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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 113 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 113/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भार्गवः देवता - तृष्टिका छन्दः - विराडनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    1

    तृष्टि॑के॒ तृष्ट॑वन्दन॒ उद॒मूं छि॑न्धि तृष्टिके। यथा॑ कृ॒तद्वि॒ष्टासो॒ऽमुष्मै॑ शे॒प्याव॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तृष्टि॑के । तृष्ट॑ऽवन्दने । उत् । अ॒मूम् । छि॒न्धि॒ । तृ॒ष्टि॒के॒ । यथा॑ । कृ॒तऽद्वि॑ष्टा । अस॑: । अ॒मुष्मै॑ । शे॒प्याऽव॑ते ॥११८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तृष्टिके तृष्टवन्दन उदमूं छिन्धि तृष्टिके। यथा कृतद्विष्टासोऽमुष्मै शेप्यावते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तृष्टिके । तृष्टऽवन्दने । उत् । अमूम् । छिन्धि । तृष्टिके । यथा । कृतऽद्विष्टा । अस: । अमुष्मै । शेप्याऽवते ॥११८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 113; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    तृष्णा त्याग का उपदेश।

    पदार्थ

    (तृषिके) हे कुत्सित तृष्णा ! (तृष्टवन्दने) हे लोलुपता की लता रूपा ! तू (अमूम्) पीड़ा को (उत् छिन्धि) काट डाल, (तृष्टिके) हे लोभ में टिकनेवाली ! तू (यथा) जिससे (अमुष्मै) उस (शेप्यावते) शक्तिमान् पुरुष के लिये (कृतद्विष्टा) द्वेषनाशिनी (असः) होवे [वैसा किया जावे] ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य पीड़ादायिनी तृष्णा को छोड़कर ईर्ष्या-द्वेष नाश करने में समर्थ होवें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(तृष्टिके) ञितृषा पिपासायाम्-क्त। कुत्सिते। पा० ५।३।७४। इति क प्रत्ययः। हे कुत्सिततृष्णे (तृष्टवन्दने) वदि अभिवादनस्तुत्योः-युच्, टाप्। तृष्टस्य लोलुपताया लतारूपे (उत्) उत्कर्षेण (अमूम्) कृषिचमितनि० उ० १।८०। अम रोगे पीडने-ऊ प्रत्ययः स्त्रियाम्। पीडाम् (छिन्धि) भिन्द्धि (तृष्टिके) ञितृषा-क्विप्+टिक गतौ-क। तृषि लोभे टेकते गच्छति या सा तत्सम्बुद्धौ (यथा) येन प्रकारेण, तथा क्रियतामिति शेषः (कृतद्विष्टा) कृ हिंसायाम्-क्त। कृतं नाशितम् द्विष्टं द्वेषणं यया सा (असः) भवेः (अमुष्मै) प्रसिद्धाय (शेप्यावते) शेपो बलम्, स्वार्थे-यत्, टाप्। शक्तिमते पुरुषाय ॥

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    विषय

    कर्कशता

    पदार्थ

    १.हे बाणि! तू (तृष्टा असि) = बड़ी कर्कशा है, (तृष्टिका) = कुत्सितदाहजनिका है। (विषा) = विषरूप तू (विषातकी असि) = [विषं आतंकयति संयोजयति] विष के संयोजन से जीवन को कष्टमय बना देनेवाली हैं। २. तू हमसे (यथा) = उसी प्रकार (परिवृक्ता अससि) = छोड़ी हुई हो, (इव) = जिस प्रकार (ऋषभस्य) = शक्ति-सेचन करनेवाले वृषभ से (वशा) = वन्ध्या गौ परिवृक्ता होती है। जैसे ऋषभ से वशा गौ उपभोग्या नहीं होती, इसी प्रकार शक्तिशाली पुरुष कर्कशवाणी का परित्याग ही करता है।

    भावार्थ

    कर्कशवाणी दाहजनिका है, विषरूप है, यह वन्ध्या है। शक्तिशाली पुरुष इसे सदा अपने से दूर रखता है।

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    भाषार्थ

    (तृष्टिके) हे अल्पतृष्णा ! (तुष्टवन्दने) हे तृष्णावालों द्वारा स्तुति प्राप्त हुई ! (तृष्टिके) हे अल्पतृष्णा ! तू (अमुष्मै) उस (शेप्यावते) वीर्य रक्षक के लिये (यथा) जिस किसी प्रकार से भी (कृतद्विष्टा) द्विष्ट हुई। (असः) हो जा, और (अमूम्) उस शेष बची तृष्णा का भी (उत् छिन्धि) उच्छेद कर।

    टिप्पणी

    [तृष्टिके= तृष् + भावे क्तः + कन्, टाप् (अल्पे, अष्टा०‌ ५।३।८५)। तृष्ट वन्दने= तृष्ट, तृष्णावालों (कर्तरि क्तः) द्वारा + वन्दने= अभिवन्दिते स्तुत्ये। तू, अमूम्= उस अवशिष्ट तृष्णा का "उच्छिन्धि" उच्छेद कर। व्यक्ति है शेप्यावत् = शेषः पुरुषेन्द्रिय, शेप्य= तद्भव वीर्य + अव् रक्षायाम्, शतृ प्रत्यय।व्यक्ति जो विषयभोग से पराङ्मुख हो गया है, और योगमार्ग की ओर जाना चाहता है वह अल्प विषयतृष्णा को भी योगमार्ग में बाधिका मानता है, और वीर्य की रक्षा करता है। वीर्य, योग में साधक है, यथा “श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्” (योग १।२०)। शेप्यावते = शेप्य + अवते। अन्यथा "शेप्या" में "आकार" व्यर्थ होगा। "तृष्टिके" का दो वार प्रयोग उसकी निश्चित अल्पता दर्शाने के लिये है। तृष्टवन्दने = तृष्टैः वन्दनं यस्याः, तत्सम्बुद्धौ]।

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    विषय

    स्त्री पुरुषों में कलह के कारण।

    भावार्थ

    हे (तृष्टिके*) कामतृष्णा से आतुर स्त्री ! हे (तृष्टवन्दने) कामातुर, तृष्णातुर पुरुषों को चाहने वाली, पुनः हे (तृष्टिके) धनतृष्णातु स्त्रि ! (यथा) जिस प्रकार से (शेष्यावते) भोग साधन युक्त वीर्यवान् अपने (अमुष्मै) अमुक = पति के लिये तू (कृत द्विष्टा) द्वेष किये (असः) बैठी है। तू अपनी तृष्णा के कारण ही (अमूं) अमुक पति पुरुष को (छिन्धि) विनाश कर रही है। अर्थात् स्त्री पुरुषों में काम-तृष्णा और धन-तृष्णा से ही परस्पर कलह उत्पन होते हैं।

    टिप्पणी

    ‘कुत्सिता तृष्टा तुष्टिका’ इति सायणः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भार्गव ऋषिः। तृष्टिका देवता। १ विराट् अनुष्टुप्। शङ्कुमती, चतुष्पदा भुरिक् उष्णिक्। द्वयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Desire

    Meaning

    O Desire, O Desire for desire itself, loved and adored by victims of the love of greed, be uprooted and away, separate so that you become averted for the vigorous man of yoga in the state of renunciation. (Reference may be made to Taittirya Upanishad, 1, 10: “Aham vrkshasya reriva, I cut off the root of Desire and Attachment,” and to Yoga Sutras of Patanjali, 1, 15: “The awareness of one’s self-mastery over and above the objects of desire seen or heard, that is Vairagya, Detachment,” also to Mundakopanishad, 3, 2, 4 which underscores the virile vigour of the man in pursuit of self-realisation through grace after the attainment of detachment.)

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    Subject

    Tristika

    Translation

    O (herb) causing intense thirst and burning, O parasite creeper causing thirst, cleave such.and such woman off (from - him), O thirster, so that she becomes hateful: to such and such man of strong virile power.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.118.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    This herbaceous plant named as Tristika, is rough and is roughly parasite. This destroys our passionate feelings as the woman feeling aversion for a badly passionate men averts his activities.

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    Translation

    O contemptible greed, O parasite of avarice, O covetousness thou art destroying that man, who is thy prey. Thou art the enemy of that strong man.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(तृष्टिके) ञितृषा पिपासायाम्-क्त। कुत्सिते। पा० ५।३।७४। इति क प्रत्ययः। हे कुत्सिततृष्णे (तृष्टवन्दने) वदि अभिवादनस्तुत्योः-युच्, टाप्। तृष्टस्य लोलुपताया लतारूपे (उत्) उत्कर्षेण (अमूम्) कृषिचमितनि० उ० १।८०। अम रोगे पीडने-ऊ प्रत्ययः स्त्रियाम्। पीडाम् (छिन्धि) भिन्द्धि (तृष्टिके) ञितृषा-क्विप्+टिक गतौ-क। तृषि लोभे टेकते गच्छति या सा तत्सम्बुद्धौ (यथा) येन प्रकारेण, तथा क्रियतामिति शेषः (कृतद्विष्टा) कृ हिंसायाम्-क्त। कृतं नाशितम् द्विष्टं द्वेषणं यया सा (असः) भवेः (अमुष्मै) प्रसिद्धाय (शेप्यावते) शेपो बलम्, स्वार्थे-यत्, टाप्। शक्तिमते पुरुषाय ॥

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