Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 14 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सविता छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सविता सूक्त
    3

    अ॒भि त्यं दे॒वं स॑वि॒तार॑मो॒ण्योः क॒विक्र॑तुम्। अर्चा॑मि स॒त्यस॑वं रत्न॒धाम॒भि प्रि॒यं म॒तिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । त्यम् । दे॒वम् । स॒वि॒तार॑म् । ओ॒ण्यो᳡: । क॒विऽक्र॑तुम् । अर्चा॑मि । स॒त्यऽस॑वम् । र॒त्न॒ऽधाम् । अ॒भि । प्रि॒यम् । म॒तिम् ॥१५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि त्यं देवं सवितारमोण्योः कविक्रतुम्। अर्चामि सत्यसवं रत्नधामभि प्रियं मतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । त्यम् । देवम् । सवितारम् । ओण्यो: । कविऽक्रतुम् । अर्चामि । सत्यऽसवम् । रत्नऽधाम् । अभि । प्रियम् । मतिम् ॥१५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (त्वम्) उस (देवम्) सुखदाता (ओण्योः) सूर्य और पृथिवी के (सवितारम्) उत्पन्न करनेवाले, (कविक्रतुम्) सर्वज्ञ बुद्धि वा कर्मवाले, (सत्यसवम्) सच्चे ऐश्वर्यवाले, (रत्नधाम्) रमणीय विज्ञानों वा हीरा आदिकों वा लोकों के धारण करनेवाले, (प्रियम्) प्रीति करनेवाले, (मतिम्) मनन करनेवाले, परमेश्वर को (अभि अभि) बहुत भले प्रकार (अर्चामि) मैं पूजता हूँ ॥१॥

    भावार्थ

    राजा, प्रजा और सब विद्वान् लोग उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करके सदा धर्म के अनुकूल वरतें और आनन्द भोगें ॥१॥ मन्त्र १, २ कुछ भेद से सामवेद में हैं−पू० ५।८।८। और यजु० ४।२५ ॥

    टिप्पणी

    १−(अभि अभि) सर्वतः सर्वतः (त्यम्) प्रसिद्धम् (देवम्) सुखदातारम् (सवितारम्) उत्पादकम् (ओण्योः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। ओणृ अपनयने-इन्। कृदिकारादक्तिनः। वा० पा० ४।१।४५। इति ङीप्। द्यावापृथिव्योः-निघ० ३।३०। (कविक्रतुम्) कविः सर्वज्ञा क्रतुः प्रज्ञा कर्म वा यस्य तम्। कविः क्रान्तदर्शनो भवति कवतेर्वा-निरु० १२।१३। (अर्चामि) पूजयामि (सत्यसवम्) सत्यैश्वर्ययुक्तम् (रत्नधाम्) रत्नानि रमणीयानि विज्ञानानि हीरकादीनि भवनानि वा दधातीति तम् (प्रियम्) प्रीतिकरम्। (मतिम्) मनु अवबोधने-क्तिच्। मन्तारम्। मतयो मेधाविनः-निघ० ३।१५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सत्यसवं रत्नधाम्

    पदार्थ

    १. (त्यम्) = उस प्रसिद्ध (देवम्) = द्योतनात्मक, प्रकाशस्वरूप (ओण्यो:) = [सर्वस्य अवित्र्योः] सबके रक्षक द्यावापृथिवी के (सवितारम्) = उत्पादक प्रभु की (अभि अर्चामि) = प्रात:-सायं पूजा करता हूँ। २. उन प्रभु की पूजा करता हूँ जोकि (कविक्रतुम्) = कवियों, मेधावियों के कौवाले हैं, (सत्यसवम्) = सत्य की प्रेरणा देनेवाले हैं, (रत्नधाम) = रमणीय धनों के धारण करनेवाले हैं, (अभि प्रियम्) = आभिमुख्येन सबके प्रीतिकर हैं और अतएव (मतिम्) = सबसे मनन करने के योग्य हैं।

    भावार्थ

    मैं प्रभु का पूजन करता हूँ। वे प्रभु देव हैं, द्यावापृथिवी के उत्पादक हैं, मेधावी कर्मोंवाले हैं, सत्य के प्रेरक व रत्नों को धारण करनेवाले हैं, प्रीतिकर व मन्तव्य हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (ओण्योः) द्युलोक और पृथिवीलोक के (सवितारम्) उत्पादक, (कविक्रतुम्) कवियों की प्रज्ञा या कर्म वाले, (सत्यसवम्) सत्य के प्रेरक या सत्यज्ञान के प्रेरक (रत्नधाम्) रमणीय गुणों के धारण करने वाले, (प्रियम्) प्रिय (मतिम्) मननीय या ज्ञानस्वरूप (त्यम् देवम्) उस परमेश्वर देव को (अभि) लक्ष्य कर उसकी (अर्चामि) मैं स्तुति करता हूं, या पूजा करता हूँ।

    टिप्पणी

    [ओण्योः; ओण्यौ द्यावापृथिवीनाम (निघं० ३।३०) "अवतेः औणादिको निः प्रत्ययः, "ज्वर-त्वर" (अष्टा० ६।४।२०) इत्यादिना ऊठ, गुणः (सायण)। ऋतुः प्रज्ञानाम, कर्मनाम (निघं० ३।९; २।१)। परमेश्वर कवि है। यथा “कविर्मनीषी" (यजु० ४०।८), तथा परमेश्वर का काव्य है वेद। "देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीति" (अथर्व० १०। ८।३२)। अर्चामि= ऋच् स्तुतौ; अर्च पूजायाम् (तुदादिः; भ्वादिः)। सवम्= षू प्रेरणे (तुदादिः)।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ईश्वर की उपासना।

    भावार्थ

    मैं (ओण्योः) रक्षा करने वाले माता पिताओं और संसार के रक्षक सूर्य और पृथिवी दोनों के (सवितारं) प्रेरक और उत्पादक, (कवि क्रतुम्) क्रान्तदर्शी ज्ञानवाले अथवा क्रान्तदर्शी मेघावी लोगों के ज्ञान से पहले सर्वातिशायी ज्ञान से सम्पन्न, तथा (सत्य-सवं) सत्य अर्थात् सत् प्रकृति से उत्पन्न समस्त जगत् को उत्पन्न करने वाले, (रत्नधाम्) रमण करने योग्य समस्त ज्ञान का एवं रमणीय जीवन में आनन्दजनक पदार्थों और सूर्य आदि लोकों को धारण पोषण करने वाले, (प्रियं) सब को प्रसन्न करने वाले, प्यारे (मतिम्) सब को मानने या मनन करने योग्य (त्यं देवं) उस प्रकाशमय अथवा परम देव की (अभि अर्चामि) सदा उपासना करूं, उसे प्राप्त करूं।

    टिप्पणी

    ‘मतिं कविम’ इति यजु०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। सविता। १, २ अनुष्टुप् छन्दः। ३ त्रिष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Worship

    Meaning

    I worship the refulgent, divine, all-inspiring Savita, poetic creator of protective earth and light giving heaven, who brings about this yajnic creation of existential truth and holds the jewel wealth of the world for us. Dearest is He, knowledge, wisdom and love Itself.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject

    Savitr

    Translation

    I fervently adore that Lord, who is impeller (savita) of heaven and earth, full of vision and action, guide to truth, bestower of jewels, dear to all, and (is) the wisdom incarnate.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.15.1AS PER THE BOOK

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    I supplicate that Creator of the universe who is maker of the heaven and earth, who is exceedingly wise, possessed of all constructive power, the master of all the worldly treasure, dear to all and endowed with innate knowledge.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    I always praise this God, the creator of heaven and earth, the source of all knowledge, the Embodiment of splendor, the Giver of knowledge and treasure, the Centre of Love, and Adorable by all.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अभि अभि) सर्वतः सर्वतः (त्यम्) प्रसिद्धम् (देवम्) सुखदातारम् (सवितारम्) उत्पादकम् (ओण्योः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। ओणृ अपनयने-इन्। कृदिकारादक्तिनः। वा० पा० ४।१।४५। इति ङीप्। द्यावापृथिव्योः-निघ० ३।३०। (कविक्रतुम्) कविः सर्वज्ञा क्रतुः प्रज्ञा कर्म वा यस्य तम्। कविः क्रान्तदर्शनो भवति कवतेर्वा-निरु० १२।१३। (अर्चामि) पूजयामि (सत्यसवम्) सत्यैश्वर्ययुक्तम् (रत्नधाम्) रत्नानि रमणीयानि विज्ञानानि हीरकादीनि भवनानि वा दधातीति तम् (प्रियम्) प्रीतिकरम्। (मतिम्) मनु अवबोधने-क्तिच्। मन्तारम्। मतयो मेधाविनः-निघ० ३।१५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top