अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
तां स॑वितः स॒त्यस॑वां सुचि॒त्रामाहं वृ॑णे सुम॒तिं वि॒श्ववा॑राम्। याम॑स्य॒ कण्वो॒ अदु॑ह॒त्प्रपी॑नां स॒हस्र॑धारां महि॒षो भगा॑य ॥
स्वर सहित पद पाठताम् । स॒वि॒त॒: । स॒त्यऽस॑वाम् । सु॒ऽचि॒त्राम् । आ । अ॒हम् । वृ॒णे॒ । सु॒ऽम॒तिम् । वि॒श्वऽवा॑राम् । याम् । अ॒स्य॒ । कण्व॑: । अदु॑हत् । प्रऽपी॑नाम् । स॒हस्र॑ऽधाराम् । म॒हि॒ष: । भगा॑य ॥१६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तां सवितः सत्यसवां सुचित्रामाहं वृणे सुमतिं विश्ववाराम्। यामस्य कण्वो अदुहत्प्रपीनां सहस्रधारां महिषो भगाय ॥
स्वर रहित पद पाठताम् । सवित: । सत्यऽसवाम् । सुऽचित्राम् । आ । अहम् । वृणे । सुऽमतिम् । विश्वऽवाराम् । याम् । अस्य । कण्व: । अदुहत् । प्रऽपीनाम् । सहस्रऽधाराम् । महिष: । भगाय ॥१६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आचार्य और ब्रह्मचारी के कृत्य का उपदेश।
पदार्थ
(सवितः) हे सब ऐश्वर्यवाले आचार्य ! (ताम्) उस (सत्यसवाम्) सत्य ऐश्वर्यवाली, (सुचित्राम्) बड़ी विचित्र, (विश्ववाराम्) सब से स्वीकार करने योग्य (सुमतिम्) सुमति [यथावत् विषयवाली बुद्धि] को (अहम्) मैं (आ) आदरपूर्वक (वृणे) माँगता हूँ, (याम्) जिस (प्रपीनाम्) बहुत बढ़ी हुई, (सहस्रधाराम्) सहस्रों विषयों की धारण करनेवाली [सुमति] को (अस्य) इस [जगत्] के (भगाय) ऐश्वर्य के लिये (कण्वः) मेधावी, (महिषः) पूजनीय परमात्मा ने (अदुहत्) परिपूर्ण किया है ॥१॥
भावार्थ
तपस्वी ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी योगी, आप्त विद्वान् पुरुषों से संसार के हित के लिये परमेश्वरदत्त वेद द्वारा अपनी बुद्धि को बढ़ाते रहें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है-अ० १७।७४ ॥
टिप्पणी
१−(ताम्) (सवितः) सर्वैश्वर्यन्नाचार्य (सत्यसवाम्) सत्यैश्वर्ययुक्ताम् (सुचित्राम्) अमिचिमि०। उ० ४।१६४। चिञ् चयने−क्त्र। सुचयनीयाम्। महाविचित्रविषयाम् (आ) अङ्गीकारे (अहम्) स्त्री पुरुषो वा (वृणे) याचे (सुमतिम्) शोभनां यथाविषयां प्रज्ञाम् (विश्ववाराम्) सर्वैर्वरणीयाम् (याम्) सुमतिम् (अस्य) प्रसिद्धस्य जगतः (कण्वः) अ० २।३२।३। मेधावी निघ० ३।१५। (अदुहत्) परिपूरितवान् (प्रपीनाम्) प्यायतेः-क्त, पीभावः। प्रवृद्धाम् (सहस्रधाराम्) सहस्रमसंख्यानर्थान् धरति ताम् (महिषः) अ० २।२५।४। पूजनीयः परमेश्वरः (भगाय) ऐश्वर्याय ॥
पदार्थ
१. (सवित:) = हे सबके प्रेरक प्रभो! आपकी (ताम्) = उस (सत्यसवाम्) = सत्य की प्रेरणा देनेवाली, (सुचित्राम्) = सुष्टु पूजनीय व द्रष्टव्य [उत्तम ज्ञान देनेवाली] (विश्ववाराम) = सबसे वरण के योग्य (सुमतिम्) = शोभन बुद्धि को (अहं आवृणे) = मैं आभिमुख्येन वरता हूँ-प्रार्थित करता हूँ। २. मैं चाहता हूँ (अस्य) = इस सविता की उस सुमति को (याम्) = जिस (सहस्त्रधाराम्) = सहनों प्रकार से धारण करने व सहस्रों धाराओंवाली, (प्रपीनाम्) = प्रकृष्ट आप्यायन-[वर्धन]-वाली बुद्धि को (कण्व:) = मेधावी (महिष:) = प्रभुपुजाप्रवृत्त उपासक (भगाय) = ऐश्वर्यों की प्राप्ति के लिए (अदुहत्) = अपने में प्रपूरित करता है।
भावार्थ
हम मेधावी व प्रभु के उपासक बनकर उस प्रेरक प्रभु की सुमति का अपने में प्रपूरण करें। यही हमें सत्य की प्रेरणा देगी, हममें ज्ञान का वर्धन करेगी, हमारा धारण व वर्धन करेगी। ऐसा होने पर ही हम वास्तविक ऐश्वर्य को प्रास करेंगे।
भाषार्थ
(सवितः) हे उत्पादक परमेश्वर ! (सत्यसवाम्) सत्य की प्रेरिका, (सुचित्राम) महनीया, पूजनीया, (विश्ववासम्) सब द्वारा वरणीया अर्थात् स्वीकरणीया (तां सुमत्तिम्) उस उत्तम-मति की (अहम्) मैं (आवृणे) याचना करता हूं, (अस्य) इस परमेश्वर की (प्रपीनाम्) ज्ञानवृद्धा तथा (सहस्रधाराम्) हजारों को धारण करने वाली या हजारों धाराओं वाली (याम्) जिस वेदवाक् या सुमति को (महिषः कण्वः) महान् मेधावी ने (भगाय) निज सौभाग्य के लिये (अदुहत्) दोहा है। अदुहत्= वर्तमाने लङ्। “छन्दसि लुङ्लङ लिटः" (अष्टा० ३।४।६)।
टिप्पणी
[अदुहत्, प्रपीनाम्, सहस्रधाराम्" द्वारा गौः अर्थापन्न होती है। यह मन्त्र "तै० सं०" में भी पठित है (४।२।५।५); वहां "महिषो भगाय के स्थान में "पयसा महीं गाम्" पाठ है। इस से भी ज्ञात होता है कि व्याख्येय मन्त्र में "गौ" अभिप्रेत है, जिससे कि सुमति का दोहन हुआ है। वह गौ है वेदवाक, वेदवाणी। गौः वाङ्नाम (निघं० १।१।१)। वेदवाक् "प्रपीना" है ज्ञानवृद्धा है, प्यायी वृद्धौ (भ्वादिः) वह "सहस्रधारा" भी है, सुमति दुग्ध प्रदान द्वारा हजारों का धारण-पोषण करती है। "दुह" धातु द्विकर्मक है। इस लिये भी “सुमतिम्" और "गाम्" [वेदवाक्] ये दो "कर्म" पद अपेक्षित हैं।]
विषय
ईश्वर की उपासना।
भावार्थ
हे (सवितः) सब के उत्पादक प्रेरक प्रभो ! (अहम्) मैं (सत्यः सवाम्) सत्य पदार्थों और ज्ञानों को उत्पन्न करने वाली (सु-चित्राम्) अति अद्भुत या अति पूजनीय, (विश्व-वाराम्) समस्त संसार की रक्षा करने वाली (तां) उस परम (सु-मतिम्) उत्तम रीति से मनन करने योग्य, दिव्य शक्ति की (आ वृणे) साक्षात् स्तुति करता हूँ (अस्य) इसकी (याम्) जिस दिव्य शक्ति को (सहस्रधाराम्) जो कि सहस्त्रों लोकों या समस्त विश्व को धारण करने वाली है (प्रपीनां) और जो अति पुष्ट गौ के समान आनन्द-रस का पान कराने वाली है (भगाय) अपने ऐश्वर्यशील आत्मसम्पत् को प्राप्त करने के लिए (महिषः) महा (कणवः) ज्ञानी पुरुष (अदुहत्) प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। सविता देवता। त्रिष्टुप्। एकर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Worship
Meaning
O lord creator, Savita, I choose and pray for that noble knowledge, wisdom, understanding and culture, truth inspiring, wonderfully unique and universal, abundant giver of fulfilment in a thousand streams, which the mighty saint and sagely scholar prayed for and received for the achievement of honour, prosperity and excellence of life.
Subject
Savitr
Translation
I solicit in every way that impeller Lords good grace urging towards truth (satyasava), really wonderful and preferred by all, which (of that impeller Lord) well developed and thousand-streamed (sahasra-dharam) grace the mighty realised soul milks for good fortune (bhagya).
Comments / Notes
MANTRA NO 7.16.1AS PER THE BOOK
Translation
O creator of the universe! I choose for me that glorious truth-inspiring and universally desired widom, which is grand related with vast-subjects and which the great enlightened person milks out from this world for his achievements.
Translation
O God, I crave for the fine intellect, that urges one to Truth, is wonderful, acceptable to all, highly developed, and master of a thousand subjects. A mighty learned person acquires such an intellect for his welfare!
Footnote
See Yajur, 17-74.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(ताम्) (सवितः) सर्वैश्वर्यन्नाचार्य (सत्यसवाम्) सत्यैश्वर्ययुक्ताम् (सुचित्राम्) अमिचिमि०। उ० ४।१६४। चिञ् चयने−क्त्र। सुचयनीयाम्। महाविचित्रविषयाम् (आ) अङ्गीकारे (अहम्) स्त्री पुरुषो वा (वृणे) याचे (सुमतिम्) शोभनां यथाविषयां प्रज्ञाम् (विश्ववाराम्) सर्वैर्वरणीयाम् (याम्) सुमतिम् (अस्य) प्रसिद्धस्य जगतः (कण्वः) अ० २।३२।३। मेधावी निघ० ३।१५। (अदुहत्) परिपूरितवान् (प्रपीनाम्) प्यायतेः-क्त, पीभावः। प्रवृद्धाम् (सहस्रधाराम्) सहस्रमसंख्यानर्थान् धरति ताम् (महिषः) अ० २।२५।४। पूजनीयः परमेश्वरः (भगाय) ऐश्वर्याय ॥
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