अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
इडै॒वास्माँ अनु॑ वस्तां व्र॒तेन॒ यस्याः॑ प॒दे पु॒नते॑ देव॒यन्तः॑। घृ॒तप॑दी॒ शक्व॑री॒ सोम॑पृ॒ष्ठोप॑ य॒ज्ञम॑स्थित वैश्वदे॒वी ॥
स्वर सहित पद पाठइडा॑ । ए॒व । अ॒स्मान् । अनु॑ । व॒स्ता॒म् । व्र॒तेन॑ । यस्या॑: । प॒दे । पु॒नते॑ । दे॒व॒ऽयन्त॑: । घृ॒तऽप॑दी । शक्व॑री । सोम॑ऽपृष्ठा । उप॑ । य॒ज्ञम् । अ॒स्थि॒त॒ । वै॒श्व॒ऽदे॒वी ॥२८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इडैवास्माँ अनु वस्तां व्रतेन यस्याः पदे पुनते देवयन्तः। घृतपदी शक्वरी सोमपृष्ठोप यज्ञमस्थित वैश्वदेवी ॥
स्वर रहित पद पाठइडा । एव । अस्मान् । अनु । वस्ताम् । व्रतेन । यस्या: । पदे । पुनते । देवऽयन्त: । घृतऽपदी । शक्वरी । सोमऽपृष्ठा । उप । यज्ञम् । अस्थित । वैश्वऽदेवी ॥२८.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्या प्राप्ति के लिये उपदेश।
पदार्थ
(इडा एव) वही प्रशंसनीय विद्या (अस्मान्) हमें (व्रतेन) उत्तम कर्म से (अनु) अनुग्रह करके (वस्ताम्) ढके [शोभायमान करे], (यस्याः) जिसके (पदे) अधिकार में (देवयन्तः) उत्तमगुण चाहनेवाले पुरुष (पुनते) शुद्ध होते हैं। [और जो] (घृतपदी) प्रकाश का अधिकार रखनेवाली, (शक्वरी) समर्थ, (सोमपृष्ठा) ऐश्वर्य सींचनेवाली, (वैश्वदेवी) सब उत्तम पदार्थों से सम्बन्धवाली होकर (यज्ञम्) पूजनीय व्यवहार में (उप अस्थित) उपस्थित हुई है ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य वेद द्वारा शास्त्रविद्या, शस्त्रविद्या, शिल्पविद्या, वाणिज्यविद्या आदि प्राप्त करके ऐश्वर्य बढ़ावें ॥१॥
टिप्पणी
१−(इडा) अ० ३।१०।६। स्तुत्या विद्या। वाक्-निघ० ३।११। (एव) अवधारणे (अस्मान्) सत्यकर्मणः (अनु) अनुग्रहेण (वस्ताम्) वस आच्छादने। आच्छादयतु। अलङ्करोतु (व्रतेन) शुभकर्मणा (यस्याः) इडायाः (पदे) अधिकारे (पुनते) शुद्ध्यन्ति (देवयन्तः) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। देव-क्यच्, शतृ। देवान् शुभगुणान् आत्मन इच्छन्तः (घृतपदी) घृतं प्रकाशः पदे अधिकारे यस्याः सा (शक्वरी) अ० ३।१३।७। शक्ता। समर्था (सोमपृष्ठा) अ० ३।२१।६। ऐश्वर्यसेचिका (उप अस्थित) उपस्थिता अभवत् (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (वैश्वदेवी) दिव्यपदार्थानां सम्बन्धिनी ॥
विषय
इडा
पदार्थ
१. (इडा) = यह वेदवाणी एव-हौ (अस्मान् व्रतेन अनुवस्ताम्) = हमें उत्तम कर्मों से आच्छादित करनेवाली हो, अर्थात् इस वेदज्ञान को प्राप्त करके हम सदा उत्तम कर्मों को करनेवाले हों। यह वेदवाणी वह है, (यस्या:) = जिसके कि पदे चरणों में (देवयन्तः) = प्रकाशमय प्रभु को प्राप्त करने की कामनाबाले पुरुष (पुनते) = अपने को सदा पवित्र करते हैं। २. (घृतपदी) = [घृतं पदे यस्याः] जिसके एक-एक शब्द में ज्ञानदीसि है, (शक्वरी) = जो हमें शक्तिशाली बनाती है, (सोमपृष्ठा) = [पृक्ष-to sprinkle] हमारे जीवन में सोम का सेचन करनेवाली है, अर्थात् वेदाभ्यास से वासना-विलय होकर सोम का शरीर में रक्षण होता है, वह (वैश्वदेवी) = सब दिव्य गुणों को जन्म देनेवाली वेदवाणी (यज्ञं उपास्थित) = उस पूजनीय प्रभु के समीप उपस्थित होती है, हमें प्रभु के समीप प्राप्त कराती है। यह वेदवाणी प्रभु का ही तो पूजन करती है [उपतिष्ठते] (सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति')।
भावार्थ
यह वेदवाणी हमें उत्तम कर्मों में प्रेरित करती हुई, पवित्र जीवनवाला बनाती है। यह 'ज्ञान, शक्ति व सोम का सेचन' करनेवाली है। सब दिव्यगुणों को प्राप्त कराती हुई यह हमें प्रभु के समीप उपस्थित करती है।
भाषार्थ
(इडा एव) वेदवाणी ही (व्रतेन) व्रतकर्मों द्वारा (अस्मान्) हमें (अनु वस्ताम्) निरन्तर आच्छादित१ करती रहे, (यस्याः) जिस वेदवाणी सम्बन्धी (पदे) प्रतिपाद्य परमेश्वर [की प्राप्ति] के निमित्त (देवयन्तः) पमेश्वर की कामना वाले (पुनते) [अपने-आप को] पवित्र करते हैं। (घृतपदी) वेदवाणी के “पद” प्रकाशमय हैं, (शक्वरी) वह शक्ति प्रदान करती (सोमपृष्ठा) जगदुत्पादक परमेश्वर उसकी पीठ पर है, वह (वैश्वदेवी) सब देवों का वर्णन करती है, (यज्ञम्) हमारे यज्ञकर्म में (उप अस्थित) उपस्थित हुई है।
टिप्पणी
[व्रतेन= व्रतकर्मों द्वारा पवित्रता होती है, और देव कामना वाले उपासक पवित्र होकर परमेश्वर की प्राप्ति के अधिकारी बनते हैं। वेदवाणी का मुख्य प्रतिपाद्य है परमेश्वर। यथा “यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति" (ऋ० १।१६४।३९), अर्थात् ऋचाएं पढ़कर भी जो परमेश्वर को नहीं जानता या प्राप्त होता वह ऋचाओं से क्या करेगा ? घृतम्= घृ क्षरणदीप्त्योः (जुहोत्यादिः)। सोम= षु प्रसवे या षू प्रेरणे (भ्वादिः; तुदादिः)। शक्वरी = शक् + धवनिप् + ङीप् + र। इळा वाङ्नाम (निघं० १।११)। सोमपृष्ठा; सोमः= षु प्रसवे, उत्पादने; सोमः उत्पादकः]। [१. वेद प्रोक्त व्रतों द्वारा हम अपने को निरन्तर आच्छादित करते रहें, ताकि आसुरी कर्म हम पर प्रहार न कर सकें।]
विषय
बुद्धिरूप कामधेनु का वर्णन।
भावार्थ
(इडा) श्रद्धा बुद्धि, सत्य धारण करने वाली बुद्धि रूप कामधेनु (एव) ही (अस्मान्) हमें (व्रतेन) ज्ञान और कर्म से (अनु वस्ताम्) आच्छादित करे, सुशोभित करे, (यस्याः) जिसके (पदे) पद अर्थात् प्राप्ति और ज्ञान में (देवयन्तः) अपने को देव, उत्तम गुण सम्पन्न बनाने की चेष्टा करने वाले, अथवा देव, ईश्वर और विद्वानों की उपासना करनेवाले लोग, अपने को (पुनते) पवित्र कर लेते हैं। वह (घृत-पदी) तेजोमय स्वरूप वाली, ज्ञानमयी, पद पद पर घृत के समान पुष्टिकारक, बुद्धिवर्धक पदार्थ को उत्पन्न करनेवाली कामधेनु के समान (शक्वरी) सब प्रकार से शक्तिमती, (सोम-पृष्ठा) सोम-आत्मा, और ब्रह्म को अपने पीठ पर धारण करनेवाली, आत्मा और ब्रह्मज्ञान की पोषक होकर (वैश्वदेवी) समस्त विद्वानों को हितकारक और आत्मा के सब इन्द्रियगण के लिये सुखकारी होकर (यज्ञम्) यज्ञ, शुभकर्म या परमात्मा में (अस्थित) स्थित है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेधातिथिर्ऋषिः। इडा देवता। त्रिष्टुप्। एकर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Word of Knowledge
Meaning
May Ida, divine Word and sacred knowledge, refine and adorn us with culture and enlightenment with the sense of duty and discipline, for in her light and presence, men dedicated to divinity and nobility are blest and sanctified. It is refinement and grace itself, powerful and inspiring, established in soma bliss of divinity, rooted in yajna, and relates to all the powers and phases of Divinity manifested in nature and humanity. May this Word, knowledge, abide with us in all our yajnic performances of life.
Subject
Ida
Translation
May the sacred speech (ida) dwell here with us according to her vow; she, in whose abode the pious people purify themselves. May she, dripping famess from her words, capable and full of devotional bliss, addressed to’ all the enlightened ones, be present al this sacrifice.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.28.1AS PER THE BOOK
Translation
Let even the intelligence in attainment of which the persons desiring noble qualities and acts make them purged and pure make us celebrated with knowledge and action. It is full of light, it is mighty, consciousness is its basic ground and it is the light concerned with all the mental activities. Let it remain with me in my ventures of thoughts and deeds,
Translation
May intellect with her knowledge dwell beside us, under whose influence the pious purge and cleanse themselves. She, brilliant, mighty, the bestower of the knowledge of God and soul, the lover of all the learned, is fixed in God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(इडा) अ० ३।१०।६। स्तुत्या विद्या। वाक्-निघ० ३।११। (एव) अवधारणे (अस्मान्) सत्यकर्मणः (अनु) अनुग्रहेण (वस्ताम्) वस आच्छादने। आच्छादयतु। अलङ्करोतु (व्रतेन) शुभकर्मणा (यस्याः) इडायाः (पदे) अधिकारे (पुनते) शुद्ध्यन्ति (देवयन्तः) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। देव-क्यच्, शतृ। देवान् शुभगुणान् आत्मन इच्छन्तः (घृतपदी) घृतं प्रकाशः पदे अधिकारे यस्याः सा (शक्वरी) अ० ३।१३।७। शक्ता। समर्था (सोमपृष्ठा) अ० ३।२१।६। ऐश्वर्यसेचिका (उप अस्थित) उपस्थिता अभवत् (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (वैश्वदेवी) दिव्यपदार्थानां सम्बन्धिनी ॥
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