अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
यथा॒ सूर्यो॒ नक्ष॑त्राणामु॒द्यंस्तेजां॑स्याद॒दे। ए॒वा स्त्री॒णां च॑ पुं॒सां च॑ द्विष॒तां वर्च॒ आ द॑दे ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । सूर्य॑: । नक्ष॑त्राणाम् । उ॒त्ऽयन् । तेजां॑सि । आ॒ऽद॒दे । ए॒व । स्त्री॒णाम् । च॒ । पुं॒साम् । च॒ । द्वि॒ष॒ताम् । वर्च॑: । आ । द॒दे॒ ॥१४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा सूर्यो नक्षत्राणामुद्यंस्तेजांस्याददे। एवा स्त्रीणां च पुंसां च द्विषतां वर्च आ ददे ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । सूर्य: । नक्षत्राणाम् । उत्ऽयन् । तेजांसि । आऽददे । एव । स्त्रीणाम् । च । पुंसाम् । च । द्विषताम् । वर्च: । आ । ददे ॥१४.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रुओं को हराने का उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जैसे (उद्यन्) उदय होते हुए (सूर्यः) सूर्य ने (नक्षत्राणाम्) नक्षत्रों के (तेजांसि) तेजों को (आददे) ले लिया है। (एव) वैसे ही (द्विषताम्) द्वेषी (स्त्रीणाम्) स्त्रियों (च च) और (पुंसाम्) पुरुषों का (वर्चः) तेज (आ ददे) मैंने ले लिया है ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य अधर्मी वैरियों को दबा कर ऐसा निस्तेज कर देवे, जैसे सूर्य के निकलने पर तारे निस्तेज हो जाते हैं ॥१॥
टिप्पणी
१−(यथा) येन प्रकारेण (सूर्यः) (नक्षत्राणाम्) तारकाणाम् (उद्यन्) उदयं प्राप्नुवन् (तेजांसि) प्रकाशान् (आददे) लिटि रूपम्। स जग्राह (एव) एवम् (स्त्रीणाम्) नारीणाम् (पुंसाम्) पुरुषाणाम् (च च) समुच्चये (द्विषताम्) पुमान् स्त्रिया। पा० १।२।६७। इत्येकशेषः। द्विषतीनां स्त्रीणां द्विषतां पुरुषाणां च (वर्चः) तेजः (आददे) अहं जग्राह ॥
विषय
उद्यन् सूर्यः [इव]
पदार्थ
१. (यथा) = जैसे (उद्यन् सूर्य:) = उदय होता हुआ सूर्य (नक्षत्राणां तेजांसि आददे) = नक्षत्रों के तेज को हर लेता है, (इव) = इसी प्रकार मैं (स्त्रीणां च पुंसां च) = चाहे स्त्रियाँ हों, चाहे पुरुष जो भी (द्विषताम्) = शत्रु हैं, उनके (वर्च:) = तेज को-पराजित करने के सामर्थ्य को, (आददे) = अपहृत कर लेता हूँ।
भावार्थ
हम एकाग्न वृत्ति के बनकर 'अथर्वाबनें। यह एकाग्रता हमें वह तेजस्विता प्राप्त कराएगी जिससे हम सब शत्रुओं के तेज का वैसे ही अभिभव कर पाएँगे, जैसेकि उदय होता हुआ सूर्य नक्षत्रों के तेज का हरण करता है।
भाषार्थ
(उद्यन् सूर्यः) उदित होता हुआ सूर्य (यथा) जैसे (नक्षत्राणाम्) ताराओं के (तेजांसि) तेजों दीप्तियों का (आददे) अपहरण करता है, (एवा= एवम्) इस प्रकार (स्त्रीणां च) द्वेषियों की स्त्रियों के (द्विषतां, पुंसाम्, च) द्वेष करते हुए पुरुषों के (वर्चः) प्रभावविशेष का (आददे) मैं अपहरण करता हूं।
टिप्पणी
[मन्त्र में वक्ता निर्दिष्ट नहीं हुआ। सम्भवतः सूक्त (१६) में निर्दिष्ट सभापति अभिप्रेत हो, और सभा-समिति के संसदों में के शासकदल के विरोधी दल के स्त्री-सदस्यों और पुरुष सदस्यों को द्विषतां द्वारा निर्दिष्ट किया हो, अथवा सभापति द्वेषी राष्ट्र के स्त्री-पुरुषों के सम्बन्ध में कथन कर रहा है]।।
विषय
शत्रु के दमन की साधना।
भावार्थ
शत्रु व्यक्ति चाहे पुरुष हो चाहे स्त्री, वह उनको अपने सामर्थ्य से दबाने के लिये अपनी आत्मा की शक्ति इन विचारों से बढ़ावे। (यथा) जिस प्रकार (सूर्यः) सूर्य (उद्यन्) उदय होता हुआ (नक्षत्राणाम्) नक्षत्रों, तारों के (तेजांसि) प्रकाशों को (आददे) अपने में मिला कर लुप्त कर लेता है। (एवा) उसी प्रकार (द्विषताम्) द्वेष करने वाली (स्त्रीणाम्) स्त्रियों, (पुंसाम् च) और द्वेषी पुरुषों के (वर्चः) तेज को मैं (आ ददे) दबा लूं, अपने में मिलालूं। अपने से अधिक उनको न चमकने देकर स्वयं अधिक उज्जवल कीर्त्तिवाला ठोऊँ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
द्विषो वर्चोहर्त्तुकामोऽथर्वा ऋषिः। सोमो देवता। अनुष्टुप् छन्दः। द्व्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Depressing the Enemy
Meaning
Just as the rising sun takes away the lustre of the night stars, similarly I take away the lustre and power of the men and women opposed to me.
Subject
Suryah
Translation
As the Sun, when rising, takes the shine out of the stars, so I take to myself the splendour of those women and men, who hage (are malicious).
Comments / Notes
MANTRA NO 7.14.1AS PER THE BOOK
Translation
As the sun, rising, takes to itself the brilliancy of the stars, so I assume the glory of women and men of my enemies.
Translation
As the Sun, rising, eclipses the brightness of the stars, so I assume the glory of women and men my enemies.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यथा) येन प्रकारेण (सूर्यः) (नक्षत्राणाम्) तारकाणाम् (उद्यन्) उदयं प्राप्नुवन् (तेजांसि) प्रकाशान् (आददे) लिटि रूपम्। स जग्राह (एव) एवम् (स्त्रीणाम्) नारीणाम् (पुंसाम्) पुरुषाणाम् (च च) समुच्चये (द्विषताम्) पुमान् स्त्रिया। पा० १।२।६७। इत्येकशेषः। द्विषतीनां स्त्रीणां द्विषतां पुरुषाणां च (वर्चः) तेजः (आददे) अहं जग्राह ॥
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