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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
    1

    उप॑ प्रि॒यं पनि॑प्नतं॒ युवा॑नमाहुती॒वृध॑म्। अग॑न्म॒ बिभ्र॑तो॒ नमो॑ दी॒र्घमायुः॑ कृणोतु मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । प्रि॒यम् । पनि॑प्नतम् । युवा॑नम् । आ॒हु॒ति॒ऽवृध॑म् । अग॑न्म । बिभ्र॑त: । नम॑: । दी॒र्घम् । आयु॑: । कृ॒णो॒तु॒ । मे॒ ॥३३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप प्रियं पनिप्नतं युवानमाहुतीवृधम्। अगन्म बिभ्रतो नमो दीर्घमायुः कृणोतु मे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । प्रियम् । पनिप्नतम् । युवानम् । आहुतिऽवृधम् । अगन्म । बिभ्रत: । नम: । दीर्घम् । आयु: । कृणोतु । मे ॥३३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (नमः) वज्र को (बिभ्रतः) धारण करते हुए [पुरुषार्थ करते हुए] हम लोग (प्रियम्) प्रीति करनेवाले, (पनिप्नतम्) अत्यन्त व्यवहारकुशल, (युवानम्) पदार्थों के संयोग-वियोग करनेवाले वा बलवान्, (आहुतीवृधम्) यथावत् देने लेने योग्य क्रिया के बढ़ानेवाले राजा को (उप अगन्म) प्राप्त हुए हैं, वह (मे) मेरी (आयुः) आयु को (दीर्घम्) दीर्घ (कृणोतु) करे ॥१॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार नीतिकुशल, प्रतापी राजा अनेक विद्याओं के दान से प्रजा की रक्षा करे, उसी प्रकार प्रजा भी उसके उपकारों को सन्मानपूर्वक ग्रहण करे ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(उप) पूजायाम् (प्रियम्) प्रीतिकरम् (पनिप्नतम्) पन व्यवहारे स्तुतौ च यङ्लुकि शतृ। दाधर्तिदर्धर्ति०। पा० ७।४।६५। इति सूत्र इतिकरणस्य प्रदर्शनादत्राभ्यासस्य निगागम उपधालोपश्च। अत्यन्तं व्यवहारकुशलम् (युवानम्) पदार्थानां संयोजकवियोजकं बलवन्तं वा (आहुतीवृधम्) यथावद् दातव्यग्राह्यक्रियावर्धकम् (अगन्म) वयं प्राप्तवन्तः (बिभ्रतः) धारयन्तः (नमः) वज्रम्-निघ० २।२०। (दीर्घम्) चिरम् (आयुः) जीवनम् (कृणोतु) करोतु (मे) मम ॥

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    विषय

    प्रभु-स्मरण व दीर्घ जीवन

    पदार्थ

    १. (प्रियम्) = सबके इष्ट-प्रीणनकारी, (पनिप्नतम्) = [पन स्तुतौ] स्तूयमान, (युवानम्) = बुराइयों को दूर करनेवाले तथा अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाले, (आहुति-वृधम्) = दानों के द्वारा हमारा समन्तात् वर्धन करनेवाले [वर्धयितारं] उस प्रभु के (उप) = समीप (नमः बिभ्रत: अगन्म) = नमन को धारण करते हुए प्राप्त होते हैं। वे प्रभु मे (आयु:) = मेरे आयुष्य को दीर्घ (कृणोतु) = दीर्घ करें।

    भावार्थ

    प्रभु सबके प्रिय हैं, स्तुति के योग्य हैं, बुराइयों को हमसे पृथक करनेवाले हैं, दानों के द्वारा हमारा चारों ओर से बर्धन करनेवाले हैं। प्रभु के प्रति नमन वासनाविनाश के द्वारा हमारे दीर्घजीवन को सिद्ध करता है।

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    भाषार्थ

    (प्रियम्) प्रिय (पनिप्नतम्) स्तुत्य तथा व्यवहारकुशल, (युवानम्) युवा तथा (आहुतीवृधम्) यज्ञाहुतियों द्वारा बढ़ाने वाले [सम्राट्] को (उप अगन्म) हम प्राप्त हुए हैं (नमः) नमस्कार या अन्न को (बिभ्रत) धारण करते हुए; वह [सम्राट्] (मे) मेरी (आयु:) आयु को (दीर्घम् कृणोतु) दीर्घ करे।

    टिप्पणी

    [सूक्त (३२) से "इन्द्र" का अनुवर्त्तन हुआ है। सम्राट् ऐसा होना चाहिये जो प्रत्येक प्रजाजन को प्रिय हो, जो यज्ञकर्मों द्वारा प्रजा की आयु को बढ़ाए, युवा तथा व्यवहारकुशल हो। नमः अन्ननाम (निघं २।७) अर्थात् साम्राज्य में उत्पन्न अन्न का षष्ठांश भाग, “कररूप" में स्वेच्छया प्रदान करते हुए। पनिप्नतम्= पण व्यवहारे स्तुतौ च। पन च (भ्वादिः), यङ्लुकि रूपम् (सायण)]।

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    विषय

    दीर्घ आयु की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (प्रियं) अपने को प्रिय लगने वाली (प निप्नतम्) सदा क्रियाशील, नित्य प्रयोग में आने वाली (युवानम्) सदा तरुण अर्थात् प्रबल (आहुती-वृधम्) आहुति पडने पर बढ़ने वाली अग्नि अर्थात् जाठराग्नि में हम लोग (नमः बिभ्रतः) अन्न को डाला करें, इस प्रकार सदा (उप अगन्म) इस अग्नि के समीप हम रहें अर्थात् इससे हमारा वियोग कभी न हो। इससे वह प्रबल जाठर अग्नि (मे) मेरी (दीर्घम् आयुः) दीर्घ आयु (कृणोतु) करे। मन्दाग्नि में अन्न का भोजन करना आयुनाशक है। प्रबल जाठर अग्नि के होते हुए भूख लगने पर अन्न खाने से आयुष्य बढ़ता है।

    टिप्पणी

    ‘दीर्धमायु कृणोतु मे’ इति चतुर्थः पादो ऋग्वेद नास्ति।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। अनुष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prayer for Age and Health

    Meaning

    Bearing yajnic homage of havi and adamantine strength of vitality, we approach the dear, adorable, ever youthful Agni, rising by oblations of havi into the holy fire, and pray may the yajna-fire and lord of light grant us good health and long age.

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    Subject

    Aayuh

    Translation

    Bringing homage, we approach the adorable Lord, dear to us; worthy of praise, youthful, augmenter of offerings; may he make my life-span long.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.33.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    We should always maintain the balance of internal heat working in digestion-system which is a favorable one to us, which is always powerful, which performs various operations in the body, and which grows stronger with sound diets, by eating good eatables. Let it make my life long.

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    Translation

    May we put food in our digestive fire, friendly, active, young and strengthener of the sacrifice. May it bestow long life on me.

    Footnote

    Sacrifice: Food, which is put as an oblation in the stomach. Those whose digestion is strong attain to longevity.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(उप) पूजायाम् (प्रियम्) प्रीतिकरम् (पनिप्नतम्) पन व्यवहारे स्तुतौ च यङ्लुकि शतृ। दाधर्तिदर्धर्ति०। पा० ७।४।६५। इति सूत्र इतिकरणस्य प्रदर्शनादत्राभ्यासस्य निगागम उपधालोपश्च। अत्यन्तं व्यवहारकुशलम् (युवानम्) पदार्थानां संयोजकवियोजकं बलवन्तं वा (आहुतीवृधम्) यथावद् दातव्यग्राह्यक्रियावर्धकम् (अगन्म) वयं प्राप्तवन्तः (बिभ्रतः) धारयन्तः (नमः) वज्रम्-निघ० २।२०। (दीर्घम्) चिरम् (आयुः) जीवनम् (कृणोतु) करोतु (मे) मम ॥

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