषय
पाप से मुक्त होने की प्रार्थना।
भावार्थ
(शुम्भनी) शोभादायक (द्यावापृथिवी) द्यु और पृथिवी दोनों (महि-व्रते) विशाल कार्य को करनेवाली और (अन्तिसुम्ने) भीतरी सुख उत्पन्न करती हैं। उनके बीच में (सप्त) सर्पणशील, निरन्तर गति करनेहारी (देवीः) तेजोमय, प्रकाशमय, ज्ञानस्वभाव (आपः) प्राप्त करने योग्य ज्ञानधारायें, जलधाराओं के समान, (सुस्रुवुः) स्रवण करती हैं, बहा करती हैं। (ताः) वे ईश्वर की परम दिव्य शक्तियां (नः) हमें (अंहसः) पाप से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें। अध्यात्म में—द्यु और पृथिवी अर्थात् प्राण और अपान शरीर में महान् कार्य करनेवाले सुखप्राप्ति के साधन हैं। उनके आश्रय पर सात (देवीः आपः) ज्ञानधाराएं, सात शीर्षण्य प्राण विचरते हैं, वे सन्मार्ग में रह कर हमें पाप से मुक्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। आपः वरुणश्च देवताः। १ भुरिक्। २ अनुष्टुप्। द्वयृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Sin
Meaning
Heaven and earth, both bright and beautiful, kind and close at heart, which use mighty observers of the laws of existence, and the seven streams of life which flow through pranas, senses and mind, and all through our actions, may all these keep us away and save us from sin and suffering.
Subject
Apah (waters)
Translation
Beauty-bestowing heaven and earth are granters of happiness within and are observers of great vows; seven flow the divine waters; may they free us from vice (sins, malady).
Comments / Notes
MANTRA NO 7.117.1AS PER THE BOOK
Translation
These haven and earth are radiant highly pleasant and abiding by the natural law. The seven pure waters flow here between them. Let these waters free us from the evil of disease.
Translation
Radiant with beauty are Heaven and Earth, who give us mental joy, whose sway is vast. We have been endowed with seven godly organs. May they deliver us from sin.
Footnote
Seven organs: Two eyes, two ears, two nostrils and mouth.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(शुम्भनी) शुम्भ शोभायाम्-ल्युट्। शुम्भन्यौ शोभायमाने (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (अन्तिसुम्ने) वसेस्तिः। उ० ४।१८०। अम गतौ−ति। सुम्नं सुखम्-निघ० ३।६। स्वगतिभिः सुखकारिण्यौ (महिव्रते) अत्यन्तनियमयुक्ते (आपः) व्यापनशीलानीन्द्रियाणि। शीर्षण्यानि कर्णनासिकाचक्षुर्द्वयमुखानि। सिन्धवः-अ० ४।६।२। (सप्त) अ० ४।६।२। सप्तसंख्याकाः (सुस्रुवुः) स्रु गतौ-लिट्। अस्मान् प्रापुः (देवीः) दिव्यगुणाः (ताः) आपः (नः) अस्मान् (मुञ्चन्तु) मोचयन्तु (अंहसः) कष्टात् ॥
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