अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 117/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वाङ्गिराः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
1
आ म॒न्द्रैरि॑न्द्र॒ हरि॑भिर्या॒हि म॒यूर॑रोमभिः। मा त्वा॒ के चि॒द्वि य॑म॒न्विं न पा॒शिनो॑ऽति॒ धन्वे॑व॒ ताँ इ॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठआ । म॒न्द्रै: । इ॒न्द्र॒ । हरि॑ऽभि: । या॒हि । म॒यूर॑रोमऽभि: । मा । त्वा॒ । के । चि॒त् । वि । य॒म॒न् । विम् । न । पा॒शिन॑: । अति॑ । धन्व॑ऽइव । तान् । इ॒हि॒ ॥१२२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ मन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि मयूररोमभिः। मा त्वा के चिद्वि यमन्विं न पाशिनोऽति धन्वेव ताँ इहि ॥
स्वर रहित पद पाठआ । मन्द्रै: । इन्द्र । हरिऽभि: । याहि । मयूररोमऽभि: । मा । त्वा । के । चित् । वि । यमन् । विम् । न । पाशिन: । अति । धन्वऽइव । तान् । इहि ॥१२२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे प्रतापी राजन् ! (मन्द्रैः) गम्भीर ध्वनियों से वर्तमान (मयूररोमभिः) मोरों के रोम [समान चिकने, विचित्र रंग, दृढ़, बिजुली से युक्त रोमवस्त्र] वाले (हरिभिः) मनुष्यों और घोड़ों के साथ (आ याहि) तू आ। (त्वा) तुझको (केचित्) कोई भी (मा वि यमन्) कभी न रोकें (न) जैसे (पाशिनः) जालवाले [चिड़ीमार] (विम्) पक्षी को, तू (तान् अति) उनके ऊपर होकर (इहि) चल (धन्व इव) जैसे निर्जल देश [के ऊपर से] ॥१॥
भावार्थ
राजा प्रजा की रक्षा के लिये चतुर विज्ञानियों के बनाये हुए कवच आदि से सजे हुए सेना, अश्व, रथ आदि के साथ शत्रुओं पर चढ़ाई करे ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-म० ३।१।४५; यजुः०−२०।५३; साम० पू० ३।६।४ ॥
टिप्पणी
१−(आ याहि) आगच्छ (मन्द्रैः) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। मदि स्तुतौ-रक्। गम्भीरध्वनिभिर्वर्तमानैः (इन्द्र) प्रतापिन् राजन् (हरिभिः) मनुष्यैरश्वैश्च (मयूररोमभिः) मीनातेरूरन्। उ० १।६७। मीञ् हिंसायाम्-ऊरन्। नामन्सीमन्व्योमन्रोमन्०। उ० ४।१५१। रु शब्दे-मनिन्। मयूररोमसदृशरोमाणि कवचवस्त्राणि येषां तैः (मा) निषेधे (त्वा) त्वां राजानम् (केचित्) केऽपि शत्रवः (वि) विविधम् (यमन्) यमु उपरमे लेड्यडागमः। नियच्छन्तु। प्रतिबध्नन्तु (विम्) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। वा गतिगन्धनयोः-इण्, डित्। पक्षिणम् (न) उपमार्थे (पाशिनः) जालवन्तो व्याधाः (अति) अतीत्य (धन्व) अ० ४।४।७। निर्जलं मरुदेशम् (इव) यथा (तान्) शत्रून् (इहि) गच्छ ॥
विषय
विषय-मरुस्थली का लंघन
पदार्थ
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (हरिभिः) = इन इन्द्रियाश्बों से (आयाहि) = हमारे समीप आनेवाला हो। उन इन्द्रियाश्वों से जोकि (मन्द्रौः) = प्रशंसनीय हैं और (मयूररोमभि:) = [मीनाति हिनस्ति इति मयूरः, रु शब्दे रोम] वासनाविध्वंसक शब्दों का उच्चारण करनेवाले हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ गम्भीर ज्ञानवाली होकर प्रशंसनीय हैं तो कर्मेन्द्रियाँ प्रभु के नामों का उच्चारण करती हुई वासनाओं का विनाश करनेवाली हैं। ये इनद्रि याश्व हमें प्रभु की ओर ले चलते हैं। २. इस जीवन-यात्रा में (त्वा) = तुझे (केचित्) = कोई भी विषय (मा वियमन्) = मत रोकनेवाले हों। तू विषयों से बीच में ही पकड़न लिया जाए, न जैसेकि (विं पाशिना:) = पक्षी को जालहस्त शिकारी पकड़ लेते हैं। विषय व्याध के समान हैं, हम इनके शिकजे में न पड़ जाएँ। (तान्) = उन विषयों को (धन्व इव) = मरुस्थल की तरह (अति इहि) = लांघकर तू हमारे समीप प्राप्त होनेवाला हो। विषय वस्तुत: मरुस्थल हैं, उनमें कोई वास्तविक आनन्द नहीं। उनमें फंसना तो मूढ़ता ही है।
भावार्थ
हम विषयों में न फंसते हुए प्रभु की ओर आगे बढ़नेवाले हों।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे सम्राट् ! (मन्द्रैः) स्तुतियोग्य (मयूररोमभिः) मोर के रोम के सदृश रोम वाले (हरिभिः) अश्वों द्वारा (आ याहि) तू आ। (केचिद्) कोई (त्वा) तुझ [आते हुए] को (मा) न (वि यमन्) रोक, (न) जैसे कि (पाशिनः) फन्दों वाले शिकारी (विम्) पक्षी को रोक लेते हैं; (तान्) उन्हें (अति इहि) अतिक्रान्त करके आ जा, (धन्य इव) जैसे कि यात्री, जलरहित मरु-प्रदेश का अतिक्रमण कर, प्रापणीय स्थान में आ जाते हैं।
टिप्पणी
[हरिभिः में बहुवचन से या तो रथ में जुते नाना अश्व अभिप्रेत है, या सम्राट के रक्षकों के अश्व भी अभिप्रेत हैं। वियमन्= नियमन (यजु० २०।५३)। मयूररोमभिः= मन्त्र में प्रसिद्धार्थ कर दिया है। अश्व की गर्दन पर बाल होते हैं जिन्हें कि अयाल [mane] कहते हैं, परन्तु वे मयूर के रोमों के सदृश चितकवरे नहीं होते। "मयूररोमभिः" में बहुव्रीहि समास न मानकर "सह" अर्थ में "तृतीया" प्रतीत होती है, जिसका अर्थ होगा "मोर के रोमों से युक्त अश्व। यह देखा भी गया है कि घुड़सवार अपने घोड़ों के सिरों पर शोभा के लिए मोर के पंख लगा लेते हैं, तांगे वाले भी घोड़ों के सिर पर कलगीरूप में मोरपंख लगा लेते हैं। यह केवल शोभार्थ किया जाता है]।
विषय
सेनापति का कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्द्र) राजन् सेनापते ! (मन्द्रैः) उत्तम (मयूर रोमभिः) मोर के समान नीले नीले बालों वाले (हरिभिः) तेज घोड़ों से तू (आयाहि) शत्रु पर चढ़ाई कर। (त्वा) तुझको (केचित्) कोई भी विरोधी लोग (पाशिनः विं न) पक्षीको जालियों के समान (मा वि यमन्) न पकड़ सकें। यदि ये मुकाबले पर भी आवें तो भी (धन्व इव) वीर धनुर्धारी के समान (तान्) उनको (अति इहि) अतिक्रमण करके अपने देश को चला आ। ईश्वरपक्ष में—देखो, सामवेद पूर्वार्ध सं० २२६।
टिप्पणी
(तृ०) ‘मा त्वा केचिन्नियेमुरिन्न पाशिनो’ इति साम०। तत्र विश्वामित्र ऋषिः। अतिधन्व इव महेश्वासा इव इति दयानन्दो यजुर्भाष्ये। तत्र पदपाठः अति धन्वेति अतिधन्व इति। धन्व इति शस्त्रविशेषः। इति दयानन्दः ऋग्भाष्ये। उपचाराच्च धनुर्धरे धन्य इति प्रयोगो द्रष्टव्यः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। इन्द्रो देवता। पथ्या बृहती। एकर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Warrior
Meaning
Come Indra, lord of might and majesty, by your charming peacock-haired horses. Let none whatsoever hold you back, let none catch you with snares like a bird. March on like an exceptional hero of the bow, advance and take the enemies on.
Subject
Indrah
Translation
Come, resplendent Lord, with your beautiful multicolour radiant rays like that of a peacock. Let no obstruction détain you and catch you as the fowlers catch a bird by throwing snares. Pass and get away from them quickly as travellers cross a desert, (Also Rg. III.45.1)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.122.1AS PER THE BOOK
Translation
O King! Come here with the steed and men who are joyous and decorated with peacock’s plumes. Let none obstruct your way as fowlers stay the birds and you pass over them as over desert lands.
Translation
O King, go forth, with excellent steeds having tails like peacock plumes. Let none check thy onward march, as fowlers capture the bird. Just as a thirsty person crosses the waterless desert, so come unto us conquering the foes.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(आ याहि) आगच्छ (मन्द्रैः) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। मदि स्तुतौ-रक्। गम्भीरध्वनिभिर्वर्तमानैः (इन्द्र) प्रतापिन् राजन् (हरिभिः) मनुष्यैरश्वैश्च (मयूररोमभिः) मीनातेरूरन्। उ० १।६७। मीञ् हिंसायाम्-ऊरन्। नामन्सीमन्व्योमन्रोमन्०। उ० ४।१५१। रु शब्दे-मनिन्। मयूररोमसदृशरोमाणि कवचवस्त्राणि येषां तैः (मा) निषेधे (त्वा) त्वां राजानम् (केचित्) केऽपि शत्रवः (वि) विविधम् (यमन्) यमु उपरमे लेड्यडागमः। नियच्छन्तु। प्रतिबध्नन्तु (विम्) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। वा गतिगन्धनयोः-इण्, डित्। पक्षिणम् (न) उपमार्थे (पाशिनः) जालवन्तो व्याधाः (अति) अतीत्य (धन्व) अ० ४।४।७। निर्जलं मरुदेशम् (इव) यथा (तान्) शत्रून् (इहि) गच्छ ॥
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